Friday, November 25, 2016

दलित साहित्य की अवधारणा

दलित साहित्य


दलित साहित्य से तात्‍पर्य दलित जीवन और उसकी समस्‍याओं पर लेखन को केन्‍द्र में रखकर हुए साहित्यिक आंदोलन से है जिसका सूत्रपात दलित पैंथर से माना जा सकता है। दलितों को हिंदू समाज व्‍यवस्‍था में सबसे निचले पायदान पर होने के कारण न्याय, शिक्षा, समानता तथा स्वतंत्रता आदि मौलिक अधिकारों से भी वंचित रखा गया। उन्‍हें अपने ही धर्म मे अछूत या अस्‍पृश्‍य माना गया। दलित साहित्य की शुरूआत मराठी से मानी जाती है जहां दलित पैंथर आंदोलन के दौरान बडी संख्‍या में दलित जातियों से आए रचनाकारों ने आम जनता तक अपनी भावनाओं, पीडाओं, दुखों-दर्दों को लेखों, कविताओं, निबन्धों, जीवनियों, कटाक्षों, व्यंगों, कथाओं आदि के माध्‍यम से पहुंचाया।






अवधारणा

दलित साहित्य की अवधारणा को लेकर लंबी बहसें चलीं. यह सवाल दलित साहित्य में प्रमुखता से छाया रहा कि दलित साहित्य कौन लिख सकता है, यानी स्‍वानुभूति ही प्रामाणिक होगी या सहानुभूति को भी स्‍थान मिलेगा। प्रमुख दलित साहित्‍यकारों ने कहा चूंकि सवर्णों ने दलितों की पीडा को भोगा नहीं, इसलिए वे दलित साहित्य नहीं लिख सकते. हालांकि यह मत ज्‍यादा दिनों तक टिका नहीं, लेकिन आरंभ में बहस का मुद्दा बना रहा। यह प्रश्‍न मराठी की तुलना में हिंदी में अधिक उठा. अंत में इस बात पर राय बनती नजर आई कि दलित साहित्य अस्‍सी और नब्‍बे के दशक में उभरा एक साहित्यिक आंदोलन है जिसमें प्रमुखता से दलित समाज में पैदा हुए रचनाकारों ने हिस्‍सा लिया और इसे अलग धारा मनवाने के लिए संघर्ष किया।



साहित्य में दलित

हालांकि साहित्य में दलित वर्ग की उपस्थिति बौद्ध काल से मुखरित रही है किंतु एक लक्षित मानवाधिकार आंदोलन के रूप में दलित साहित्य मुख्यतः बीसवीं सदी की देन है।[2]रवीन्द्र प्रभात ने अपने उपन्यास ताकि बचा रहे लोकतन्त्र में दलितों की सामाजिक स्थिति की वृहद चर्चा की है[3] वहीं डॉ॰एन.सिंह ने अपनीं पुस्तक "दलित साहित्य के प्रतिमान " में हिन्दी दलित साहित्य के इतिहास कों बहुत ही विस्तार से लिखा है।

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