Saturday, November 26, 2016

मैं हिन्दुस्तान हूँ सरदार के आज़ाद सपनो का

मेरे सीने से निकला है लहूँ अपनो के ज़ख़्मो का ,
महल कब हाल पूँछेगे घिसीं बेकार सड़को का ।

मेरी हालत बनाई है किसी अबला अभागिन सी ,
मैं हिन्दुस्तान हूँ सरदार के आज़ाद सपनो का ।

हिमालय से निकल आये किसी दिन लाडला मेरा ,
मुझे आभास होता है भगत से वीर कदमो का ।

जहाँ देखो वही अब तो इसी कुर्सी के झगड़े हैं ,
सभी मिल क़त्ल कर बैठे रिवाजों और रश्मो का ।

लगी है नाल सीने में चलाता फिर भी है तोपे ,
लहूँ बहता है सरहद पर मेरे दिलदार बच्चो का ।

हरेन्द्र सिंह कुशवाह
~~~एहसास~~~

Friday, November 25, 2016

दलित साहित्य की अवधारणा

 दलित साहित्य की अवधारणा

‘दलित’ शब्द का अर्थ है- जिसका दहन और दमन हुआ है, दबाया गया है, उत्पीड़ित, शोषित, सताया हुआ, गिराया हुआ, उपेक्षित, घृणित, रौंदा हुआ, मसला हुआ, कुचला हुआ, विनिष्ट, मर्दित, पस्त-हिम्मत, हतोत्साहित, वंचित आदि।
डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन दलित शब्द की व्याख्या करते हुए कहते हैं-‘दलित वह है जिसे भारतीय संविधान ने अनुसूचित जाति का दर्जा दिया है।’

इसी प्रकार कँवल भारतीय का मानना है कि ‘दलित वह है जिस पर अस्पृश्यता का नियम लागू किया गया है। जिसे कठोर और गन्दे कार्य करने के लिए बाध्य किया गया है। जिसे शिक्षा ग्रहण करने और स्वतन्त्र व्यवसाय करने से मना किया गया है और जिस पर सछूतों ने सामाजिक निर्योग्यताओं की संहिता लागू की, वही और वही दलित है, और इसके अन्तर्गत वही जातियाँ आती हैं, जिन्हें अनुसूचित जातियाँ कहा जाता है।’

मोहनदास नैमिशराय ‘दलित’ शब्द को और अधिक विस्तार देते हुए कहते हैं कि दलित शब्द मार्क्स प्रणीत सर्वहारा शब्द के लिए समानार्थी लगता है। लेकिन इन दोनों शब्दों में प्रर्याप्त भेद भी है। दलित की व्याप्ति अधिक है तो सर्वहारा की सीमित। दलित के अन्तर्गत सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक शोषण का अन्तर्भाव होता है, तो सर्वहारा केवल आर्थिक शोषण तक ही सीमित है। प्रत्येक दलित व्यक्ति सर्वहारा के अन्तर्गत आ सकता है, लेकिन प्रत्येक सर्वहारा को दलित कहने के लिए बाध्य नहीं हो सकते...अर्थात सर्वहारा की सीमाओं में आर्थिक विषमता का शिकार वर्ग आता है, जबकि दलित विशेष तौर पर सामाजिक विषमता का शिकार होता है।’

दलित शब्द व्यापक अर्थबोध की अभिव्यंजना देता  है। भारतीय समाज में जिसे अस्पृश्य माना गया वह व्यक्ति ही दलित है। दुर्गम पहाडों, वनों के बीच जीवनयापन करने के लिए बाध्य जनजातियाँ और आदिवासी, जरायमपेशा घोषित जातियाँ सभी इस दायरे में आती हैं। सभी वर्गों की स्त्रियाँ दलित हैं। बहुत कम श्रम-मूल्य पर चौबीसों घंटे काम करने वाले श्रमिक, बँधुआ मजदूर दलित की श्रेणी में आते हैं।

इन तथ्यों से स्पष्ट होता है कि दलित शब्द उस व्यक्ति के लिए प्रयोग किया होता है जो समाज-व्यवस्था के तहत सबसे निचली पायदान पर होता है। वर्ण-व्यवस्था ने जिसे अछूत या अन्त्यज की श्रेणी में रखा। उसका दलन हुआ। शोषण हुआ, इस समूह को ही संविधान में अनुसूचित जातियाँ कहा गया है जो जन्मना अछूत है।
दलित शब्द साहित्य के साथ जुड़कर एक ऐसी साहित्यिक धारा की ओर संकेत करता है, जो मानवीय सरोकारों और संवेदनाओं की ओर संकेत करता है, जो मानवीय सरोकारों और संवेदनाओं की यथार्थवादी अभिव्यक्ति है।
अनेक विद्वानों ने ’दलित साहित्य’ की व्याख्या करते हुए उसे परिभाषित किया है। दलित चिन्तक कंवल भारती की धारणा है कि ‘दलित साहित्य’ से अभिप्राय उस साहित्य से है। जिसमें दलितों ने स्वयं अपनी पीड़ा को रूपायित किया है अपने जीवन-संघर्ष में दलितों ने जिस यथार्थ को भोगा है, दलित साहित्य उनकी उसी अभिव्यक्ति का साहित्य है। यह कला के लिए कला नहीं, बल्कि जीवन का और जीवन की जिजीविषा का साहित्य है। इसलिए कहना न होगा कि वास्तव में दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य की कोटि में आता है।’

दलित साहित्य जन साहित्य है, यानी मास लिटरेचर (MASS  LITERATURE )। सिर्फ इतना ही नहीं, लिटरेचर ऑफ एक्शन (LITERATURE OF ACTION) भी है जो मानवीय मूल्यों की भूमिका पर सामन्ती मानसिकता के विरूद्ध आक्रोशजनित संघर्ष और विद्रोह से उपजा है दलित साहित्य।

मराठी कवि नारायण सूर्वे का कहना है कि ‘दलित शब्द की मिली-जुली परिभाषाएँ हैं। इसका अर्थ केवल बौद्ध या पिछड़ी जातियाँ ही नहीं, समाज में जो भी पीड़ित हैं, वे दलित हैं। ईश्वर निष्ठा या शोषण निष्ठा जैसे बन्धनों से आदमी को मुक्त रहना चाहिए। उसका स्वतन्त्र अस्तित्व सहज स्वीकार किया जाना चाहिए। उसके सामाजिक अस्तित्व की धारणा समता, स्वतन्त्रता और विश्वबन्धुत्व के प्रति निष्ठा निर्धारित होनी चाहिए। यही दलित साहित्य का आग्रह है। ‘दलित साहित्य’ संज्ञा मूलतः प्रश्न सूचक है। महार, चमार, माँग, कसाई, भंगी जैसी जातियों की स्थितियों के प्रश्नों पर विचार तथा रचनाओं द्वारा उसे प्रस्तुत करनेवाला साहित्य ही दलित है।
डॉ. सी.बी. भारती की मान्यता है कि ‘नवयुग का व्यापक वैज्ञानिक व यथार्थपरक संवेदनशील साहित्यिक हस्तक्षेप है। जो कुछ भी तर्कसंगत, वैज्ञानिक, परम्पराओं का पूर्वाग्रहों से मुक्त साहित्य सृजन है हम उसे दलित साहित्य के नाम से संज्ञायित करते हैं।’

राजेन्द्र यादव दलित शब्द को काफी व्यापक दायरे में देखते हैं। वे स्त्रियों को भी दलित मानते हैं। पिछड़ी जातियों को भी दलितों में शामिल करते हैं। लेकिन डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन उनके इस तर्क से सहमत नहीं हैं। उनका कहना है: ‘इससे साहित्य में सही स्थिति सामने नहीं आती। दलित साहित्य उन अछूतों का साहित्य है जिन्हें सामाजिक स्तर पर सम्मान नहीं मिला। सामाजिक स्तर पर जातिभेद के जो शिकार हुए हैं, उनकी छटपटाहट ही शब्दबद्ध होकर दलित साहित्य बन रही है।’
बाबूराव बागूल ‘दलित’ विशेषण को सम्यक क्रान्ति का नाम मानते हैं जोकि क्रान्ति का साक्षात्कार है।

यही मान्यता अर्जुन डाँगले की भी है। उनका कहना है कि ‘दलित’ शब्द का अर्थ साहित्य के सन्दर्भ में नए अर्थ देता है। दलित यानी शोषित, पीड़ित सामाज, धर्म व अन्य कारणों से जिसका आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक शोषण किया जाता है, वह मनुष्य और वही मनुष्य क्रान्ति कर सकता है। यह दलित साहित्य का विश्वास है।’
इन विवेचनाओं एवं विशेषणों के आधार पर जो तथ्य स्थापित होते हैं, उनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि दलित शब्द दबाए गए, शोषित, पीड़ित, प्रताड़ित के अर्थों के साथ जब साहित्य से जुड़ता है तो विरोध और नकार की ओर संकेत करता है। वह नकार या विरोध चाहे व्यवस्था का हो, सामाजिक विसंगतियों या धार्मिक रूढियों, आर्थिक विषमताओं का हो या भाषा प्रान्त के अलगाव का हो या साहित्यिक परम्पराओं, मानदंडों या सौन्दर्यशास्त्र का हो, दलित साहित्य नकार का सहित्य है जो संघर्ष से उपजा है तथा जिसमें समता, स्वतन्त्रता और बन्धुता का भाव है, और वर्ण व्यवस्था से उपजे जातिवाद का विरोध है।

साहित्य के साथ दलित शब्द जुड़ते ही उसकी व्यापकता और अधिक क्रान्ति बोधक हो जाती है। अर्थ और अधिक व्यंजनात्मक होकर साहित्य की भूमिका और सामाजिक उत्तरदायित्वों को और अधिक विश्लेषित करने की क्षमता हासिल कर लेता है। दलित शब्द विरोध की अभिव्यक्ति का प्रतीक बन जाता है। मानवीय संवेदनाओं के सरोकारों से जुड़कर सामाजिक प्रतिबद्धता स्थापित करता है।
दलित साहित्य की जितनी भी परिभाषाएँ हैं, उनका एकमात्र स्वर है। सामाजिक परिवर्तन अम्बेडकरवादी विचार ही उनकी एकमात्र प्रेरणा है। बाबूराव बागूल के शब्दों में कहें, ‘मनुष्य की मुक्ति को स्वीकार करने वाला, मनुष्य को महान माननेवाला, वंश, वर्ण और जाति श्रेष्ठत्व का प्रबल विरोध करनेवाला साहित्य ही दलित साहित्य है।’

आज दलित साहित्य चर्चा के केन्द्र में है। वैसे तो दलित साहित्य के अनेक विद्वान दलित साहित्य का इतिहास बहुत पुराना मानते हैं। सिद्ध कवियों, भक्त कवियों की रचनाओं में दलित चेतना के सूत्र बीज रूप में मानते हैं। ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हीरा डोम की कविता को भी कई विद्वान पहली हिन्दी दलित कविता मानतें हैं। अछूतान्द के आन्दोलन और उसकी रचनाओं में सामाजिक उत्पीड़न को स्पष्ट देखा जा सकता है। आजादी के बाद भी अनेक दलित कवि हुए हैं, जिन पर गांधीवाद का प्रभाव ज्यादा है। उनमें हरित जी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। माताप्रसाद, मंशाराम विद्रोही आदि ने बहुतायत में दलित लेखन किया है।

लेकिन दलित साहित्य की प्रेरणा जब अम्बेडकर-दर्शन को स्वीकार कर लेते हैं तो कुछ तथ्य स्वयं ही विश्लेषित हो जाते हैं। सातवें दशक में शिक्षित होकर कार्यक्षेत्र में उतरे दलित लेखकों की जद्दोजहद और संघर्ष ने हिन्दी दलित साहित्य की जो भूमि तैयार की उसका नोटिस गैर-दलितों ने काफी विलम्ब से लिया जबकि दलित पत्र-पत्रिकओं में यह गूँज पहले ही अपने पैर जमा चुकी थी। सातवें दशक में ‘निर्णायक भीम’ (सम्पादक आर. कमल, कानपुर) पत्रिका में दलित लेखकों को जो एक मंच प्रदान किया, उसकी बदौलत हिन्दी के कई नाम उभरकर सामने आए। इस बीच अनेक दलित पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन इस संघर्ष के लिए अनुकूल साबित हुआ। मोहनदास नैमिशराय स्वतन्त्र लेखन एवं पत्रकारिता  से जुड़े और अपनी एक विशिष्ट पहचान निर्मित की।

 31 जुलाई, 1992 को ‘हंस’ पत्रिका ने ‘दलित चेतना : विशिष्ट सन्दर्भ प्रेमचन्द्र’ विषय पर नई दिल्ली में वार्षिक गोष्ठी का आयोजन किया जिसकी चर्चा लम्बें समय तक चली और अन्त में ‘स्त्री दलित है या नहीं’ पर केन्द्रित हो गई। लेकिन इस चर्चा से यह लाभ जरूर हुआ कि जो दलित साहित्य को अभी तक अनदेखा कर रहे थे, उनका ध्यान इस ओर गया। कुछ विद्वान हिन्दी साहित्य से ढूँढ़-ढूँढ़कर दलित साहित्य की सूचियाँ दिखाने लगे। कल तक जहाँ दलित साहित्य का जिक्र नहीं था, वहाँ प्रेमचन्द्र, नागार्जुन, धूमिल, अमृतलाल नागर, गिरिराज किशोर, यहाँ तक कि तुलसीदास भी दलित कवियों की श्रेणी में आने लगे।

शिवपुरी में कथाकार पुन्नी सिंह ने ‘कमल’ के मंच से दलित साहित्य पर संगोष्ठी कराई, जिसमें नामवर सिंह और राजेन्द्र यादव ने भाग लिया था। उसी वर्ष (1993) अक्टूबर के अखिल भारतीय हिन्दी दलित-लेखक-साहित्य सम्मेलन का आयोजन डॉ. विमल कीर्ति ने नागपुर में किया। हिन्दी दलित साहित्य के लिए एक ऐतिहासिक क्षण था। इस सम्मेलन की अध्यक्षता करने का अवसर मुझे मिला था। डॉ. महीप सिंह, कथाकार, सम्पादक-संचेतना को उद्घाटनकर्ता के तौर पर आमन्त्रित किया गया था। डॉ. महीप सिंह ‘संचेतना’ का मराठी दलित साहित्य (हिन्दी में) विशेषांक प्रकाशित कर चुके थे। दो दिन इस सम्मेलन में डॉ. महीप सिंह ने दलित लेखकों की जद्दोजहद बहुत करीब से देखी थी। दलित लेखकों ने अपनी पूर्व हिन्दी साहित्य पर अनेक सवाल उठाए थे जिन पर आगे चलकर एक सार्थक बहस हुई थी। और इसके रचनात्मक परिणाम भी दिखाई पड़े। प्रेमचन्द्र और उनकी चर्चित कहानी ‘कफन’ पर उठाए गए सवालों पर ‘समकालीन जनमत’ ने बहस चलाई थी। ‘हंस’, ‘कथानक’, ‘इंडिया टुडे’ आदि पत्रिकाओं ने दलित कहानियाँ प्रकाशित कीं। ‘प्रज्ञा साहित्य’, ‘सुमन लिपि’ ‘युद्धरत आम आदमी’ ‘पश्यन्ति’ ने दलित अंक निकाले। नागपुर से ‘अंगत्तर’ त्रैमासिक  (डॉ. विमल कीर्ति) का नियमित प्रकाशन शुरू हुआ। राष्ट्रीय सहारा ने ‘हस्तक्षेप’ साप्ताहिक परिशिष्ट के दो अंक निकाले, राजकिशोर ने आज के प्रश्न श्रृंखला में ‘हरिजन से दलित’ पुस्तक का सम्पादन किया।

17 अगस्त,1998 को जनवादी लेखक संघ, नई दिल्ली ने साहित्य अकादमी के सभासागर में दलित आत्मकथा ‘जूठन’ (ओमप्रकश वाल्मीकि) पर संगोष्ठी का आयोजन किया जिसमें दलित, गैर-दलित विद्वानों, लेखकों ने भाग लिया तथा दलित साहित्य पर एक गम्भीर चर्चा हुई।
गत वर्षों में दलित साहित्य आन्दोलन से हिन्दी के प्रतिष्ठित लेखकों और विद्वानों के दृष्टिकोण में बदलाव की प्रक्रिया का जो रूप उभरा है, वह एक उम्मीद जगाता है। इन सबके बाद भी हिन्दी समीक्षकों, साहित्यकारों और पाठकों का एक ऐसा वर्ग है, जो दलित साहित्य पर लगातार आरोप लगाता रहा है। कभी उस पर जातिवादी होने का आरोप तो कभी समाज में विघटन करने का आरोप, तो कभी साहित्य की ‘उत्कृष्टता’ और ‘पवित्रता’ को नष्ट-भष्ट कर देने का आरोप तो कभी नामवरजी को लगता है कि दलित लेखकों की साहित्य में घुसपैठ करके आरक्षण माँगने की नीयत है। इसलिए वे बार-बार यह दोहराते हैं कि साहित्य में आरक्षण नहीं होता। यह वाक्य उछलकर दलित साहित्य को खारिज कर देने की मुहिम चलाई जा रही है जबकि यह सवाल ही बेबुनियाद है, साथ ही पूर्वग्रहों से भरा हुआ भी। कुछ विरोध तो केवल व्यक्तिगत हैं, जैसे नामवरजी के लिए नेतृत्व का संकट। कुछ कारण सामन्ती प्रवृत्तियों के भी हैं, जो दलित साहित्य के लिए संकट उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं।

दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र


दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र

दलित साहित्यान्दोलन की एक बड़ी कमी को पूरा करती दलित-रचनात्मकता की मूलभूत आस्थाओं और प्रस्थान बिन्दुओं की खोज.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
वर्ण व्यवस्था के अमानवीय बन्धनों ने शताब्दियों से दलितों के भीतर हीनता भाव को पुख्ता किया है। धर्म और संस्कृति की आड़ में साहित्य ने भी इस भावना की नींव सुदृढ़ की है। ऐसा सौन्दर्य शास्त्र का निर्माण किया गया जो अपनी सोच और स्थापनाओं में दलित विरोधी है और समाज के अनिवार्य अर्न्तसम्बन्धों को खंडित करने वाला भी।

जनवादी प्रगतिशील और राजतान्त्रिक साहित्य द्वारा भरत में केवल वर्ग की ही बात करने से उपजी एकांकी दृष्टि के विपरीत दलित साहित्य समाजिक समानता और राजनीतिक भागीदारी को भी साहित्य का विषय बनाकर आर्थिक समानता की मुहिम को पूरा करता है- ऐसी समानता जिसके बगैर मनुष्य पूर्ण समानता नहीं पा सकता।

दलित चिन्तन के नए आयाम का यह विस्तार साहित्य की मूल भावना का ही विस्तार है जो पारस्परिक और स्थापित साहित्य को आत्मविश्लेषण के लिए बाध्य करता है झूठी और अतार्किक मान्यताओं का विरोध। अपने पुराण साहित्यकारों के प्रति आस्थावान न रह कर नहीं, बल्कि आलोचनात्मक दृष्टि रखकर दलित साहित्यकारों ने नई जद्दोजहद शुरू की है, जिसमें जड़ता टूटी है और साहित्य आधुनिकता और समकालीनता की ओर अग्रसर हुआ है।

यह पुस्तक दलित साहित्य आन्दोलन की एक बड़ी कमी को पूरी करती हुई दलित-रचनात्मकता की कुछ मूलभूत आस्थाओं और प्रस्थान बिन्दुओं की खोज भी करती है, और साहित्य के स्थापित तथा सर्वस्वशाली गढ़ों को उन आस्थाओं के बल पर चुनौती देता है।

भूमिका
गत वर्षों में होने वाली बहसों, चर्चाओं, सहमति, असहमतियों के बीच जो सवाल उठते रहे हैं, उन सवालों ने ही इस पुस्तक की परिकल्पना के लिए मुझे उकसाया है।
दलित साहित्य की अवधारणा क्या है ?’’ उसकी प्रासंगिकता क्या है ? दलित-चेतना का अर्थ है ?- आदि सवाल दलित, गैर-दलित रचनाकारों, आलोचकों, विद्वानों के बीच उठते रहें है। यहाँ यह सवाल भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है कि दलित साहित्यकार किसे कहें ? इन तमाम सवालों को केन्द्र में रखकर ही दलित साहित्य और उसके सौन्दर्यशास्त्र पर बात हो सकती है। आदर्शवाद ही महीन बुनावट में असमंजस की स्थितियाँ हिन्दी यथास्थितिवाद को ही पुख्ता करती हैं। ये आदर्शवादी स्थितियाँ हिन्दी क्षेत्रों में किसी बड़े आन्दोलन के जन्म न ले पाने के कारणों में से एक है। सामन्ती अवशेषों ने कुछ ऐसे मुखौटे धारण किए हुए हैं जिनके भीतर संस्कारों और सोंच को पहचान पाना मुश्किल होता है। व्यक्तिगत जीवन के दोहरे मापदंडों में ही नहीं साहित्य, संस्कृति के मोर्चे पर भी छद्म चेहरे रूप बदलकर मानवीय संवेदनाओं से अलग एक काल्पनिक संसार की रचना में लगे हुए रहतें हैं। बुनियादी बदलाव की संघर्षपूर्ण जद्दोजहद को कुन्द कर देने में इन्हें महारत हासिल है। यही यथास्थितिवादी लोग दलित साहित्य की जीवन्तता और सामाजिक बदलाव की मूलभूत चेतना को अनदेखा कर उस पर जातीय संकीर्णता एवं अपरिपक्वता का आरोप लगा रहे हैं।

सौन्दर्यशास्त्र की विवेचना में सौन्दर्य’, ‘कल्पना’, ‘बिम्ब’ और ‘प्रतीक’ को प्रमुख माना है विद्वानों ने जबकि सौन्दर्य के लिए सामाजिक यथार्थ एक विशिष्ट घटक है। कल्पना और आदर्श की नींव पर खड़ा साहित्य किसी भी समाज के लिए प्रासंगिक नहीं हो सकता है। साहित्य के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता और वर्तमान की दारुण विसंगतियाँ ही उसे प्रसंगिक बनाती हैं। यदि कबीर आज भी प्रासंगिक लगता है तो वे सामाजिक स्थितियाँ ही हैं जो कबीर को प्रासंगिक बनाती हैं।

हिन्दी में दलित साहित्य की चर्चा और उस पर उठे विवादों ने हिन्दी साहित्य को ही कठघरे में खड़ा कर दिया है। जहाँ एक ओर हिन्दी साहित्य के मठाधीश, समीक्षक, आलोचक, दलित साहित्य के अस्तित्व को ही नकार रहे हैं, वहीं कुछ लोग यह सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं कि दलित साहित्य के लिए दलित होना जरूरी नहीं है। उनका कहना है कि हिन्दी में दलित समस्याओं पर लिखनेवालों की एक लम्बी परम्परा है। ऐसी ही चर्चा के दौरान कथाकार की एक लम्बी परम्परा है। ऐसी ही चर्चा के दौरान कथाकार काशीनाथ सिंह ने अपने एक अध्यक्षीय भाषण में टिप्पणी की थी, ‘‘घोड़े पर लिखने के लिए घोड़ा होना जरूरी नहीं।’’ विद्वान कथाकार का यह तर्क किस सोच को उजागर करता है ? घोड़े को देखकर उसके बाह्य अंगों, उसकी दुलकी चाल, उसके पुट्ठों, उसकी हिनहिनाहट पर ही लिखेंगे। लेकिन दिन-भर का थका-हारा, जब वह अस्तबल में भूखा- प्यासा खूंटे से बँधा होगा, तब अपने मालिक के प्रति उसके मन में क्या भाव उठ रहे होंगे, उसकी अन्तःपीड़ा क्या होगी, इसे आप कैसे समझ पाएँगे ? मालिक का कौन-सा रूप और चेहरा उसकी कल्पना होगा, सिर्फ घोड़ा ही जानता है।

दलित साहित्य की भाषा, बिम्ब, प्रतीक, भावबोध परम्परावादी सहित्य से भिन्न हैं, उसके संस्कार भिन्न हैं।
हिन्दी के चर्चित कवि मंगलेश डबराल से एक साक्षात्कार में ललित कार्तिकेय द्वारा पूछा गया प्रश्न बहुत अहम है, ‘‘आपकी कविताओं में पहाड़ी जीवन की कठिनाइयों की झलक तो मिलती है, लेकिन पहाड़ी समाज के भीतर के सामाजिक अन्तर्विरोध को आप अपने काव्य में नहीं लाते ?’’

यही स्थिति समूचे हिन्दी साहित्य की है। मानवीय सम्बन्धों के अमूर्त रेखांकन से गद्गद हिन्दी साहित्य यह बताने में असमर्थ नहीं है कि महादेवी वर्मा जो ‘नीर भरी दुःख की बदरी’ हैं, उनकी इस पीड़ा का स्रोत क्या है ?
दलित लेखकों द्वारा आत्मकथाएँ लिखने की जो छटपटाहट है वह भी इन स्थितियों की ही परिणति है। सामाजिक अन्तर्विरोधों से उपजी विसंगतियों ने दलितों में गहन नैराश्य पैदा किया है। सामाजिक संरचना के परिणाम बेहद अमानवीय एवं नारकीय सिद्ध हुए हैं। सामाजिक जीवन की दग्ध अनुभूतियाँ अपने अन्तस् में छिपाए दलितों के दीन-हीन चेहरे सहमें हुए हैं। इन भयावह स्थितियों के निर्माता कौन हैं ? दोहरे सांस्कृतिक मूल्यों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी ढो़ते रहने को अभिशप्त जनमानस की विवशता साहित्य के लिए जरूरी क्यों नहीं है ? क्यों साहित्य एकांगी होकर रह गया है ? ये सारे प्रश्न दलित साहित्य की अन्तःचेतना में समायोजित हैं।

दलित साहित्य के लिए अलग सौन्दर्यशास्त्र की आवश्यकता क्यों पड़ी यह एक अहम सवाल है। इस पुस्तक की रचना प्रक्रिया के दौरान ऐसे अनेक प्रश्नों से सामना हुआ, जिन पर समीक्षकों को गम्भीरता से सोचना होगा। अलग सौन्दर्यशास्त्र की परिकल्पना से हिन्दी साहित्य का विघटन नहीं विस्तार होगा, ऐसी मेरी मान्यता है।

हिन्दी समीक्षक रचना के मापदंडों के प्रति बहुत ज्यादा संवेदनशील दिखाई पड़ते हैं। रचना का मापदंड क्या हो सकता हो ? कैसे हो ? इसके लिए जरूरी है कि उसके उदगम और भावबोध पर चर्चा हो, समाजशास्त्रीय आलोचना का विकास हो। उन मापदंडों में भी परिवर्तन की आवश्यकता है, जो सामन्ती सोच के पक्षधर हैं, कुलीन घरानों के नायकत्व से आतंकित हैं। उनकी अभिलाषाएँ, उनकी आकांक्षाएँ ही यदि साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र का निर्धारण करती हैं, तो ऐसा साहित्य मानवीय संवेदनाओं को कहाँ तक सँजो पाएगा, इसमें सन्देह नहीं है।

इस पुस्तक में दलित साहित्य और उसकी सोच एवं दृष्टि को व्याख्यायित करने का प्रयास किया गया है। इस पुस्तक के लिखने में अनेक मित्रों, विद्वानों का सहयोग मिला है। उनके प्रति आभार, बिना किसी औपचारिकता के। दलित साहित्य-आन्दोलन से जुड़े उन तमाम लोगों का आभार, जिनकी जद्दोजहद ने मुझे यह पुस्तक लिखने की प्रेरणा दी। डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन, डॉ, धर्मपाल पीहल एवं डॉ. जय किशन, (उस्सानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद), जिनके सम्बल एवं प्रोत्साहन, सहयोग के बगैर यह सामग्री पुस्तक रूप नहीं ले सकती थी।
पुस्तक की पांडुलिपि तैयार करने में मेरे मित्र टिकारामजी ने जो सहयोग दिया, उसके लिए मैं उनका आभारी हूँ।
प्रस्तुत सामग्री के कुछ अंश ‘हंश’, ‘पहल’, ‘संचेतना’, ’वसुधा’ और ‘भारत अश्वघोष’ में छप चुके हैं।

दलित साहित्य की उत्पत्ति

दलित साहित्य

दलित साहित्य सातवे दशक के हिन्दी साहित्य की एक विशिष्ट विधा के रूप में अस्तित्व में आया । हिन्दी साहित्य मे दलित, पीड़ित जनसमूह को आधार बनाकर लिखे गए साहित्य को दलित साहित्य कहा गया । दलित साहित्य क्या है ? इसकी उतप्ति, संकल्पना, अर्थ, स्वरूप और अस्तित्व पर विचार करना आवश्यक है ।
संकल्पना :
दलित शब्द को समझे तो संस्कृत की 'दल' धातु से 'दलित' शब्द बना है । जिसका अर्थ है तोड़ना, कुचलना । इसके विभिन्न अर्थ है - टूटा हुआ, पिसा हुआ, फैला हुआ आदि ।
दलित साहित्य वह साहित्य है जो सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक क्षेत्रो में पिछड़े हुए उत्पीड़ित, अपमानित, शोषित जनों की पीड़ा को व्यक्त करता है ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से आज तक की उनकी आर्थिक, सामाजिक व शैक्षणिक स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है और इसका जिम्मेदार और कोई नहीं हमारा समाज ही है । इन अपेक्षित जनसमूह की पीड़ा, वेदना, कुंठाए, परम्पराए, पर्वो, उत्सवो, व्यवसायों, अज्ञानता आदि को जिस साहित्य मे अभिव्यक्त किया गया हो वह दलित साहित्य है ।
हिन्दी उपन्यास साहित्य में इन दलितों के जीवन विषयक कई उपन्यासों की रचना हुई है । जैसे 'एक चिथड़ा इतिहास', 'बंझर धरती', 'ग्राम सेवक', 'ग्राम देवता', 'गोदान', 'बहुत नाच्यों गोपाल' आदि ।
डॉ रामदेश शुक्ल कृत 'ग्रामदेवता' उपन्यास हरिजन समाज के एक युवक की मनोदशा का सफल चित्रांकन है । गोपाल अध्याय कृत 'एक चिथड़ा इतिहास' में हरिजनो की स्थिति का चित्रण है । प्रेमचंद कृत 'गोदान' में अछूत समस्या को विस्तृत रूप से चित्रित किया गया है । उनके एक और उपन्यास 'कर्मभूमि' में भी धर्म, कर्म की चर्चा की गई है । प्रेमचंद के विचारों में कहे तो - "जो दलित है, पीड़ित है, वंचित है चाहे वह व्यक्ति हो या समूह उसकी वकालत करना साहित्यकार का दायित्व है ।"
हिन्दी साहित्य में निर्गुण सैट कवियों की वाणियों में दलित साहित्य के बीज छिपे है । सैट कवियों ने वर्ण व्यवस्था, जाती-पाती, ब्राहमीन, शूद्र, मूर्तिपूजा और पाखंड का विरोध किया ।
संत कबीर और राइडस ने संकीर्ण जातिवादी व्यवस्था का विरोध ही नहीं किया वरन एसे समाज की स्थापना का आधार तैयार किया एलआईएसमे वर्ण, जाति, लिंग के आधार पर कोई भेदभाव न हो तथा समता, स्वतंत्रता और बंधुता के आधार पर समाज का निर्माण हो । कबीर कहतें है -
एक तुचा हद मल मूता,
एक रुधिर एकै गुदा ।
एक बूंद सों सृष्टि रची है,
को बाभन को सौदा ।
बिसवी सदी के तृतीय दशक के आरंभ में गांधीजी का देश के पटल पर आगमन हुआ । मंदिर प्रवेश, छूआछुत खत्म करके एक आदर्श समाज का निर्माण करने का प्रयास किया । एसे समय में प्रेमचंद ने 'सदगति', ठाकुर का कुआं' आदि कहानियों में दलित समस्या का यथार्थ वर्णन किया । आगे हरिऔंध जी, माधव शुक्ल, भगवतीचरण वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी आदि ने इस विषय पर लिखा । गांधी जी के अछूत्तोध्धार आंदोलन से प्रभावित होकर सन 1927 में 'चाँद' पत्रिका में अछूत विशेषांक निकला ।
आधुनिक हिन्दी साहित्य में दलित साहित्य मराठी भाषा से आया । महाराष्ट्र में सर्वप्रथम दलितों ने ही उपन्यास, आत्मकथा और आँय रचनाए लिखी । ज्योतिबा फुले ने 'गुलमगिरी' नमक पुस्तक के द्वारा दलितों में जागरण पैदा किया ।
दलित साहित्य रूढ़िवाद, जातिवाद और भाग्यवाद को नहीं मानता । नारी उत्पीड़न और श्रमिक उत्पीड़न के विरुद्ध खुला विद्रोह इसके मूल स्वर में शामिल है । दलितों में आशा का संचार, स्वाभिमान, स्फूर्ति और जनचेतना दलित साहित्य का मूल प्रतिपाध्य है ।
दलित साहित्य आज एक आंदोलन का रूप ले चुका है । गाध्य के क्षेत्र में इसको प्रतिष्ठित होने में अभी समय लगेगा पर कवि क्षेत्र में इसका राष्ट्रीय प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है ।
साहित्य समाज का दर्पण है । यह उक्ति तब तक अर्ध सत्य ही है, जब तक साहित्य समाज के मात्र एक पहलू को दर्शा पाएगा या जब तक बहुसंख्यक दलित मानव का दुख-दर्द, जीवन-मरण की स्थितियाँ साहित्य में प्रतिबिंबित नहीं होती तब तक यह कालिख पूता शीशा है, पारदर्शी सच का दर्पण तो कतई नहीं । जब की दलित साहित्य दलित समाज का दर्पण भी है और दीपक भी ।

प्रमुख हिंदी दलित रचनाकार

प्रमुख हिंदी दलित साहित्यकार

डा. धर्मवीर
विपिन बिहारी
कैलाश वानखेड़े
सोहन पाल सुमनाक्षर
अवनीश राही
कैलाश चंद चौहान
बिहारी लाल हरित
आनंद स्वरूप बौद्ध
महाशय नत्थु राम ताम्र मेली
प्रोफ़ेसर शत्रुघ्न कुमार
ओमप्रकाश वाल्‍मीकि
धर्मवीर
मोहनदास नैमिशराय
कँवल भारती
संजीव खुदशाह
श्योराज सिंह बेचैन
तेज़ सिंह
सूरजपाल चौहान
जयप्रकाश कर्दम
तुलसी राम
चमनलाल
विमल थोरात
बुद्धशरण हंस
दयानंद बटोही
कौशल्या बैशंत्री
माता प्रसाद
चंद्रभान प्रसाद
सी.बी. भारती
उमराव सिंह जाटव
अजय नावरिया
रूपनारायण सोनकर
रत्न कुमार साम्भरिया
राजेश कुमार बौद्ध
रजत रानी मीनू
डॉ.एन.सिंह
ईश कुमार गंगानिया
दिलीप कठेरिया
अरविन्‍द भारती
मुसाफिर बैठा
जगदीश पंकज
असंगघोष
अजय यतीश
रमा शंकर आर्य
कावेरी
देवनारायण पासवान देव
वीरचंद्र दास
तेजपाल सिंह तेज
सुदेश तनवर
सुनील कुमार सुमन
रजनी तिलक
हेमलता महीश्वर
प्रेम कपाडिया
डॉ.नरेन्द्र कुमार आर्य
अजय चौधरी
डॉo विजय भारती

दलित साहित्य की अवधारणा

दलित साहित्य


दलित साहित्य से तात्‍पर्य दलित जीवन और उसकी समस्‍याओं पर लेखन को केन्‍द्र में रखकर हुए साहित्यिक आंदोलन से है जिसका सूत्रपात दलित पैंथर से माना जा सकता है। दलितों को हिंदू समाज व्‍यवस्‍था में सबसे निचले पायदान पर होने के कारण न्याय, शिक्षा, समानता तथा स्वतंत्रता आदि मौलिक अधिकारों से भी वंचित रखा गया। उन्‍हें अपने ही धर्म मे अछूत या अस्‍पृश्‍य माना गया। दलित साहित्य की शुरूआत मराठी से मानी जाती है जहां दलित पैंथर आंदोलन के दौरान बडी संख्‍या में दलित जातियों से आए रचनाकारों ने आम जनता तक अपनी भावनाओं, पीडाओं, दुखों-दर्दों को लेखों, कविताओं, निबन्धों, जीवनियों, कटाक्षों, व्यंगों, कथाओं आदि के माध्‍यम से पहुंचाया।






अवधारणा

दलित साहित्य की अवधारणा को लेकर लंबी बहसें चलीं. यह सवाल दलित साहित्य में प्रमुखता से छाया रहा कि दलित साहित्य कौन लिख सकता है, यानी स्‍वानुभूति ही प्रामाणिक होगी या सहानुभूति को भी स्‍थान मिलेगा। प्रमुख दलित साहित्‍यकारों ने कहा चूंकि सवर्णों ने दलितों की पीडा को भोगा नहीं, इसलिए वे दलित साहित्य नहीं लिख सकते. हालांकि यह मत ज्‍यादा दिनों तक टिका नहीं, लेकिन आरंभ में बहस का मुद्दा बना रहा। यह प्रश्‍न मराठी की तुलना में हिंदी में अधिक उठा. अंत में इस बात पर राय बनती नजर आई कि दलित साहित्य अस्‍सी और नब्‍बे के दशक में उभरा एक साहित्यिक आंदोलन है जिसमें प्रमुखता से दलित समाज में पैदा हुए रचनाकारों ने हिस्‍सा लिया और इसे अलग धारा मनवाने के लिए संघर्ष किया।



साहित्य में दलित

हालांकि साहित्य में दलित वर्ग की उपस्थिति बौद्ध काल से मुखरित रही है किंतु एक लक्षित मानवाधिकार आंदोलन के रूप में दलित साहित्य मुख्यतः बीसवीं सदी की देन है।[2]रवीन्द्र प्रभात ने अपने उपन्यास ताकि बचा रहे लोकतन्त्र में दलितों की सामाजिक स्थिति की वृहद चर्चा की है[3] वहीं डॉ॰एन.सिंह ने अपनीं पुस्तक "दलित साहित्य के प्रतिमान " में हिन्दी दलित साहित्य के इतिहास कों बहुत ही विस्तार से लिखा है।

Tuesday, April 9, 2013

तुम..

तुम..
..तुम अक्सर कहती थी..
..मै लिक्खु कोई कविता, तुम्हारे लिए..
..जिद करती थी ना तुम, याद है मुझे..

..पर मै क्या लिखता..
..मेरे लफ्ज कम, तुम्हारा विस्तार ज्यादा..
..मेरी सोच सीमित, तुम्हारा दायरा बङा..
..कभी समन्दर जैसे गहरी..
..कभी सहरा जैसे खाली..
..कभी बारिश जैसे नम..
..और कभी डुबते सुरज की तरह उदास..
..कैसे मै तुझे लफ्जो मे समेट देता मेरी जिन्दगी..

..जब भी कोशिश करता..
..कुछ ना कुछ छूट जाता..
..और मुझे भी जिद थी..
..कुछ ऐसा लिक्खु, जो अब तक लिक्खा न गया हो..
..कुछ ऐसा लिक्खु, जो अधुरा न हो..

..अब जबके तुम नही हो, तो लगता है..
..महोब्बत से लिक्खी मेरी आखिरी कविता..
..तुम ही थी..
..अब तो मै बस उदासिया लिक्खे जा रहा हुँ..

..सबसे खुबसूरत थी, इसलिये आखिरी थी..
..या आखिरी थी, इसलिये सबसे खुबसूरत थी..
..नही जानता..
..हाँ पर इतना जरुर जान पाया हुँ..
..किसी का नही होना, हमे समझदार बना जाता है..
..और ये बात बहुत देर होने के बाद हम समझ पाते है..

..कहने को तो बहुत कुछ है, मगर कैसे कहूँ..
..मेरे लफ्ज है, के खत्म हो गये है, मुझसे पहले ही..
..मेरे लफ्ज है, के मेरा साथ छोङ चुके है, तेरी तरह..
..मेरे लफ्ज है, के किसी और के होना नही चाहते, मेरी तरह..

..हाँ मगर याद है मुझे..
..तुम अक्सर कहती थी..
..मै लिक्खु कोई कविता, तुम्हारे लिए..
..जिद करती थी ना तुम, याद है मुझे..