Tuesday, April 9, 2013

तुम..

तुम..
..तुम अक्सर कहती थी..
..मै लिक्खु कोई कविता, तुम्हारे लिए..
..जिद करती थी ना तुम, याद है मुझे..

..पर मै क्या लिखता..
..मेरे लफ्ज कम, तुम्हारा विस्तार ज्यादा..
..मेरी सोच सीमित, तुम्हारा दायरा बङा..
..कभी समन्दर जैसे गहरी..
..कभी सहरा जैसे खाली..
..कभी बारिश जैसे नम..
..और कभी डुबते सुरज की तरह उदास..
..कैसे मै तुझे लफ्जो मे समेट देता मेरी जिन्दगी..

..जब भी कोशिश करता..
..कुछ ना कुछ छूट जाता..
..और मुझे भी जिद थी..
..कुछ ऐसा लिक्खु, जो अब तक लिक्खा न गया हो..
..कुछ ऐसा लिक्खु, जो अधुरा न हो..

..अब जबके तुम नही हो, तो लगता है..
..महोब्बत से लिक्खी मेरी आखिरी कविता..
..तुम ही थी..
..अब तो मै बस उदासिया लिक्खे जा रहा हुँ..

..सबसे खुबसूरत थी, इसलिये आखिरी थी..
..या आखिरी थी, इसलिये सबसे खुबसूरत थी..
..नही जानता..
..हाँ पर इतना जरुर जान पाया हुँ..
..किसी का नही होना, हमे समझदार बना जाता है..
..और ये बात बहुत देर होने के बाद हम समझ पाते है..

..कहने को तो बहुत कुछ है, मगर कैसे कहूँ..
..मेरे लफ्ज है, के खत्म हो गये है, मुझसे पहले ही..
..मेरे लफ्ज है, के मेरा साथ छोङ चुके है, तेरी तरह..
..मेरे लफ्ज है, के किसी और के होना नही चाहते, मेरी तरह..

..हाँ मगर याद है मुझे..
..तुम अक्सर कहती थी..
..मै लिक्खु कोई कविता, तुम्हारे लिए..
..जिद करती थी ना तुम, याद है मुझे..

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