Monday, March 26, 2012

अज्ञेय उपन्यास

अपने-अपने अजनबी

एकाएक सन्नाटा छा गया। उस सन्नाटे में ही योके ठीक से समझ सकी कि उससे निमिष भर पहले ही कितनी जोर का धमाका हुआ था-बल्कि धमाके को मानो अधबीच में दबाकर ही एकाएक सन्नाटा छा गया था।

वह क्या उस नीरवता के कारण ही था, या कि अवचेतन रूप से सन्नाटे का ठीक-ठाक अर्थ भी योके समझ गयी थी, कि उसका दिल इतने जोर से धडक़ने लगा था? मानो सन्नाटे के दबाव को उसके हृदय की धडक़न का दबाव रोककर अपने वश कर लेना चाहता हो।


बर्फ तो पिछली रात से ही पड़ती रही थी। वहाँ उस मौसम में बर्फ का गिरना, या लगातार गिरते रहना, कोई अचम्भे की बात नहीं थी। शायद उसका न गिरना ही कुछ असाधारण बात होती। लेकिन योके ने यह सम्भावना नहीं की थी कि बर्फ का पहाड़ यों टूटकर उनके ऊपर गिर पड़ेगा और वे इस तरह उसके नीचे दब जाएँगे। जरूर वह बर्फ के नीचे दब गयी है, नहीं तो उस अधूरे धमाके और उसके बाद की नीरवता का और क्या अर्थ हो सकता है?

‘वे दब जाएँगे’-सहसा उसे ध्यान आया कि वह अकेली नहीं है और मानो इससे उसकी तात्कालिक समस्या हल हो गयी, क्योंकि उसे तुरन्त ही चिन्ता करने को कोई दूसरी बात मिल गयी जिससे उसका ध्यान तूफान की ओर से हट जाए। मिसेज ऐकेलोफ का क्या हुआ होगा? योके दौडक़र दूसरे कमरे में गयी-लेकिन देहरी पार करते ही ठिठक गयी। श्रीमती एकेलोफ धुँधली खिडक़ी के पास घुटने टेककर बैठी थीं। उनकी पीठ योके की ओर थी। रूमाल से ढँका हुआ सिर तनिक-सा झुका हुआ था, जिससे योके ने अनुमान किया कि वह प्रार्थना कर रही होंगी। वह दबे पाँव लौटकर जाने ही वाली थी कि श्रीमती एकेलोफे ने खड़े होते हुए कहा, ‘‘क्यों, योके, तुम डर तो नहीं गयीं ?’’

योके को प्रश्न अच्छा नहीं लगा। उसने कुछ रुखाई से कहा, ‘‘किससे ?’’

श्रीमती एकेलोफ ने कहा, ‘‘हम लोग बर्फ के नीचे दब गये हैं। अब न जाने कितने दिन यों ही कैद रहना पड़ेगा। मैं तो पहले एक-आध जाड़ा यों काट चुकी हूँ लेकिन तुम-’’

योके ने कहा, ‘‘मैं बर्फ से नहीं डरती। डरती होती तो यहाँ आती ही क्यों ? इससे पहले आल्प्स में बर्फानी चट्टानों की चढ़ाइयाँ चढ़ती रही हूँ। एक बार हिम-नदी से फिसलकर गिरी भी थी। हाथ-पैर टूट गये होते-बच ही गयी। फिर भी यहाँ भी तो बर्फ की सैर करने ही आयी थी।’’
श्रीमती एकेलोफ ने कहा, ‘‘हाँ, सो तो है। लेकिन खतरे के आकर्षण में बहुत-कुछ सह लिया जाता है-डर भी। लेकिन यहाँ तो कुछ भी करने को नहीं है।’’

योके ने कहा, ‘‘आंटी सेल्मा, मेरी चिन्ता न करें-मैं काम चला लूँगी। लेकिन आपके लिये कुछ-’’

सेल्मा एकेलोफ के चेहरे पर एक स्निग्ध मुस्कान खिल आयी। ‘आंटी’ सम्बोधन उन्हें शायद अच्छा ही लगा। एक गहरी दृष्टि योके पर डालकर तनिक रुककर उन्होंने पूछा, ‘‘अभी क्या बजा होगा?’’

योके ने कलाई की घड़ी देखकर कहा, ‘‘कोई साढ़े ग्यारह?’’
‘‘तब तो बाहर अभी रोशनी होगी। चलकर कहीं से देखा जाए कि बर्फ कितनी गहरी होगी-या कि खोद-खादकर रास्ता निकालने की कोई सूरत हो सकती है या नहीं। वैसे मुझे लगता तो यही है कि जाड़ों भर के लिये हम बन्द हैं।’’

योके ने कहा, ‘‘मेरी तो छुट्टियाँ भी इतनी नहीं है।’’ और फिर एकाएक इस चिन्ता के बेतुकेपन पर हँस पड़ी।

आंटी सेल्मा ने कहा, ‘छुट्टी तो शायद-मेरी भी इतनी नहीं है-पर-’
योके ने चौंकते हुए पूछा, ‘आपकी छुट्टी, आंटी सेल्मा ?’

श्रीमती एकेलोफ ने बात बदलने के ढंग से कहा, ‘फिर यह भी देखना चाहिए कि इस कैबिन में रसद-सामान कितना है-यों जाड़ा काटने के लिये सब सामान होना तो चाहिए। चलो, देखें।’
योके वापस मुड़ी और अपने पीछे श्रीमती एकेलोफ के धीमे, भारी और कुछ घिसटते हुए पैरों की चाप सुनती हुई रसोई की ओर बढ़ चली। रसोई के और उसके साथ के भंडारे से दोनों ही प्रश्नों का उत्तर मिल सकेगा-रसद का अनुमान भी हो जाएगा और अगर बर्फ के बोझ के पार प्रकाश की हलकी-सी भी किरण दीखने की सम्भावना होगी तो वहीं से दीख जाएगी। क्योंकि उसका रुख दक्षिण-पूर्व को है और धूप यहीं पड़ सकती है-धूप तो अभी क्या होगी, पर इस बर्फ के झक्कड़ में जितना भी प्रकाश होगा उधर ही को होगा।

दोनों ही प्रश्नों का उत्तर एक ही मिलता जान पड़ा-कि जो कुछ है जाड़ों भर के लिये काफ़ी है। खाने-पीने का सामान भी है और चर्बी के स्टोव के लिये काफ़ी ईंधन भी; और शायद जितनी बर्फ के नीचे वे दब गयी हैं उसके मार्च से पहले गलने की सम्भावना बहुत कम है। बर्फ की तह शायद इतनी मोटी न भी हो कि बाहर से उसे काटना असम्भव हो, लेकिन बाहर से उसे काटेगा कौन, और भीतर से अगर काटना शुरू करके वे इस एक हिमपात के पार तक पहुँच भी सकें तो तब तक और बर्फ न पड़ जाएगी इसका क्या भरोसा है? यह तो जाड़ों के आरम्भ का तूफान था, इसके बाद तो बराबर और बर्फ पड़ती ही जाएगी। उन्हें तो यही सुसंयोग मानना चाहिए कि वे बर्फ के नीचे ही दबीं, जिससे कैबिन बचा रह गया और अब जाड़ों भर सुरक्षित ही समझना चाहिए। अगर उसके साथ चट्टान भी टूटकर गिर गयी होती-तब-

इस कल्पना से योके सिहर उठी और बोली, ‘‘चलिये, चलकर बैठें। अभी तो कुछ करने को नहीं है, थोड़ी देर में भोजन की तैयारी करूँगी।’’

दूसरे कमरे में जाकर बैठते हुए श्रीमती एकेलोफ ने कहा, ‘‘अबकी बार बिलकुल पूरा क्रिसमस होगा। क्रिसमस के साथ बर्फ जरूर होनी चाहिए और अबकी बार बर्फ-ही-बर्फ होगी-नीचे-ऊपर सब ओर बर्फ-ही-बर्फ।’’

एक स्वरहीन हँसी हँसकर उन्होंने फिर कहा, ‘‘थोड़ी-सी लकड़ी भी तो पड़ी है-उसको अगर अभी से लाकर यहीं रख छोड़ें तो सूखी रहेगी और क्रिसमस के दिन भारी आग जलाएँगे क्योकि गरमाई भी तो बर्फ से कम ज़रूरी नहीं है।’’

योके ने खोये हुए स्वर में कहा, ‘‘लेकिन आंटी, क्रिसमस तो अभी बड़ी दूर है। तब तक क्या होगा?’’

आंटी सेल्मा उठकर योके के पास आ गयीं और उसके कन्धे पर हाथ रखती हुई बोलीं, ‘‘योके, तुम्हारी अभी उमर ही ऐसी है न। सभी-कुछ बड़ी दूर लगता है। मुझसे पूछो न, क्रिसमस कोई ऐसी दूर नहीं है, मेरे लिये ही-’’ और वह फिर बात अधूरी छोडक़र चुप हो गयीं।

योके ने एक बार तीखी नजर से उनकी ओर देखा। आंटी सेल्मा क्या कहना चाहती हैं, या कि क्या कहना नहीं चाहतीं जो बार-बार उनकी जबान पर आ जाता है? क्या वह उनसे सीधे-सीधे पूछ ले कि उनके मन में क्या है ? क्या सचमुच आंटी सेल्मा का यही अनुमान है कि वे दोनों अब बचेंगी नहीं-यही बर्फ से ढँका हुआ काठ का बँगला उनकी कब्र बन जाएगा। बल्कि कब्र बन क्या जाएगा, कब्र तो बनी-बनाई तैयार है और उन्हीं को मरना बाकी है। कब्र तो समय से ही बन गयी है-उन्हें ही मरने में देर हो गयी है-इस काल-विपर्यय के लिये ही विधि को दोष नहीं दिया जा सकता।

लेकिन वह आंटी सेल्मा से क्या पूछे-कैसे पूछे? यहाँ सेर करने और बर्फ पर दौड़ करने तो वह स्वेच्छा से ही आयी थी और पहाड़ की अधित्यका में इस काठी-बँगले की स्थिति से आकृष्ट हो गयी थी, और यहाँ रहने का प्रस्ताव भी उसी ने किया था। आंटी सेल्मा गड़रियों की माँ है-दो लडक़े अब भी गड़रिए हैं, एक लकड़हारा हो गया है; तीनों नीचे गये हुए हैं और जाड़ों के बाद ही लौटकर आएँगे। यह तो उनका हर साल का क्रम है-जाड़ों में रेवड़ लेकर नीचे चले जाते हैं और वसन्त में फिर आ जाते हैं। यों तो आंटी सेल्मा को भी चले जाना चाहिए था, लेकिन न जाने क्यों इस वर्ष वह यहीं रह गयीं। उन्हें देखकर पहले तो योको को आश्चर्य हुआ था। क्योंकि उसका अनुमान था कि काठ-बँगला खाली ही होगा, जैसा कि प्राय: इन पहाड़ों में होता है। फिर उसने मन-ही-मन अनुमान कर लिया था कि बुढिय़ा कंजूस और शक्की तबीयत की होगी और उसको सामान से भरा हुआ घर खाली छोडक़र जाना न रुचा होगा-जाड़ों में काम-काज तो कुछ होता नहीं, और बर्फ के नीचे उतनी ठंड भी नहीं होती जितनी बाहर खुली हवा में, बूढ़ों को चिन्ता किस बात की-एक ही जगह बैठे-बैठे पगुराते रहते हैं। अतीत की स्मृतियाँ कुरेदकर जुगाली करते हैं और फिर निगल लेते हैं।

लेकिन जाड़ों भर यों अकेले पड़े रहना साहस माँगता है-कंजूस होना ही तो काफ़ी नहीं है; और बुढिय़ा को कहीं कुछ हो हवा जाए तो...

योको ने मानो अपने विचारों की गति रोकने के लिये ही कहा, ‘‘थोड़ी-सी लकड़ी तो आज भी जलायी जा सकती है-मैं अभी आग जला दूँ?’’

आंटी सेल्मा ने थोड़ी देर सोचती रहकर कहा, ‘‘नहीं, अभी क्या करेंगे? या चाहो तो रात को जला लेना।’’ फिर थोड़ा रुककर एकाएक : ‘‘या कि तुम्हारी अभी आग जलाकर बैठने की इच्छा है? मुझे तो आग अच्छी ही लगती है, पर-’’

पर क्या? यही कि लकड़ी अधिक खर्च हो जाएगी? पर वैसा सोचना भी निरी कंजूसी नहीं है। कम-से-कम ढाई महीने वहाँ काटने की सम्भावना तो उन्हें करनी ही चाहिए-यानी बचे रहे तो। तीन महीने भी हो जाएँ तो हो सकते हैं। यों यह भी बिलकुल असम्भव तो नहीं है कि कोई उसे खोजने ही वहाँ आ जाए-घर के लोगों को तो पता ही है और पॉल तो यहाँ से एक ही दिन की दूरी पर होगा। पॉल तो रह नहीं सकेगा-जरूर उसे ढूँढ़ ही निकालेगा-लाखों, करोड़ों में तुरन्त पहचान लेता...वह दूसरी टोली के साथ दूसरे पहाड़ पर गया था और बर्फ से उतरते आते हुए नीचे मिलने की बात थी। ढाई महीने-तीन महीने! कब्रगाह-क्रिसमस! पाताल-लोक में देव-शिशु का उत्सव। नगर में भगवान! पॉल ढँूढ़ निकालेगा-पर किसको, या मेरी...
अनचाहे ही योके के मुख से निकल गया, ‘‘नहीं आंटी सेल्मा, मुझे अच्छा नहीं लग रहा है। आग से शायद-’’

आंटी सेल्मा फिर थोड़ी देर स्थिर दृष्टि से योके की ओर देखती रहीं फिर उन्होंने धीरे-धीरे, मानो आधे स्वागत भाव से कहा, ‘‘खतरे की कोई बात नहीं है, योके! वैसे खतरा तुम्हारे लिये कोई नई चीज़ भी नहीं है। तुम तो तरह-तरह के खतरनाक खेल खेलती रही हो। लेकिन एक बात है। खतरे में डर के दोचेहरे होते हैं, जिनमें से एक को दुस्साहस कहते हैं; कई लोग इसी एक चेहरे को देखते हुए बड़े-बड़े काम कर बैठते हंै और कहीं-के-कहीं पहुँच जाते हैं। लेकिन धीरज में डर का एक ही चेहरा होता है, और उसे देखे बिना काम नहीं चलता। उसे पहचान लेना ही अच्छा है-तब उतना अकेला नहीं रहता। निरे अजनबी डर के साथ कैद होकर कैसे रह सकता है? ...अच्छा, तुम आग जला लो, फिर मेरे पास बैठो, बहुत-सी बातें करेंगे। मैं तो अजनबी डर की बात कह गयी-अभी तो हम-तुम भी अजनबी से हैं, पहले हम लोग तो पूरी पहचान कर लें।’’

15 दिसम्बर :

कब्रघर के दस दिन। सुना है कि दसवें दिन मुर्दे उठ बैठते हैं और किसी फरिश्ते के सामने अपना हिसाब-किताब करने के लिये हाजिर होते हैं। लेकिन इस कब्रगाह में तो हम दो ही हैं; और उठ बैठने का कोई सवाल ही नहीं हुआ-और फरिश्ता भी तो हम दोनों में से किसको समझा जाए।

आंटी सेल्मा तो बूढ़ी है, और हिसाब करने का दिन उसका ही पहले आएगा। या कि कम-से-कम उसके मन की अवस्था कुछ अधिक वैसी होगी। लेकिन फरिश्ता क्या मैं हूँ? मेरे भीतर जैसे दूषित विचार उठते हैं उनको देखते हुए इस कल्पना से बड़ा व्यंग्य और नहीं हो सकता! फरिश्ता हम दोनों से से कोई है तो शायद आंटी सेल्मा, जिसके चेहरे पर अचानक कभी-कभी एक भाव दीखता है जो मानो इस लोक का नहीं है-और जिसे देखकर मैं बेचैन हो उठती हूँ कि कुछ तोड़-फोड़ कर बैठूँ।

16 दिसम्बर :

एक अन्तहीन, परिवर्तनहीन धुँधली रोशनी, जो न दिन की है, न रात की है, न सन्ध्या के किसी क्षण की ही है-एक अपार्थिव रोशनी जो कि शायद रोशनी भी नहीं है; इतना ही कि उसे अन्धकार नहीं कहा जा सकता। हमेशा सुनती आयी हूँ कि कब्र में बड़ा अँधेरा होता है, लेकिन यहाँ उसकी भी असम्पूर्णता और विविधता है। शायद यही वास्तव में मृत्यु होती है, जिसमें कुछ भी होता नहीं, सब कुछ होते-होते रह जाता है। होते-होते रह जाना ही मृत्यु का विशेष रूप है जो मनुष्य के लिये चुना गया है जिसमें कि विवेक है, अच्छे-बुरे का बोध है। यह उसमें न होता तो उसका मरना सम्पूर्ण हो सकता। जो चुकता वह सम्पूर्ण चुक जाता; या जो रहता उसका बना रहना ही असन्दिग्ध होता। यह हमारे युगों से सँचे हुए नीति-बोध की सजा है कि हमारा मरना भी अधूरा ही हो सकता है-मरकर भी कुछ हिसाब बाकी रह जाता है।

एक धुँधली रोशनी-एक ठिठका हुआ नि:संग जीवन। मानो घड़ी ही जीवन को चलाती है, मानो एक छोटी-सी मशीन ने जिसकी चाबी तक हमारे हाथ में है, ईश्वर की जगह ले ली है। और हम हैं कि हमारे में इतना भी वश नहीं है कि उस यन्त्र को चाबी न दें, घड़ी को रुक जाने दें, ईश्वर का स्थान हड़पने के लिये यन्त्र के प्रति विद्रोह कर दें, अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दें!... घड़ी के रुक जाने से समय तो नहीं रुक जाएगा और रुक भी जाएगा तो यहाँ पर क्या अन्तर होनेवाला है, घड़ी के चलने पर भी तो यहाँ समय जड़ीभूत है। एक ही अन्तहीन लम्बे शिथिल क्षण में मैं जी रही हूँ-जीती ही जा रही हूँ-और वह क्षण जरा भी नहीं बदलता, टस-से-मस नहीं होता है! क्या अपने सारे विकास के बावजूद हम मनुष्य भी निरे पौधे नहीं है जो बेबस सूरज की ओर उगते हैं? अँधेरे में भी अंकुर मिट्टी के भीतर-ही-भीतर की ओर बढ़ता हैं, रौंदा जाकर फिर टेढ़ा होकर भी सूरज की ओर ही मुड़ता है। कोई कहते हैं कि सब पौधे धरती के केन्द्र से बाहर की ओर बढ़ते हैं-यानी केन्द्र से दूर हटने की प्रवृत्ति उन्हें सूरज की ओर ठेलती है। लेकिन इस केन्द्रापसारी प्रवृत्ति को भी अन्तिम मान लेना तो वैसा ही है जैसे हम पृथ्वी को सौर-मंडल से अलग मान लें। पृथ्वी भी सूरज की ओर खिंचती भी है और सूरज की ओर से परे को ठिलती भी रहती है। इसी तरह अंकुर भी जड़ों को नीचे की ओर फेंकता है और बढ़ता है सूरज की ओर।

और हम जड़ें कहीं नहीं फेंकते, या कि सतह पर ही इधर-उधर फैलाते जाते हैं, लेकिन जीते हैं सूरज के सहारे ही; अनजाने ही वह हमारे जीवन की हर क्रिया को, हर गति को अनुशासित कर रहा है। हम सब मूलतया सूर्योपासक हैं; और हमारे चिन्तन में चाहे जो कुछ हो, हमारे जीवन में सूर्य ईश्वर का पर्याय है। सूर्य और ईश्वर, सूर्य और समय, इसलिये सूर्य और हमारा जीवन-जहाँ सूर्य नहीं है वहाँ समय भी नहीं है।

लेकिन मैं जहाँ हूँ क्या सूर्य वहाँ सचमुच नहीं है? क्या काल वहाँ सचमुच नहीं है? क्या दावे से ऐसा न कह सकना ही मेरी यहाँ की समस्या नहीं है? मैं मानो एक काल-निरपेक्ष क्षण में टँगी हुई हूँ-वह क्षण काल की लड़ी से टूटकर कहीं छिटक गया है और इस तरह अन्तहीन हो गया है-अन्तहीन और अर्थहीन।

19 दिसम्बर :

शाम को हम लोग ताश खेलने बैठे थे। आंटी सेल्मा न जाने कहाँ से एक पुराना डिब्बा ले आयी थी। जिसमें ताश की जोड़ी रखी थी। मुझसे बोली, ‘‘मुझे खेलना तो नहीं आता, लेकिन तुम सिखाओगी तो सीख लूँगी। तुम्हारा मन भी लगा रहेगा।’’

ऐसी बात नहीं थी कि वह ताश का खेल बिलकुल न जानती हो। थोड़ी देर बाद जब हम लोग खेलने लगे तो मैंने पाया कि ऐसा नहीं है कि बुढिय़ा को उलझाये रखने के लिये या समय काटने के लिये ही हम लोग जबरदस्ती खेल रहे हैं। खेल अपने-आप चल निकला था। लेकिन एकाएक बुढिय़ा की ओर से पत्ता फेंकने में देर होने पर मैंने आँख उठाकर देखा-पत्ता खींचते-खींचते वह सो गयी थी, यद्यपि पत्तों पर उसकी पकड़ ढीली नहीं हुई थी। मैं चुपचाप बैठी रही। अगर उसके हाथ से पत्ते फिसल रहे होते तो लेकर समेट देती, लेकिन इस हालत में पत्ते लेने की कोशिश में वह जाग जाती। मैं किंकर्तव्यविमूढ़-सी उसके चहेरे की ओर देखती रही। साधारणतया मैं उसकी ओर प्राय: नहीं देखती, क्योंकि मुझे डर लगा रहता है कि कहीं मेरी आँखों में कोई छिपा हुआ विरोध-भाव उसे न दीख जाए; क्या फायदा, जब इस कब्र-घर में जितने दिन साथ रहना है, रहना ही है...

अब उसका चेहरा देखते-देखते एकाएक मुझे लगा कि वह बड़ा दिलचस्प चेहरा है, जिसे देर तक देखा जा सकता है। लेकिन अनदेखे ही, क्योंकि बुढिय़ा से आँख मिलने पर शायद सब कुछ बदल जाता।

चेहरे की हर रेखा में इतिहास होता है और आंटी सेल्मा का चेहरा जिन रेखाओं से भरा हुआ है वे सब केवल बर्फानी जाड़ों की देन नहीं हैं। लेकिन क्या मैं उस इतिहास को ठीक-ठीक पढ़ सकती हूँ? आँखों की कोरों से जो रेखाएँ फूटती हैं और एक जाल-सा बनाकर खो जाती हैं, उनमें कहीं बड़ी करुणा है-एक कर्मशील करुणा, जो दूसरों की ओर बहती है, ऐसी करुणा नहीं जो भीतर की ओर मुड़ी हुई हो और दूसरों की दया चाहती हो। लेकिन नासा के नीचे और होंठों के कोनों पर जो रेखाएँ हैं वे इस करुणा का खंडन न करती हुई भी और ही कुछ कहती हैं...मेरी आँखें सारे चेहरे पर घूमकर फिर बुढिय़ा की बन्द आँखों पर टिक गयीं। अगर उसकी पलकें पारदर्शी होतीं-एक ही तरफ़ से पारदर्शी, जिससे कि बुढिय़ा तो सोई रहती पर मैं उसकी आँखों में झाँक सकती-तो मैं शायद इस पहेली का उत्तर पा लेती। उन आँखों से पूछ लेती कि बुढिय़ा के जीवन का रहस्य क्या है-क्या बात है उसके अनुभव-संचय में जिस तक मैं पहुँच नहीं पाती हूँ।

कि एकाएक मैंने जाना कि बुढिय़ा की आँखें खुली हैं। बिना हिले-डुले अनायास भाव से वे खुल गयीं थीं और भरपूर मेरी आँखों में झाँक रही थीं। मैंने सकपकाकर आँखें नीची कर लीं।
बुढिय़ा ने मानो मुझे असमंजस से उबारते हुए कहा, ‘‘मैं सो गयी थी। मुझे माफ करना।’’ और उसने हाथ का पत्ता खेल दिया।

बात इतनी ही थी। लेकिन न जाने क्यों मुझे लगा कि वह सोई हुई नहीं थी। नींद में-चाहे कितनी भी ही नींद में-स्नायु कुछ-न-कुछ ढीले होते ही हैं और उनकी शिथिलता पहचानी जा सकती है। लेकिन बुढिय़ा में कहीं भी उसका कोई लक्षण नहीं दीखा था-वह मानो एकाएक कहीं गायब हो गयी थी और फिर लौट आयी थी-और उसमें मैं औचक पकड़ी गयी थी।

20 दिसम्बर :

आज फिर वैसा ही हुआ। बुढिय़ा ने एकाएक आँखें बन्द कर लीं और मुझे लगा कि वह सो गयी है। लेकिन मैं दुबारा पकड़ी जाने को तैयार नहीं थी। मैंने उसके चेहरे पर आँखें नहीं टिकायीं, कनखियों से ही बीच-बीच में देखती रही। लेकिन मुझे लगा कि आंटी का चेहरा सफेद पड़ गया है। मुझे यह भी लगा कि अगर मैं साहस करके आँख उठाकर देख सकूँ तो पाऊँगी कि उसकी पलकें सचमुच पारदर्शी हैं-बल्कि शायद सारी त्वचा ही पारदर्शी है।

जब देर तक वह नहीं जागी तो मैंने हिम्मत करके आँखों से, नीचे तक के उसके चेहरे की ओर देखा। चेहरा निश्चल ही था, लेकिन मुझे लगा कि होंठ न केवल शिथिल ही हुए हैं बल्कि थोड़ा और कस गये हैं। और गले में एक ओर रह-रहकर एक स्पन्दन भी होता जान पड़ा-मानो शिराएँ खिंचती हैं और फिर ढीली हो जाती हैं, फिर खिंचती हैं और फिर ढीली हो जाती हैं। यह तो शायद नींद नहीं है; और बोलना उसमें बाधा देना भी नहीं होगा...मैंने एकाएक पूछा, ‘‘तबीयत तो ठीक है आंटी ?’’

आंटी ने बिना हिले-डुले आँखें खोलकर कहा, ‘‘हाँ, मैं बिलकुल ठीक हूँ-यों ही थोड़ी शिथिलता आ जाती है।’’

मैं चुप रही। थोड़ी देर बाद आंटी थोड़ा हिली और फिर कुर्सी में ही बैठक बदलकर पूरी तरह जाग गयी।

मैंने पूछा, ‘‘ओढऩे को कुछ ला दूँ ?’’

उन्होंने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। बल्कि जो कहा उससे बिलकुल स्पष्ट था कि बात टाली जा रही है-कि उन्हें यह पसन्द नहीं कि मैं उनकी तरफ़ अधिक ध्यान दूँ।

21 दिसम्बर

हम समय की बात करते हैं, जोकि एक प्रवाह है। किसका प्रवाह है? क्षण का। लेकिन क्षण क्या है? यह जानने का मेरे पास कोई उपाय नहीं है। एक ढंग है घड़ी के टिक्-टिक् के और भी खंड किये जा सकते हैं और माना जा सकता है कि वैसा छोटा-से-छोटा खंड क्षण है। विज्ञान के तरीके दूसरे भी हैं-निरे गणित से सिद्घ किया जा सकता है कि समय का छोटे-से-छोटा अविभाज्य अंश कितना होता है और उस अंश को भी क्षण कहा जा सकता है।

लेकिन ऐसा विज्ञान और ऐसी जानकारी किस काम की? हमारे लिये समय सबसे पहले अनुभव है-जो अनुभूत नहीं है वह समय नहीं है। सूर्य की गति समय नहीं है, बल्कि उस गति के रहते क्रमश: जो कुछ होता है उसका होते रहना ही समय की माप है। और अनुभव की भाषा में ‘क्षण’ क्या है?

समय मात्र अनुभव है, इतिहास है। इस सन्दर्भ में ‘क्षण’ वही है जिसमें अनुभव तो है लेकिन जिसका इतिहास नहीं है, जिसका भूत-भविष्य कुछ नहीं है; जो शुद्ध वर्तमान है, इतिहास से परे, स्मृति के संसर्ग से अदूषित, संसार से मुक्त। अगर ऐसा नहीं है, तो वह क्षण नहीं है, क्योंकि वह काल का कितना ही छोटा खंड क्यों न हो उसमें मेरा जीना काल-सापेक्ष जीना है, ऐतिहासिक जीना है। वह बिन्दु नहीं है रेखा है; रेखा परम्परा है और क्षण परम्परामुक्त होना चाहिए।

आंटी सेल्मा इन बातों को नहीं सोच सकती; नहीं तो मैं उससे इस बारे में बात करती। उसके जीवन में कूछ है जो इन सब बातों से बिलकुल अलग है। वह मेरे लिए अजनबी है, लेकिन लगता है कि उसमें कुछ ऐसा सच है जो मैंने नहीं जाना। मेरे सच से बिलकुल अलग और दूसरा सच!...वह सच भी काल-निरपेक्ष नहीं है-सेल्मा भी काल में ही जीती है जैसे कि हम सब जीते हैं, लेकिन वह मानो किसी एक काल में नहीं जीती बल्कि समूचे काल में जीती है। मानो वहाँ फिर काल एक प्रवाह नहीं है, उसमें कुछ भी आगे-पीछे नहीं है बल्कि सब एक साथ है। सब एक साथ है, इसलिए इतिहास नहीं है। इसीलिए स्मृति है, और उसके साथ ही परस्परता से मुक्ति है-सभी कुछ क्षण है।

यह मैं सोचती हूँ; लेकिन साथ ही मुझे लगता है कि ऐसा सोचना बेईमानी है-कि ऐसा हो नहीं सकता। बल्कि कभी-कभी उसको देखते-देखते मेरा अपरिचय का भाव इतना घना हो जाता है कि मेरा मन होता है, उसके कन्धे पकडक़र उसे झकझोर दूँ और पूछँू-’तुम कौन हो?’ मेरी मुट्ठियाँ भिंच जाती हैं और मैं उसके सामने से हट जाती हूँ क्योंकि मुझे एकाएक अपने आपसे डर लगने लगता है। न जाने क्या कर बैठूँ!

22 दिसम्बर

विश्वास नहीं होता कि मुझे यहाँ दबे-दबे एक पखवाड़ा हो गया है। रसोई और भंडार-घर की दीवारों से थोड़ा-थोड़ा पानी रिसकर अन्दर आता रहा है और अब हम बहुत-सी चीज़ें बड़े कमरे में ही उठा लाये हैं। भंडारे से एक छोटा किवाड़ उधर का खुलता है जिधर लकडिय़ों का ढेर रखा रहता है। लकडिय़ाँ लाने के लिये रास्ता बाहर से है, जो कि अब बन्द है। इस किवाड़ को थोड़ा ठेल-ठालकर एक-दो लकडिय़ाँ खींचने का रास्ता बन गया। लकडिय़ाँ खींचीं तो किवाड़ तनिक-सा और खुल सका, और इस प्रकार अब थोड़ी-थोड़ी लकडिय़ाँ भीतर लाने का मार्ग बन गया है। लकडिय़ाँ भीग गयी हैं और किवाड़ खोलने से थोड़ा-थोड़ा पानी भी भंडारे के अन्दर आता है, लेकिन उसकी चिन्ता नहीं है। हम लोग जो कुछ थोड़ा-बहुत खाना पकाते हैं, बैठने के कमरे में बड़े स्टोव पर ही; उसी के सहारे लकडिय़ाँ टेक दी जाती हैं जो धीरे-धीरे सूखती रहती हैं। और दूसरे-तीसरे चिमनी भी जला लेते हैं जिससे एक अनोखा लाल-लाल प्रकाश कमरे में फैल जाता है। कब्रगाह के अन्दर आग का लाल प्रकाश-क्या यही नरक की आग है? आज मैं एकाएक आंटी से यही पूछ बैठी। मैंने कहा, ‘‘इस लाल-लाल आग को देखकर लगता है कि शैतान अभी चिमनी के भीतर से उतरकर कब्र में आ जाएगा हमसे हिसाब करने।’’ और बात को हलका करने के लिये एक नकली हँसी हँस दी।

आंटी अगर चौंकीं भी तो उन्होंने दीखने नहीं दिया। थोड़ी देर मेरी ओर देखती हुई चुप रहीं और फिर बोलीं, ‘‘चिमनी से उतरकर शैतान नहीं आता, सन्त निकोलस आता है-क्रिसमस को अब कितने दिन हैं?’’

मुझे बात वहीं छोड़ देनी चाहिए थी। लेकिन मैंने जिद करके कहा, ‘‘सन्त निकोलस आता होगा वहाँ ऊपर-कब्र में थोड़े ही आएगा।’’

बुढिय़ा ने पूछा, ‘‘योके, तुम्हारा ध्यान हमेशा मृत्यु की ओर क्यों रहता है?’’
मुझको हठात् गुस्सा आ गया। मैंने रुखाई से कहा, ‘‘क्योंकि वह एकमात्र सचाई है-क्योंकि हम सबको मरना है।’’
कहने को तो कह गयी; पर फिर मुझे क्लेश हुआ। लेकिन साथ-साथ माफी माँगते भी नहीं बना; मैंने कहा, ‘‘इतने दिनों की निष्क्रियता से मेरी नव्र्ज ऐसी हो गयी है कि-’’

बुढिय़ा ने बात को वहीं छोड़ दिया। जितनी परोक्ष मैंने उसकी याचना की थी उतनी ही परोक्ष क्षमा देते हुए कहा, ‘‘लेकिन क्रिसमस को कितने दिन हैं-दावत होगी। सब कुछ मैं बनाऊँगी।’’
मैंने कहा, ‘‘नहीं आंटी, सोच लें कि क्या-क्या बनेगा-पर बनाऊँगी मैं ही। आपको तकलीफ होती है, और मुझे तो काम चाहिए।’’
बुढिय़ा ने कहा, ‘‘अच्छी बात है...’’

फिर सोच लिया कि क्या-क्या बनेगा। कल और परसों शायद हम दोनों के पास ही काफ़ी काम रहेगा-यद्यपि इस जगह में क्या कल और क्या परसों! और क्या क्रिसमस, सिवा इसके कि एक दिन को हम बड़ा दिन मान लेंगे-एक दिन को नहीं, घड़ी के एक खास चक्कर को।

24 दिसम्बर :
आधी रात।

कायदे से तो इस समय हमेंसाथ बैठकर क्रिसमस के आगमन का अभिनन्दन करना चाहिए था, लेकिन हम लोगों में बिना बहस के ही एक मौन समझौता हो गया था कि रात को देर तक नहीं बैठा जाएगा। एक तो हम दोनों कल और आज के काम से कुछ थक भी गये, दूसरे न जाने क्यों दिनभर ऐसा लगता रहा कि क्रिसमस की यह खुशी नकली या झूठी तो नहीं है लेकिन बहुत ही पतले काँच की तरह इतनी नाजुक है कि छूने से ही नहीं, जरा-सी आवाज से भी टूट जा सकती है-जैसे वायलिन के स्वर से काँच का गिलास चटक सकता है। हम दोनों मानो ऐसे ही पतले काँच की सतह पर बैठकर हँस रहे हैं; यह एक जादू ही है कि हमारे बैठने से ही वह काँच टूट नहीं गया लेकिन इतना तो निश्चय है कि हिलने-डुलने से टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर जाएगा। और जैसे उसके काँच के नीचे फिर और कुछ नहीं है, अतल अँधेरा गर्त है जिसमें हम गिरेंगे और गिरते चले जाएँगे। बुढिय़ा अभी बड़े कमरे में बैठी है। हम लोगों ने क्रिसमस-तरु बनाना चाहा था, लेकिन हमारे किसी भी गढ़न्त पर विश्वास करने को तैयार होने पर भी, ईंधन की लकड़ी और डोर से बाँधकर हमने जो पेड़ बनाया उसे हमारी आँखें स्वीकार न कर सकीं। उतना झूठ हम नहीं निगल सके और आंटी ने ही कहा कि ‘‘नहीं, इसे रहने दो।’’

फिर थोड़ी देर हम लोग बैठे रहे। मानो किसी के पास कहने को कुछ नहीं था। इसी खाई को भरने के लिये मैंने सुझाया, खाना ही खा लिया जाए। वह भी हो गया और फिर हम लोग आग के पास बैठकर आग की ओर ताकते रहे। एक-दूसरे की ओर न ताकने के लिए कितनी अच्छी ओट थी वह आग!

लेकिन फिर भी धीरे-धीरे वह मौन बोझिल हो ही आया और उनकी अनदेखी करना असम्भव हो गया।

मैंने पूछा, ‘‘आंटी, आपको ताश से भविष्य पढऩा आता है ?’’
बुढिय़ा ने कहा, ‘‘नहीं योके! तुम पढ़ सकती हो ?’’
वहाँ से उठने का मौका पाते हुए मैंने कहा, ‘‘मैं ताश लाती हूँ-आपका भविष्य पढ़ा जाए।’’
बुढिय़ा ने तनिक मुस्कुराकर कहा, ‘‘मेरा भविष्य! वह पढऩा क्या आसान काम है?’’
मैंने कहा, ‘‘सभी अपने भविष्य को बहुत अधिक दुज्र्ञेय और जटिल मानते हंै। उसे जानना चाहने की उत्कंठा का ही यह दूसरा पहलू है-जितना ही जानना चाहते हैं उतना ही उसे दुरूह मानते हैं।’’

बुढिय़ा ने वैसे ही मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘नहीं मेरे साथ यह बात शायद नहीं है। उस दृष्टि से तो मेरा भविष्य बहुत ही आसान है। कुछ भी जानने को नहीं है-न उत्कंठा है।’’
‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? अच्छा बताइए, आप क्या यह नहीं जानना चाहतीं कि अगले क्रिसमस पर आप कहाँ होंगी-कैसे होंगी?’’
‘‘नहीं, मैं तो जानती हूँ। मैं-यहीं हूँगी और-ऐसे ही हूँगी।’’
मैं थोड़ी देर स्तब्ध रही। यों तो बुढिय़ा की बात सच भी हो सकती है। वह यहीं ऐसे ही रहेगी, क्योंकि वर्षों से यहीं ऐसे ही रहती चली आयी है। हो सकता है कि हमेशा से यहीं रहती आयी हो, और हो सकता है कि हमेशा यहीं रहती चली जाए! इन्हीं पहाड़ों की तरह निरन्तर बदलती हुई, लेकिन अन्तहीन और आकांक्षाहीन!

मैंने फिर कहा, ‘‘लेकिन और भी बहुत-से लोग हो सकते हैं।’’
बुढिय़ा ने मेरी बात काटते हुए कहा, ‘‘मैं अकेली हूँगी, योके। अगर यह जानती न होती तो शायद इस वर्ष भी अकेली न रही होती। मैं जान-बूझकर यहाँ अकेली रह गयी थी-तुम्हारा आना तो एक संयोग था जिसकी मैंने कल्पना नहीं की थी।’’

मैंने कहा, ‘‘आंटी, आपको क्या मेरा यहाँ रहना कष्टकर लगा?’’ फिर थोड़ा हँसकर मैंने जोड़ दिया, ‘‘अगर वैसा है तो मुझे दुख है, पर मेरी लाचारी है। यह तो मैं कह नहीं सकती कि मैं अभी चली जाती हूँ। वह मेरे बस का होता-’’

बुढिय़ा ने सहसा गम्भीर होकर कहा, ‘‘कुछ भी किसी के बस का नहीं है, योके। एक ही बात हमारे बस की है-इस बात को पहचान लेना। इससे आगे हम कुछ नहीं जानते।’’

मेरे भीतर फिर घोर विरोध उबल आया। इसको छिपाने के लिये मैं जल्दी से उठकर चली गयी। खोज में अनावश्यक देर लगाकर जब मैं ताश लेकर आयी और पत्ते बिछाने लगी, तो बुढिय़ा चुपचाप मेरी ओर देखती रही। फिर एकाएक उसने मुझसे पूछा, ‘‘योके, तुम चाहती हो कि मैं मर जाऊँ।’’

पत्ते मेरे हाथ से गिर गये और मैंने अचकचाकर पूछा, ‘क्या-यह कैसी बात है सेल्मा!’ उसे आंटी कहना भी मैं भूल गयी।
उसने कहा, ‘‘मैं बुरा नहीं मानती, योके, तुम्हारा वैसा चाहना ही स्वाभाविक है। मैं भी चाहती हूँ कि मर जाऊँ, पर मेरे चाहने की तो अब जरूरत नहीं है। मैं जानती हूँ कि बहुत दिन बाकी नहीं हैं।’’
मैंने सँभलते हुए कहा, ‘‘नहीं, आंटी, अभी ऐसी कौन-सी बात है-तुम तो अभी बहुत दिन-’’
‘‘तुम्हारा ऐसा कहना ही स्वाभाविक है-तुम्हें कहना ही चाहिए। लेकिन मैं जानती हूँ। और आज मैं इतनी खुश हूँ कि तुमसे कह ही दूँगी, जिससे कि कल तक यह बात तुम्हारे लिये पुरानी हो जाए-योके, मैं बीमार हूँ और मुझे मालूम है कि अगला वसन्त मुझे नहीं देखना है।’’

थोड़ी देर बाद मैंने ताश के पत्ते जमीन से उठाये और यन्त्र की तरह-एक खास तौर से बेवकूफ यन्त्र की तरह-उन्हें फेंटती रही...

वह लम्बा बेशऊर सन्नाटा ऐसा नहीं था जिसका क्रिसमस से पहले की रात से कोई सम्बन्ध जोड़ा जा सके। पर वह सारी स्थिति ही ऐसी विसंगत थी। देव-शिशु के आसन्न अवतरण का कोई आनन्द, कोई स्फूर्ति मुझमें नहीं थी। आसन्न कुछ लगता था तो दूसरा ही कुछ जिसे मैं देखना नहीं चाहती, जानना नहीं चाहती, नाम देना नहीं चाहती-पर छाती पर रखे हुए बोझ-सी एक ही बात बार-बार अपनी याद दिला जाती थी और गले की साँसले में अटक जाती थी-कि वहाँ सेल्मा और योके के अलावा एक तीसरा भी है और वह अदृश्य तीसरा देव-शिशु नहीं है...और मानो उसी की धडक़न मैं वातावरण में सुन रही थी और इसलिये उठ नहीं पा रही थी-मुझे लगता था कि उससे वह सहसा मूत्र्त हो जाएगा और तब सेल्मा भी जान लेगी कि उसे मैंने बुलाया है।...

पर उसे और सहा भी नहीं जा सका। जब मैंने बलात् अपने को उठाते हुए कहा, ‘अब आराम करो, सेल्मा। गुडनाइट।’

सेल्मा ने कुछ चौंककर मेरी ओर देखा। फिर जो भी कहने जा रही थी उसे रोककर उसने कहा, ‘‘क्रिसमस मुबारक, सेल्मा। बहुत-से क्रिसमस।’’ फिर थोड़ा रुककर, ‘‘चाहिए तो था बैठकर गाना, पर...’’

उसने मुझे दिलासा देते हुए कहा, ‘‘पर कोई बात नहीं, वह मौन में भी उतनी ही सहजता से आता है-गाना ज़रूरी नहीं है।’’

मैंने फिर जल्दी से कहा, ‘क्रिसमस मुबारक!’ और जल्दी से चली आयी।

और अब आधी रात।

‘वह मौन में भी उतनी ही सहजता से आता है।’ वह कौन? वह-वह... वही जो सेल्मा और मेरे बीच तीसरा आया था और वहाँ मौजूद था-अनाहूत...
नहीं, नहीं, नहीं! जो भी आता है, जो भी आएगा, उसे उधर ही रहने देना होगा...
कहीं पॉल भी क्रिसमस मना रहा होगा-कहाँ, किसके साथ? अपने खुले गले से गा रहा होगा-क्या वह भी इस समय मुझे याद करेगा-मुझे जिसके साथ ही इस बर्फिस्तान में अकेला होने वह आया था-नथुने फुलाकर खुली बर्फीली हवा को पीने, और पीते-पीते अनुभव करने कि हमारे भीतर कैसी स्निग्ध गरमाई है-स्निग्ध, मधुर, स्फूर्तिमय और-हमारी...
पर यह बर्फिस्तान के ऊपर है। खुली हवा में, न जाने किसके साथ; और मैं-यहाँ हूँ, बर्फिस्तान के नीचे, घुटने में, और मेरे साथ हैं वह, वह, वह...

25 दिसम्बर :

वहीं पलँग पर बैठ और मेज पर सिर टेके मैं सो गयी थी-शायद पहले थोड़े आँसू आँखों में चुभे थे धुएँ की तरह, फिर न जाने कब ऊँघ गयी थी, फिर चौंककर जागी थी गाने की आवाज सुनकर : घड़ी देखी थी तब डेढ़ बजा था। सेल्मा धीरे-धीरे गा रही थी-गुनगुनाहट से कुछ ही ऊँचे स्वर से-देव-शिशु के आविर्भाव की खुशी का एक गान। वह बहुत देर पहले से गाती रही हो, ऐसा तो नहीं लगा-शायद बीच-बीच में गाती भी रही हो-नींद उसे न आती होगी और घड़ी तो उसके पास है नहीं...

उस सन्नाटे में, रुक-रुककर आता हुआ बूढ़ा गान सुनकर न जाने कैसा लगने लगा। बीच-बीच में बुढिय़ा की आवाज मानो टूट जाती-मानो वह हाँफ रही हो, मानो उसकी बूढ़ी साँस उखड़ रही हो। फिर वह आवाज के साथ एक जोर की साँस खींचकर फिर गाना शुरू कर देती और थोड़ी देर बाद मानो एक कराह-सी में तान फिर टूट जाती।

सूना कमरा मानो किसी दबाव में घुटने लगा। मैं उठ बैठी और नंगे पाँव ही धीरे-धीरे बुढिय़ा के पलँग के पास गयी।

बुढिय़ा उकड़ूँ बैठी थी। होंठों की गति के सिवा किसी गति के लक्षण उसकी देह में नहीं जान पड़ते थे। उसे देखती हुई मैं भी उसके कन्धे की ओट निश्चल खड़ी रही, लेकिन न जाने कैसे उसे ज्ञात हो गया कि कमरे में दूसरा कोई है-दूसरा कोई क्या, कि मैं हूँ-और उसने बिना मुड़े हुए ही कहा, ‘‘मैं अवतरण का गीत गुनगुना रही थी-बचपन की याद से-लेकिन मैंने क्या तुम्हें जगा दिया?’’

मैंने कहा, ‘‘नहीं, आंटी, मुझे नींद नहीं आ रही थी कि तभी मैंने आवाज सुनी और देखने चली आयी-शायद कुछ जरूरत हो!’’

बुढिय़ा ने कहा, ‘‘मेरी ऐसी भी हालत होगी कि मैं गाऊँ तो कोई समझेगा कि मुझे तकलीफ है-कि मुझे किसी चीज़ की जरूरत है-और हाँ, तकलीफ भी है। लेकिन गाती हूँ खुशी से ही। बैठो, तुम भी गाओगी?’’

‘‘वह गाना तो मुझे नहीं आता।’’

‘‘तो जो आता है वही गाओ। शायद मैं भी गा सकँू-मेरे सब गाने बचपन के ही नहीं हैं, बाद में भी कुछ सीखे थे।’’

मैं बैठ गयी। लेकिन बहुत कोशिश करने पर भी मुँह से बोल नहीं निकला। सारी परिस्थिति में कहीं कुछ बहुत ही बेठीक लगा। जैसे अवतरण की बात भी गलत है और उसके गाने गाना भी गलत। अवतरण अगर हुआ है तो मृत्यु का और वह मृत्यु ऐसी नहीं है कि गाने से उसका स्वागत किया जाए। वह मेरे कन्धों पर सवार होकर मेरा गला घोंट रही है। कैसा बेपनाह है वह पंजा, जो छोड़ेगा नहीं लेकिन किसी की उँगलियों की छाप भी नहीं पड़ेेगी। मैंने कल्पना की, मेरे हाथ बुढिय़ा के गले पर हैं और उसे घोंट रहे हैं-बेपनाह हाथ-नहीं जानती कि उनकी पकड़ भी ऐसी है या नहीं कि कोई छाप न छोड़े; लेकिन बुढिय़ा के गले की रक्तहीन पारदर्शी त्वचा तो पहले ही ऐसी है कि उस पर कोई छाप क्या पड़ेगी।

थोड़ी देर बाद बुढिय़ा ने कहा, ‘‘नहीं, यह मेरा अत्याचार है। मैं तो गा सकती हूँ क्योंकि मैं अन्धी हूँ। अन्धे अच्छा गाते हैं। तुम तो सबकुछ देखती हो-तुम्हें दृश्य ही अधिक अच्छे लगते हैं, स्वर नहीं। तुम्हें ठंड लग रही होगी, जाओ सोओ। भगवान तुम्हारा कल्याण करे। क्रिसमस मुबारक!’’

मैंने यन्त्रवत् दोहराया, ‘क्रिसमस मुबारक!’ और लौट आयी।

फिर मैं सोयी नहीं। बुढिय़ा भी शायद नहीं सोयी। गाना तो उसने बन्द कर दिया। लेकिन बीच-बीच में एक बहुत ही धीमी हुंकार-सी सुनाई पड़ती, जो न मालूम साँस के कष्ट की थी, या कि बीच-बीच में याद आ जानेवाले गाने की, या कि कराहने की।

सवेरा हुआ-घड़ी का सवेरा। प्रकाश कुछ भी बढ़ता हुआ नहीं लगा बल्कि कमरे में कुछ घुटन-सी मालूम हुई-मानो जितनी हवा हमारे साथ इस कब्र-घर में कैद हो गयी थी उसमें से ऑक्सीजनवाला अंश हम लोग पी चुके हैं। मुझे ध्यान आया, ऑक्सीजन ही हमें जीवित रखती है लेकिन वही हमें गलाती भी है-जीना ही जीर्ण होना है और जब जीने का साधन ऑक्सीजन नहीं रहती तब जीर्ण होने की क्रिया भी रुक जाती है। इस कब्रगाह में हमारी पैदा की हुई कार्बन गैस, जो हमें मार देगी, आगे उस कब्रगाह में सडऩे से हमें बचाती है। फिर-हमारे मर जाने के बाद इस ‘फिर’ के अर्थ क्या हैं यह तो मैं नहीं जानती!-जब बर्फ गलेगी और लोग हमें ढँूढऩे आएँगे तब हम यही ज्यों-के-त्यों सुरक्षित पड़े होंगे-मैं ऐसी ही यहाँ-तब भी समूची किन्तु कान्तिहीन-और बुढिय़ा वहाँ, वैसी ही विवर्ण पारदर्शी, और इसलिये तब भी एक कान्ति लिये हुए! इस कल्पना से मुझे बुढिय़ा पर फिर गुस्सा हो आया। पर मैंने अपने को याद दिलाया कि आज क्रिसमस का दिन है, बड़ा दिन, क्षमा और सद्भावना का दिन। उसकी बूढ़ी साँसें मुझसे कहीं कम ही ऑक्सीजन खाती होंगी-बल्कि जिस बहुत नीचे स्तर पर उसका जीवन चल रहा है उस पर तो शायद बिना ऑक्सीजन के ही काम चल सकता है। मैंने सुना है कि जो लोग बर्फ के नीचे दब जाते हैं, उनकी ऑक्सीजन की जरूरत भी कम हो जाती है और इसलिये उनका उतनी से भी काम चल जाता है जितनी बर्फ के कणों में बँधी हुई होती है।...

बड़ा दिन। क्षमा, शान्ति और मानवीय सद्भावना का दिन। प्यार के पैगम्बर का जन्मदिन। मैंने आयासपूर्वक अपने स्वर में स्फूर्ति लाकर कहा, ‘क्रिसमस मुबारक आंटी सेल्मा!’
जो जवाब आया उससे मैं चौंकी। आंटी ने कहा, ‘मैंने तो आग जला दी है और कहवा बना लिया है, आओ। क्रिसमस मुबारक!’

यह सब बुढिय़ा ने कब कर लिया? मैंने तो पैरों की कोई आहट नहीं सुनी। न बरतनों की खनक। बुढिय़ा बहुत ही चुपचाप काम करती है। लेकिन और नहीं तो उसके पैरों के घिसटने का थोड़ा-सा शब्द होता। मैं तो यही समझती रही कि मैं लगातार उसका कराहना सुनती रही हूँ।

नाश्ता करते-करते-नाश्ता तो मैंने ही किया, आंटी ने कुछ नहीं खाया, और कहवे में भी थोड़ा पानी मिलाकर दो-चार घूँट पिये-आंटी ने कहा, ‘‘मैं कल्पना कर रही हूँ कि बाहर खूब खुली धूप है-बड़ी निखरी हुई स्निग्ध धूप, जिसके घाम में बदन अलसा जाए!’’

मैंने कहा, ‘‘ऐसी कल्पना से क्या फायदा? और बाहर धूप हो भी तो हमें क्या जो-’’
‘‘हमें क्यों नहीं कुछ? जो हमारे भीतर नहीं है वह हम बाहर कैसे दे सकते हैं-कैसे देना चाह सकते हैं? खुली, निखरी हुई, स्निग्ध, हँसती धूप-मैं बाहर उसकी कल्पना करती हूँ तो वह मेरे भीतर भी खिल आती है और मैं सोच सकती हूँ कि मैं उसे औरों को दे सकती हूँ। नहीं तो-कितना ठंडा अँधेरा होता है उसके भीतर, जिसे मरना है और सिवा मरने के और कुछ नहीं करना है।’’
मैंने कुछ छिडक़कर कहा, ‘‘क्रिसमस के दिन कैसे ऐसी बात कर सकती हो तुम आंटी?’’
आंटी ने बड़े सरल सहज भाव से कहा, ‘‘मुझे कैंसर है।’’
जो सन्नाटा हम दोनों के बीच में आ गया उसके पार मानो कमन्द फेंकते हुए बुढिय़ा ने फिर कहा, ‘‘धूप, खिली, खुली, हँसती हुई धूप-क्रिसमस के दिन की धूप! योके, मेरा तो इतना दम नहीं है-तुम क्यों नहीं गातीं-तुम्हारा गला इतना सुरीला है।’’
मैंने कहना चाहा, अभी तो तुम कह रही थीं कि जो भीतर नहीं है वह बाहर कैसे दिया जा सकता है? लेकिन यह मुझसे कहते न बना। मैंने कहा, ‘‘गाऊँगी, आंटी सेल्मा, गाऊँगी। पहले मुझे इस अँधेरे कब्रगाह का आदी तो हो जाने दो।’’
बुढिय़ा ने दोहराया, ‘आदी।’ और फिर हाथों से एक ऐसा इशारा किया जिसका अर्थ कुछ भी हो सकता था।...

30 दिसम्बर :

अब मुझसे और नहीं सहा जाता। सोचती हूँ कि यह कैसी परिस्थिति आ गयी है कि मुझे सब ओर बर्फ का भी ध्यान नहीं रहा है-कि मैं यह भी भूल गयी हूँ कि हम दोनों एक ही कब्र के साझीदार हैं। और सोचती हूँ तो केवल एक बात-कि अब साझीदार कब हट जाएगा, और मैं इस कब्र में अकेली रह जाऊँगी।

यह नहीं कि मैं कब्र में रहना चाहती हूँ। यह नहीं कि मैं अकेली अलग होना चाहती हूँ । शायद यह भी नहीं कि मैं नहीं चाहती कि वह भी कभी इस कब्र-घर से बाहर निकले। लेकिन मैं जानती हूँ कि उसके बारे में मेरे कुछ भी चाहने या न चाहने से कुछ नहीं होता है। मैं ही नहीं, वह भी यह जानती है।

और ठीक यहीं पर फ़र्क़ है। वह जानती है और जानकर मरती हुई भी जिए जा रही है। और मैं हूँ कि जीती हुई भी मर रही हूँ और मरना चाह रही हूँ...

उसमें किसी तरह का विरोध नहीं है-न मेरे प्रति, न मेरे हिंस्र भावों के प्रति, न मृत्यु के ही प्रति। और यह मेरी समझ में नहीं आता, मुझे स्वीकार नहीं होता। कैसे कोई जीता हुआ प्राणी जिजीविषा से परे हो सकता है? हम सब कुछ में अनासक्त हो सकते हैं, पर जीवन से कैसे हो सकते हैं? कहीं-न-कहीं जरूर बुढिय़ा में कोई झूठ है। कोई आत्म-प्रवंचना है। हो सकता है कि वह गहरे में छिपी हो-लेकिन यह नहीं हो सकता है कि वह हो ही न।...

उसकी बीमारी शायद दिन-दिन बढ़ती जा रही है, वह कुछ खाती नहीं है और लगभग पीती भी नहीं है, और दिन-ब-दिन अधिक विवर्ण और पारदर्शी होती जाती है। जीता-जागता प्रेत। इसमें भी शायद उतना विरोधाभास नहीं है-लेकिन ठोस प्रेत! और उससे से अधिक अस्वीकार्य और असंग है उस ठोस प्रेत का कारुण्य भाव-एक बाहर को बहता हुआ सबकुछ को सहलाता हुआ कारुण्य! प्रेत किसी पर तरस कैसे कर सकता है? बल्कि प्रेत होता वही है जो अपने पर तरस खाते हुए मरता है-नहीं तो प्रेत-योनि में कोई जा ही नहीं सकता! प्रेत होने के लिये अतृप्त तो दुनिया में सभी मरते हैं, तो क्या सभी प्रेत हो जाते हैं? लेकिन जो अतृप्त आकांक्षा अपने ही पर तरस खाने की प्रवृत्ति पैदा करती है, जिसमें पैदा करती है, वही प्रेत होता है। लेकिन बुढिय़ा की दया अपनी ओर मुड़ी हुई नहीं है। और कभी-कभी मुझे लगता है कि वह प्याला-तश्तरी भी उठाती है, या कि आग की ओर हाथ बढ़ाती है, तो मानो इन निर्जीव चीज़ों को भी दुलारती और असीसती है। आग को असीसती है-वह, जिसे आग को देखकर रिरियाना चाहिए क्योंकि अभी उसके भीतर की आग बुझ जाएगी और वह हो जाएगी-क्या? राख-राख से भी कम। उसे देखते-देखते मेरा मन होता है कि जोर से चीखूँ, कि जलती हुई लकड़ी उठाकर उसकी कलाइयों पर दे मारूँ जिससे उसका आग को असीसने का दुस्साहस करनेवाला हाथ नीचे गिर जाए-एकाएक जिसके सदमे से उसकी हृद्गति बन्द हो जाए।

31 दिसम्बर :

उसके सामने ही नहीं, अपने सामने भी कभी मेरा मन होता है कि चीख पड़ूँ कि अपने बाल नोच लूँ, कि आईने के सामने खड़ी होकर अपने को मारूँ, छोटी कैंची उठाकर अपने गालों में चुभा लूँ, कि नहेरने से अपने माथे, नाक-कान-ठोड़ी पर घाव कर लूँ, कि पानी का जग उठाकर आईने पर पटककर उसके और आईने के भी टुकड़े-टुकड़े कर दूँ। आईने के भी और उसमें झाँकते हुए अपने प्रतिरूप के भी जो इतनी बेहयाई से मुझे ताकता है और मेरी सब अराजक जिज्ञासाएँ वापस मेरे मुँह पर मारता है।...

उसको वहीं छोडक़र मैं चली आयी थी और अपने बिस्तर पर बैठी रही थी। काफ़ी देर बाद, सोने की तैयारी करने से पहले मैंने झाँककर देखा तो वह आज रात देर तक जागने का अवसर था, क्योंकि आधी रात को नए साल का अभिनन्दन करने का कायदा है; लेकिन मैंने उसकी कोई चर्चा नहीं की थी और क्रिसमस के लिये उत्साह दिखानेवाली बुढिय़ा ने भी देर तक जागने का प्रस्ताव नहीं किया था। इसीलिए मैं सोने चली आयी थी। पर वह तो बैठी है न! न मालूम जाग रही है या सो रही है-न मालूम होश में भी है या कि बेहोश है-पर निश्चल बैठी है। मैंने जाकर कहा, ‘‘आंटी सेल्मा, चलो सोओ। मैं सुला दूँ?’’

आंटी सेल्मा ने सिकुड़ते कन्धे सीधे करते हुए कहा, ‘‘नहीं योके, मैं अभी बैठी हूँ-तुम सो जाओ।’’
मैंने कहा, ‘‘नए साल का अभिनन्दन करने बैठी हो?’’
उसने कहा, ‘‘हाँ! या कि शायद सिर्फ नए दिन का। क्योंकि साल का कोई भी दिन किसी दूसरे दिन से किस बात में कम है! बल्कि मैं तो सोच सकती हूँ कि कोई भी दिन साल का दिन क्यों है-दिन ही में क्या कम जादू है?’
बात पूरी-की-पूरी मुझसे नहीं कही गयी थी, बहुत कुछ स्वगत ही थी। पर मुझे ये सब बारीक बातें उस समय नहीं रुचीं। मैंने रुखाई से कहा, ‘‘हाँ, लेकिन रोज-रोज तो तुम जागरण नहीं करती हो।’’
उसने कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो, योके, मुझ बुढिय़ा की सब बातें संगत नहीं होतीं-कुछ यों भी मुँह से निकल जाती हैं।’’
उसके स्वर में जो चिड़चिड़ापन था, उफ! उससे मुझे कितनी तृप्ति मिली! तो बुढिय़ा का कवच भी नीरन्ध्र नहीं है, कहीं उसमें भी टूट है-कहीं-न-कहीं वह भी मृत्यु से डरेगी और रिरियाकर कहेगी कि नहीं मैं मरना नहीं चाहती। एक प्रबल, दुर्दमनीय उल्लास, एक विजय का गर्व मेरे भीतर उमड़ आया। मैंने कहा, ‘‘आंटी, तुम क्यों बैठकर माला के मनकों की तरह दिन और घडिय़ाँ गिनती हो? दिन जिस गति से जाएँगे उसी से जाएँगे-न गिनकर हम उन्हें आगे ठेल सकते हैं, न झोंककर रोक सकते हैं। जो काम करना है करते चलो। जीना है तो जीते चलो, बस!’’

उसने कहा, ‘‘हाँ, वह तो है। माला के मनके ही गिन रही हूँ। यह नहीं कि उससे कुछ बदलेगा। लेकिन जिसे माला के मनके ही गिनने हों उसे वैसा न करने का बस कहाँ है?’’
‘‘किसके लिए क्या तय है, इसका निश्चय अपने आप करते चलना तथा भगवान को अपने ऊपर ओढ़ लेना नहीं है?’’ मैंने कोशिश की कि मेरे मन में व्यंग्य का भाव जितना तीखा था प्रकट उतना न हो; लेकिन व्यंग्य उसे दीखे ही नहीं, यह मैं बिलकुल नहीं चाहती थी।
बुढिय़ा एकाएक खड़ी हो गयी। उसका खड़ा होना भी इस समय मेरे लिये बिलकुल अप्रत्याशित था, पर उसने जो कहा वह मुझे अब भी अघटित लग रहा है। उसने कहा, ‘‘हाँ योके, मैं भगवान को ओढ़ लेना ही चाहती हूँ। पूरा ओढ़ लेना कि कहीं कुछ भी उघड़ा रह न जाए। तुम नहीं जानतीं कि जिसे माला की मणि तक नहीं पहुँचना है उसके लिये एक-एक मनके का रूप कितना दिव्य होता है।’’

उसने अपने पारदर्शी हाथ मेरे कन्धे पर रख दिये और कहा, ‘‘देखो योके, मेरी आँखों में देखो। क्या तुम्हें नहीं दीखता कि भगवान के सिवा मेरे पास कुछ नहीं है ओढऩे को!’’
मैं जल्दी से कन्धे छुड़ाकर लौट आयी। जहाँ उसके हाथ पड़े थे वहाँ अब भी बर्फ की दो कटारें-सी मुझे चुभ रही हैं।
लेकिन उधर शायद बुढिय़ा ने कुछ गुनगुनाना शुरू कर दिया है। वह स्वर गाने का नहीं है-शायद कोई प्रार्थना दुहरा रही है।
उफ, कब फटेगी यह कब्र, या कि कब निकलेगी वह बेशर्म जान-उसकी या मेरी या दोनों की!...

5 जनवरी :

फिर वही एकरूपता, एकरसता...अब लगता है कि इस डायरी का सहारा भी छूट जाएगा। क्योंकि इसमें भी लिखने को कुछ नहीं है, दोहराने का ही है। फिर एक दिन, फिर एक दिन घड़ी का एक और चक्कर और फिर एक और चक्कर।...

नए साल के दिन जब मैंने फिर सवेरे-सवेरे सेल्मा को गाते सुना तो मुझे क्रोध हो आया। सवेरे किसी तरह अपने पर जोर डालकर मैंने औपचारिक ढंग से उसे नए साल की बधाई दे दी और उसकी बधाइयों के लिये धन्यवाद दे दिया। फिर उसके बाद दिनभर हम लोग कुछ अजनबी-से रहे। यों इसके सिवा कुछ हो भी नहीं सकता, क्योंकि वह एक बार उठकर कुर्सी पर बैठ जाती है तो फिर वहाँ से बहुत कम हिलती-डुलती है। केवल नितान्त आवश्यक होने पर ही वहाँ से उठती है। और मैं, मैं बाहर तो जा नहीं सकती, मुझे यहीं अपनी मांसपेशियों को चालू रखने के लिये इधर-उधर जाना पड़ता है-तीन कमरों के इस घर में न जाने कितने चक्कर काटकर तब कहीं यह सन्तोष पा सकती हूँ कि हाँ, मेरी पेशियाँ अब भी मेरे ही वश में हैं-अपनी इच्छा से हाथ-पैर हिला सकती हूँ, मुट्ठियाँ भींच सकती हूँ, किसी चीज़ को हाथों में जकड़ सकती हूँ, ईंधन की लकडिय़ाँ उछाल सकती हूँ, और अगर कभी इस कब्र-घर से निकलने का अवसर आया तो सीधी चल भी सकूँगी-हाँ, अगर कयामत के दिन किसी फरिश्ते के सामने जाकर खड़े होने के लिए यहाँ से निकलना हुआ तब भी सीधी खड़ी हो सकूँगी।...

लेकिन सेल्मा के बीच के कमरे में कुर्सी पर बैठे रहते ही यह भी आसान नहीं है। मैं दबे पैरों ही इधर-उधर आती-जाती हूँ; निरन्तर मुझे सतर्क रहना पड़ता है। उसकी उपस्थिति को कभी क्षण भर के लिये भी नहीं भूल सकती हूँ। यहाँ तक कि अपनी उपस्थिति का अनुभव करने का ही मौका मुझे नहीं मिलता जब तक कि मैं रात को अपने पलँग पर अकेली नहीं हो जाती! मानो इस घर में वही वह है, मैं हूँ ही नहीं, जब कि जीती मैं हूँ और जीने की जरूरत भी मुझे है! और वह तो जीने-न-जीने की सीमा-रेखा पर अद्र्धमूर्छित ऐसे बैठी है कि यह भी नहीं जानती कि वह कहाँ पर है।

कैसे, जो जीवित नहीं हैं वे उन पर इतना कड़ा शासन करते हैं जो जीवन से छटपटा रहे हैं!
लेकिन कल तो थोड़ा-सा परिवर्तन हुआ था। कहना चाहिए कि कल सवेरे ही पहली बार ऐसा हुआ कि इस कब्र में कुछ घटित हुआ।

मैं सवेरे रसोई-घर की ओर जाने के लिए बैठने का कमरा पार करने को जा रही थी कि मैंने चौंककर देखा, सेल्मा अपनी कुर्सी है। एक बार तो उसे देखकर ऐसा लगा कि वह रात भर वहीं बैठी रही है, बल्कि उस कुर्सी का अंग ही है और सनातन काल से वहीं पड़ी है। क्या वह रात भर सोयी नहीं? मुझे याद था कि रात को जब मैं सोने जाने के लिये मुड़ी थी तब वह भी अपने कमरे की ओर चली गयी थी। लेकिन उसके बैठने की मुद्रा से पल-भर मुझे अपनी स्मृति पर ही सन्देह हो आया। मैं पूछने ही जा रही थी कि बुढिय़ा ने कहा, ‘‘तुम्हारे लिए कहवा बनाकर रसोई में रख दिया है, मैं पी चुकी हूँ। और कुछ नहीं खाऊँगी।’’
यह कुछ असाधारण तो था, लेकिन एकदम अनहोना भी नहीं था-पहले भी कभी-कभी वह मेरी प्रतीक्षा किये बिना नाश्ता कर लेती थी। मैं चुपचाप रसोई में चली गयी। मेरे लिए नाश्ता लगा हुआ रखा था। बरतन धोने की बेसिनी में कोई जूठे बरतन नहीं थे। क्या बुढिय़ा ने अपना तश्तरी-प्याला धोकर भी रख दिया; या कि उसने कुछ खाया ही नहीं है?
मैंने लौटकर बुढिय़ा से पूछा, ‘‘तुमने सचमुच नाश्ता कर लिया है? मुझे तो कहीं लक्षण नहीं दीखते!’’

‘‘मुझे जितनी जरूरत है उतना मैंने ले लिया।’’
मैं लौट गयी। नाश्ता करके मैंने बरतन धोकर रख दिये।
न जाने क्यों मेरा मन इस बात पर कुढ़ता रहा कि उसने मेरे लिये नाश्ता बनाकर रख दिया था और स्वयं शायद कुछ नहीं खाया था। फिर बैठक में जाकर मैंने कहा, ‘‘आंटी, मेरे लिए कष्ट करने की जरूरत नहीं है, खासकर जब तुम्हें खुद कुछ भी न लेना हो।’’
‘‘मैंने कहा तो, कि जितनी मुझे जरूरत थी, मैंने ले लिया।’’
मैंने कुछ चिड़चिड़े स्वर में कहा, ‘क्या ले लिया था? एक प्याला गरम पानी?’

मैं चिड़चिड़े स्वर से बोली थी, लेकिन मुझे नहीं लगता कि मैंने ऐसा कुछ कहा था जिस पर वह इतनी बिगड़ खड़ी हो।

वह बोली, ‘‘हाँ, एक प्याला गरम पानी बल्कि तुम सच ही कहना चाहती हो तो आधा प्याला गरम पानी। मैंने तुमसे कह दिया कि जितनी मुझे जरूरत थी मैंने ले लिया। मैं क्या खाती-पीती हूँ इससे तुम्हें क्या मतलब? तुम यहाँ मेहमान हो, लेकिन इससे-’’
मैं सन्न रह गयी। क्या यह सेल्मा ही बोल रही है?
फिर मैंने किसी तरह रुकते-रुकते कहा, ‘‘ठीक है, मैं पूछने वाली कोई नहीं होती। लेकिन स्वतन्त्रता मुझे भी चाहिए। यहाँ मैं अपनी इच्छा से कैद नहीं हुई, और न बीमार आदमी से सेवा लेकर स्वस्थ आदमी अपने को स्वतन्त्र महसूस कर सकता है।’’

मैं नहीं जानती कि यह बात उसे तकलीफ देने के लिये ही कही थी या नहीं। फिर भी उसे जरूर बहुत तकलीफ हुई होगी, क्योंकि उसने कहा, ‘मेरी बीमारी की बात बार-बार दोहराने की जरूरत नहीं है-मैं जानती हूँ कि मैं बीमार हूँ। मैं क्या जान-बूझकर हुई हूँ, या कि तुम्हें सताने के लिए बीमार हुई हूँ? और स्वतन्त्रता-कौन स्वतन्त्र है? कौन चुन सकता है कि वह कैसे रहेगा, या नहीं रहेगा? मैं क्या स्वतन्त्र हूँ कि बीमार न रहूँ-या कि अब बीमार हूँ तो क्या इतनी भी स्वतन्त्र हूँ कि मर जाऊँ? मैंने चाहा था कि अन्तिम दिनों में कोई मेरे पास न हो। लेकिन वह भी क्या मैं चुन सकी? तुम क्या समझती हो कि इससे मुझे तकलीफ नहीं होती कि जो मैं अपनों को भी नहीं दिखाना चाहती थी उसे देखने के लिए-भगवान ने-एक-एक अजनबी भेज दिया?’’

थोड़ी देर चुप रहकर उसने कहा, ‘‘मुझे माफ करो, योके, थोड़ी देर मेरे पास से चली जाओ! मैंने तुम्हें साक्षी नहीं चुना और भरसक कोशिश करूँगी कि तुम्हें कुछ न देखना पड़े-जितने पर मेरा वश नहीं उतना तो तुम मुझे क्षमा कर दो!’’

क्यों उसे तकलीफ होती देखकर मुझे सन्तोष होता है? लेकिन तकलीफ तो शायद उसे बराबर रहती है-क्यों उसे तकलीफ से टूटते हुए देखकर होता है-क्या यह एक अत्यन्त विकृत ढंग की जिजीविषा नहीं है!

लेकिन क्या मेरा यह मानना ही ठीक है कि वह हार ही रही है, टूट ही रही है? तकलीफउसे है, और वह उसे पूरी तरह छिपा भी नहीं सकी है। लेकिन उतने से ही तो हार नहीं सिद्घ होती-कम-से-कम टूटना तो नहीं सिद्घ होता, अगर छिपा न सकने को एक ढंग की हार मान भी लिया जाए।...

दोपहर तक हम एक-दूसरे से नहीं बोले। मैंने सोचा कि कुछ खाने को बना लूँ, और उससे पूछ भी लूँ कि वह क्या लेगी, लेकिन जब भी उसके पास जाने की बात सोचती तो लगता कि हम दोनों के बीच कोई सामान्य भाषा नहीं है-कम-से-कम इस समय तो नहीं है। मन-ही-मन कुढ़ती हुई मैं अपने कमरे में बैठी रही और सेल्मा बैठक में अपनी अभ्यस्त कुर्सी पर अपनी अभ्यस्त जड़-मुद्रा में।

लेकिन नहीं, वह बैठक में नहीं थी। एकाएक मैंने उसका स्वर सुना तो वह भंडारे से आ रहा था। वह स्वर नि:सन्देह उसी का था, लेकिन उसके स्वर से कितना भिन्न, कितना अभ्यस्त! मैं दबे-पाँव जाकर भंडारे के किवाड़ की ओट खड़ी हो गयी। बुढिय़ा भंडारे में चीज़ें इधर-उधर रख रही थी-रख नहीं, पटक रही थी। और साथ-साथ बुड़बुड़ाती जा रही थी-गालियाँ-मानो जिस भी चीज़ को छू, उठा या पटक रही थी उसके अस्तित्व को कोस रही थी। और मानो भंडारे की चीज़ों को कोसकर ही उसे सन्तोष न हुआ हो; उसने भंडारे के बाहरवाले किवाड़ को झँझोडक़र खोला और फिर उसके पीछे से एक लकड़ी खींचते हुए लकड़ी को भी गालियाँ दीं। फिर वह लकड़ी उठाकर मानो किवाड़ को पीटने ही जा रही थी कि वह उसके हाथ से छूटकर नीचे गिर गयी और एक बेबस कराह उसके मुँह से निकल गयी। फिर उसने अपने हाथ की ओर देखकर उसे भी एक गाली दी, ‘निकम्मा मुरदा हाथ!’

मैंने भंडारे में जाकर पूछा, ‘‘आंटी सेल्मा, मैं कुछ कर सकती हूँ?’’
बुढिय़ा सकपका गयी और थोड़ी देर विमूढ़-सी मेरी ओर देखती रही। फिर एकाएक खिलखिलाकर हँस पड़ी-एक अद्भुत, अप्रत्याशित, अकल्पनीय खिलखिलाहट-और बोली, ‘‘मैं माफी चाहती हूँ, योके! मैं अपना गुस्सा इन सब बेजान चीज़ों पर निकाल रही थी। अब कुछ हलका लगने लगा है। गालियाँ भी अजीब चीज़ हैं-बचपन में सुनी हुई गालियाँ बुढ़ाने में काम की जान पडऩे लगती हैं!’’

मैंने कुछ पसीजकर कहा, ‘‘माफी माँगने की कोई बात नहीं है, सेल्मा! मैं तो कहने जा रही थी कि तुमने मुझे इस भूल से बचा लिया कि मैं तुम्हें अमानुषी समझने लगूँ। जो गालियाँ दे सकते हैं वह जरूर इनसान हैं।’’

बुढिय़ा ने भंडारे से बाहर आते हुए कहा, ‘‘बस अगर इतने ही सबूत की जरूरत थी तब तो बड़ी आसान बात है! बल्कि यह सबूत तो मैं इतना दे सकती हूँ कि तुम उससे मुझे अमानुषी समझने लगो!’’

इस छोटी-सी घटना से पायी हुई निकटता दिन भर बनी रहती, अगर भंडारे से आकर कुर्सी पर धप् से बैठते ही बुढिय़ा मूर्छित-सी न हो जाती। मैंने उसे सहारा देने की कोशिश की, लेकिन उसने हाथ के इशारे से मुझे रोक दिया। उस अत्यन्त दुर्बल हाथ में आज्ञापना का कुछ ऐसा बल था कि मैं उसे छू न सकी, उसके पास भी न जा सकी। जैसे फिर क्षण-भर में हम दोनों अजनबी हो गये।

रात को उसने कहा, ‘‘कल एपिफानिया का त्योहार है। कल...लेकिन योके, तुम ईश्वर को मानती हो?’’

मैं नहीं सोच पाती कि मुझे किसी से यह सवाल पूछने का साहस हो सकता है। यह भी नहीं सोच सकती कि इसका जवाब क्या दे सकती हूँ-कैसे दे सकती हूँ। मैंने कहा, ‘‘मैं नहीं जानती।’’

‘यों तो मैं भी नहीं कह सकती कि मैं जानती हूँ, कि मैं सचमुच मानती हूँ। लेकिन कभी जब यह बात सोचती हूँ कि मैं मरने वाली हूँ, और तब मुझे ध्यान आता है कि तुम यहाँ उपस्थित हो-जब मैं अपने से अलग एक सजीव उपस्थिति के रूप में तुम्हारी बात सोचती हूँ-तब मुझे एकाएक निश्चित रूप से लगता है कि ईश्वर है-कि सजीव उपस्थिति का नाम ही ईश्वर है-कोई भी उपस्थिति ईश्वर है। क्योंकि नहीं तो उपस्थिति हो ही कैसे सकती है?’’
मैं चुप रही।

थोड़ी देर बाद उसने फिर कहा, ‘एपिफानिया ईश्वर की पहचान का दिन है। मैं सोचती हूँ कि कल मुझे भी वह दीख जाता, मैं भी उसे पहचान लेती। योके, अगर मैं कल मर जाऊँ तो तुम्हें कैसा लगेगा? कभी एकाएक लगता है कि समय आ गया है। लेकिन मैं नहीं चाहती हूँ कि बर्फ के पिघलने से पहले मैं मर जाऊँ। और खास कुछ नहीं-तुम्हें अपना बन्दी बनाकर रखना नहीं चाहती। अपनी तरफ़ से मैं तैयार हूँ। जिस दिन तुम्हें स्वतन्त्रता मिलेगी उसी दिन मैं जा सकूँगी, मुझे भी सूरज दीख जाएगा!’’

पहले मैं मृत्यु की बात पर उसे टोक देती थी। अब उसे व्यर्थ मानकर छोड़ दिया है। उसे मृत्यु की बात करनी होगी तो करेगी ही, मेरे रोकने से रुकेगी नहीं! और फिर शायद ठीक ही कहती है; और मुझे इस विचार का आदी हो जाना चाहिए।

मैंने कहा, ‘‘शुक्रिया सेल्मा! मैं तो चाहती हूँ कि तुम अभी और कई वर्ष की बर्फ देखो-कई बर्फों के बाद की धूप!’’

उसने मुस्कुराकर फिर हाथ से वही अनिर्दिष्ट इशारा किया जिसका कुछ भी अर्थ हो सकता है।...

6 जनवरी :

रात में मैं हड़बड़ाकर उठ बैठी। लगा कि भूकम्प हो रहा है, सारा मकान थरथरा रहा है। फिर एकाएक कहीं धमाका हुआ और फिर ऐसा लगा कि एक तीखा ठंडा झोंका कमरे में घुस आया है। थोड़ी देर मैं सुन्न-सी बैठी रही, फिर मुझे ध्यान आया कि अगर धमाका मैं सुन चुकी हूँ तो ऊपर से बर्फ का बोझ हट गया होगा, और तभी यह समझ में आया कि धमाका उसी का था। मैं उछलकर खड़ी हो गयी। मेरा मन हुआ कि उसी समय जाकर दरवाजा खोलकर देखूँ, खुलता है कि नहीं। कि किसी तरह अपने को सँभालकर कम्बल ओढक़र लेट गयी। इतने में ही बदन ठिठुर गया था।

किसी तरह कुछ घंटे बिस्तर में बिताकर उठी तो सोचा कि पहले नाश्ता कर लेना चाहिए। बैठने का कमरा पहले की अपेक्षा कहीं अधिक ठंडा हो गया था, और ऐसे में दरवाजा खोलने की कोशिश मूर्खता ही होगी।

नाश्ता करने के बाद ही लगा कि कमरे के प्रकाश का रंग कुछ बदल गया है-कुछ उजाला हो गया है। बुढिय़ा के घुटनों पर एक कम्बल डालकर मैंने जाकर द्वार खोलने की कोशिश की। वह नहीं खुला, और मैं फिर बैठ गयी। बुढिय़ा ने कहा, ‘‘ऊपर से बर्फ शायद हट गयी। पर अभी बाहर निकलना तो नहीं हो सकता, और ठंड भी होगी। शायद आजकल में थोड़ी धूप भी दीख जाए।’’

आज बहुत दिन बाद मैंने सहज भाव से आँखें उठाकर बुढिय़ा के चेहरे की ओर भरपूर देखा। वह चेहरा कुछ-एक दिन में ही काफ़ी बूढ़ा हो गया था। सभी रेखाएँ अधिक स्पष्ट और गहरी और निर्मम हो गयी थीं और उनके माध्यम से जीवन जो भी नि:संग और निष्करुण सन्देश देना चाहता था वह और भी विशद और असन्दिग्ध हो उठा था।

मैंने पूछा, ‘‘आंटी सेल्मा, मैं एक बात अक्सर सोचती हूँ-पूछना चाहती हूँ-वह क्या है जो तुम्हें सहारा देता है, जबकि मुझे डर लगता है?’’

बुढिय़ा ने तुरन्त उत्तर नहीं दिया। थोड़ी देर बाद बोली, ‘क्या सचमुच ऐसा है? मुझे किसका सहारा है, मैं नहीं जानती हूँ। ईश्वर का है, यह भी किस मुँह से कह सकती हूँ? शायद मृत्यु का ही सहारा है। वह है, बिलकुल पास है, सामने खड़ी है-लगता है कि हाथ बढ़ाकर उसका सहारा ले सकती हूँ? ईश्वर...ईश्वर का नाम लेना तो बड़ा आसान है, लेकिन बड़ा मुश्किल भी है। और मौत और ईश्वर को हम अलग-अलग पहचान भी तो कभी-कभी ही सकते हैं। बल्कि शायद मन से ईश्वर को तब तक पहचान नहीं सकते जब तक कि मृत्यु में ही उसे न पहचान लें।’’
मैंने धीमे स्वर में कहा, ‘‘यह मेरी समझ में नहीं आया। बल्कि मुझे तो यही सिखाया गया है कि ईश्वर है, इसीलिए मृत्यु नहीं है। मृत्यु केवल भ्रम है।’’

‘‘सिखाया तो मुझे भी यही गया है। लेकिन भ्रम भी क्या कम ईश्वर है? और ईश्वर की कौन-सी पहचान हमारे पास है जो भ्रम नहीं है? जब ईश्वर पहचान से परे है तो कोई भी पहचान भ्रम है। ईश्वर को हम कैसे जान सकते हैं? जो हम जान सकते हैं वे कुछ गुण हैं-और गुण हैं इसलिए ईश्वर के तो नहीं हैं। हम पहचानते हैं अनिवार्यता, हम पहचाने हैं अन्तिम और चरम और सम्पूर्ण और अमोघ नकार-जिस नकार के आगे और कोई सवाल नहीं है और न कोई आगे जवाब ही...इसीलिए मौत ही तो ईश्वर का एकमात्र पहचाना जा सकनेवाला रूप है। पूरे नकार का ज्ञान ही सच्चा ईश्वर-ज्ञान है, बाकी सब सतही बातें हैं और झूठ है।’’
मैं अवाक् बुढिय़ा को देखती रही। यह क्या बर्फानी वीरान में रहनेवाली गड़रियों की माँ की भाषा है! या कि यहाँ और भी कोई रहस्य है-और छिपा हुआ झूठ?

7 जनवरी :

ठिठुरती हुई रात में मुझे धीरे-धीरे फिर बुढिय़ा पर क्रोध आने लगा। ज्यों-ज्यों मैं मन-ही-मन उसकी कही हुई बातें दोहराती त्यों-त्यों मुझे लगता कि उनमें छिपा हुआ मेरे प्रति पैना व्यंग्य है, और यह मरती हुई बुढिय़ा अपनी अन्तिम घडिय़ों में भी मेरे स्वस्थ युवा जीवन का अपमान कर रही है, मुझे नीचा दिखा रही है। मैं क्यों बाध्य हूँ यह सहने को, उसके द्वारा यों जलील किये जाने को? मैं अगर ईश्वर को नहीं मान सकती तो नहीं मान सकती, और अगर ईश्वर मृत्यु का ही दूसरा नाम है तो मैं इसे क्यों मानूँ? मैं मृत्यु को नहीं मानती, नहीं मान सकती, नहीं मानना चाहती! मृत्यु एक झूठ है, क्योंकि वह जीवन का खंडन है। और मैं जीती हूँ और जानती हूँ कि मैं जीती हूँ। कभी ऐसा होगा कि जीती न रहूँगी तब जाननेवाला भी कौन रहेगा कि मैं जीवित नहीं हूँ-कि मैं मर चुकी हूँ? मौत दूसरों की ही हो सकती है, जिनका होना और न होना दोनों ही हम जान सकते हैं-या मानते हैं। लेकिन अपनी मृत्यु का क्या मतलब है? वह केवल दूसरे को देखकर लगाया हुआ अनुमान है-कि दूसरे के साथ ऐसा हुआ इसलिए हमारे साथ भी होगा। लेकिन दूसरे ने अपने होने को जैसा जाना, क्या हमने भी उसके होने को ठीक वैसा ही जाना? क्या ‘वह है’ और ‘मैं हूँ’ ये दोनों बुनियादी तौर पर अलग-अलग जाति के, अलग-अलग दुनियाओं के ही बोध नहीं हैं? ‘वह है’ के जोड़ का बोध यह भी है कि ‘वह नहीं है’, लेकिन ‘मैं हूँ’ के साथ उसका उलटा कुछ नहीं है; ‘मैं नहीं हूँ’ यह बोध नहीं है बल्कि बोध का न होना है।

लेकिन उस ठिठुरती हुई रात में मैंने यह भी सोचा कि उस बुढिय़ा को शायद यह बोध भी है कि वह ‘मैं हूँ’ को भी जानती है और ‘मैं नहीं हूँ’ की अवस्था में भी जी सकती है। यही तो उसकी सम्पूर्ण नकार की बात का मतलब था! और इस न होने के बोध की सम्पूर्णता मेरी ठिठुरन के ऊपर एक नए आतंक-सी छा गयी।

क्या है यह ‘न होना’? मैं पलँग पर उठ बैठी और उठ खड़ी हुई। गले पर गरम शाल लपेटकर मैंने ड्रेसिंग-गाउन पहन लिया और इधर-उधर टहलने लगी।

होना और न होना। न होना...होना, न होना! होना और न होना-और एक साथ ही होना और न होना...एकाएक मैंने पाया कि मैं केवल इन शब्दों को सोच ही नहीं रही हूँ बल्कि धीरे-धीरे दोहरा रही हूँ, और दोहराने के साथ-साथ मेरे हाथों की मुट्ठियाँ बँधती और खुल जाती हैं।

होना और न होना। खुले हाथ और बँधी हुई मुट्ठियाँ। मेरे नाखून मेरी हथेलियों में गड़ जाते हैं और वहाँ दर्द होता है; और उस दर्द से मैं पहचानती हूँ कि मैं हूँ। होने का दर्द! न होने का दर्द कैसा होता है? और फिर मुझ पर एकाएक कोई भूत सवार हो आया। मेरा मन हुआ कि कुछ तोड़-फोड़ कर दूँ। यह जो नाखूनों के गडऩे से होने का दर्द होता है उसे और गहरा और विस्तार के साथ अनुभव कर सकूँ-कि जिऊँ और गड़ूँ और जिऊँ और अनुभव करूँ कि मैं जीती हूँ।...

मैं एकाएक मोजोंवाले पैरों से ही बुढिय़ा के कमरे की ओर बढ़ गयी। किवाड़ बन्द नहीं थे। मैं धीरे से परदा हटाकर भीतर चली गयी। अँधेरे में थोड़ी देर आँखें फाड़-फाडक़र देखती रही; मैंने पहचाना कि बुढिय़ा का आकार उसके पलँग पर निश्चल पड़ा है। मैं पास गयी और झुककर मैंने देखा, उसके सफेद चेहरे को, जो उस अँधेरे में भुतहा लग रहा था, रेखाएँ कुछ घुल-सी गयी हैं, और बन्द आँखों की कोरों की सलवटें सीधी हो रही हैं, मैंने और भी पास से झुककर देखा-इतनी पास से कि अगर बुढिय़ा का चेहरा एक ओर चादर से न ढँका होता तो मेरी घनी साँस का स्पर्श उसका गाल छू जाता!

होना और न होना-होने का दर्द, न होने का भ्रम। भ्रम नहीं, न होना ही सच्चा ज्ञान है। ईश्वर का भ्रम। मेरे हाथ अवश से बुढिय़ा की गरदन की ओर बढ़ गये और मैं मानो केवल उसकी स्वचालित गति की साक्षी हो गयी। मैंने देखा कि वे दो हाथ बुढिय़ा की गरदन के आगे अर्धमंडलाकार घिर गये हैं-गरदन को उन्होंने अभी छुआ नहीं है लेकिन इतने पास हैं कि एक रोएँ की सिहरन भी दोनों की छुअन बन जा सकती है-और वे दोनों हाथ काँप रहे हैं। किसी दुर्बलता के कारण नहीं बल्कि अपने कड़ेपन के कारण ही।

मैं हाथों के ऊपर थोड़ा और झुक गयी। मुझे याद आया, बुढिय़ा कहती थी, धूप निकलकर आये तो अच्छा है...लेकिन मरे हुए गोश्त को इससे क्या कि धूप है या नहीं है-सिवा इसके कि धूप होगी तो सडऩ होगी?

क्या ये हाथ-ये समर्थ और कर्मठ हाथ, जिसमें एक स्वतन्त्र इच्छा और कारक शक्ति है, मेरे ही हाथ हैं? क्योंकि उन पर झुका हुआ जो व्यक्ति इतनी पास से उन्हें देख रहा है वह व्यक्ति ‘मैं’ नहीं है। कितनी पास हैं बुढिय़ा की मुँदी हुई पलकें-क्या उनके नीचे जो आँखें छिपी हुई हैं वे बुढिय़ा की ही हैं, या मेरी, या-

लेकिन वे आँखें अपलक खुली थीं और बुढिय़ा एकटक मुझे देख रही थी। उसने जरा भी हिले-डुले बिना कहा, ‘मेरा तो खुद कई बार मन हुआ कि तुमसे कहूँ, मेरा गला घोंट दो-कहने का साहस नहीं हुआ। लेकिन तुम रुक क्यों गयीं?’

एक बड़ी लम्बी चीख मेरे मुँह से निकल गयी और मैं दौडक़र अपने बिस्तर में घुस गयी। फिर काफ़ी देर बाद मुझे लगा कि मैं रो रही हूँ। लेकिन मेरी आँखों में बिलकुल आँसू नहीं थे। सिर्फ ठठरी बेतरह काँप रही थी।...

न जाने कैसी सोयी और कैसे जागी। जो हुआ था उसके बाद सवेरा कैसे हो सकता है, मैं नहीं सोच सकती थी। और बुढिय़ा के सामने मैं कैसे जा सकती हूँ, यह तो सवाल भी मैं अपनी कल्पना के सामने नहीं ला पा रही थी। लेकिन जब मैंने बैठक में झाँका तो वहाँ कोई नहीं था। मैं दबे-पाँव रसोई में गयी। मैंने नाश्ता तैयार किया और वहीं खा भी लिया। फिर एक तश्त में कहवा रखकर बुढिय़ा के कमरे में गयी। वह पलँग पर निश्चल पड़ी थी। मैं न जान सकी कि वह सोयी है या जाग रही है। और शायद उसने जान-बूझकर ही आँखें नहीं खोलीं। मुझे इसमें सुविधा ही थी-मैंने तश्त पलँग के पास ही तिपाई पर रख दिया और बाहर चली आयी।

दोपहर हो गयी थी जब उसने दुर्बल स्वर में मुझे पुकारा। मैं उसके कमरे में गयी और उसके सिरहाने खड़ी हो गयी, जहाँ वह मुझे न देख सके-या कम-से-कम मुझे उससे आँखें न मिलानी पड़े। लेकिन उसने ठोड़ी ऊँची करके और पलकें चढ़ाकर मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘‘योके, थोड़ी देर मेरे पास आकर बैठ सकती हो? मुझे तुमसे बातें करनी हैं। और आज उठ नहीं पा रही हूँ।’’

कहते हैं कि आसन्न मृत्यु की एक गन्ध होती है। हम इनसानों ने उसे पहचानने की शक्ति खो दी है, लेकिन जानवर पहचान सकते हैं और उसे पाकर बेचैन हो उठते हैं। यह भी सुना है कि कैंसर के रोगियों के अन्तिम दिनों में यह गन्ध इतनी स्पष्ट होती है कि मनुष्य भी पहचान सकते हैं। क्या मेरी कल्पना ही थी कि मुझे लगा, बुढिय़ा का कमरा उस विशेष मृत्यु-गन्ध से भरा हुआ है। क्या कल्पना में ही इतना बल था कि मुझे उबकाई-सी आने लगी? मैंने किसी तरह अपने को सँभाला और एक चौकी खींचकर उसके पास बैठ गयी। आँखें मैं उससे नहीं मिला सकी लेकिन मैंने किसी तरह कहा, ‘‘रात के लिए मुझे क्षमा कर दो। मैं पागल हो गयी थी।’’
बुढिय़ा ने कहा, ‘‘क्षमा तो मुझे माँगनी है-तुम्हें ऐसी परिस्थिति में डालने के लिये। यह कुछ अच्छी स्थिति नहीं कि कोई कुछ करना चाहे और कर न सके।’’

लेकिन मैंने तिलमिलाकर कहा, ‘‘लेकिन यह चाहना ही कितना गलत और भयानक है-’’
‘‘वह कुछ नहीं। भयानक होता तो चाहा कैसे जाता है? लेकिन मैंने ही तुम्हें ऐसे संकट में डाला कि तुम्हें अपने भीतर ही दो हो जाना पड़े। सचमुच ही मैं ही अपराधी हूँ, और तुम्हें क्षमा करना होगा।’’

मैं चुप रही। क्या कहती? वह भी काफ़ी देर तक चुप रही, फिर उसने कहा, ‘‘नहीं कर सकतीं क्षमा? इतना आश्वासन मैं और देती हूँ कि कल जैसा अवसर फिर नहीं आएगा। मैं ही मौका नहीं दूँगी-नहीं दे सकूँगी। लेकिन मैं चाहती हूँ कि तुम मुझे क्षमा कर दो-इतना ही नहीं, मैं चाहती हूँ कि तुम अपने मुँह से कह सको कि तुमने कर दिया क्षमा। क्योंकि उससे तुम्हें भी आगे शान्ति मिलेगी।’’

मैंने कहा, ‘‘अपराधी तो मैं हूँ, और मैं दुर्बल हूँ जो कि दुगुना अपराध है और इसी की कुढऩ मुझे कुराह पर ठेलती है जो कि और अपराध है।’’

उसने कहा, ‘‘न न, योके, यह अपराध को खाहमखाह ओढऩा है। तुम जो अपने को स्वतन्त्र मानती हो वही सब कठिनाइयों की जड़ है। न तो हम अकेले हैं, न स्वतन्त्र हैं। बल्कि अकेले नहीं हैं और हो नहीं सकते, इसलिए स्वतन्त्र नहीं हैं; और इसीलिए चुनने या फैसला करने का अधिकार हमारा नहीं है। मैंने तुम्हें बताया है कि मैं चाहती थी कि मैं अकेली मरूँ। लेकिन क्या यह निश्चय करना मेरे बस का था? क्या मैं अपनी मनपसन्द परिस्थिति चुन सकी? और तुम-क्या तुम स्वतन्त्र हो कि मुझे मरती हुई न देखो? ऐसी सब स्वतन्त्रताओं की कल्पनाएँ निरा अहंकार हैं-और उसी से स्वतन्त्रता को छोडक़र कोई दूसरी स्वतन्त्रता नहीं।’’

मैंने हिचकिचाते हुए कहा, ‘‘लेकिन तुम स्वतन्त्र हो सेल्मा, मुझे तो लगता है कि तुम स्वतन्त्र हो! और शायद तुम्हारा यह कहना ठीक है कि मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ। क्योंकि तुम्हारी इसी बात पर मुझमें कुढऩ होती है।’’

बुढिय़ा ने देर तक कोई जवाब नहीं दिया। पर जो कहा वह जवाब नहीं था, यद्यपि कहा ऐसे ही ढंग से गया कि मेरी बात का जवाब दिया जा रहा है। उसने कहा, ‘‘बहुत बड़ा वरदान है जवान होना!’’

फिर काफ़ी देर तक उसने कुछ नहीं कहा तो मैंने पूछा, ‘‘लेकिन तुम तो कुछ बात करने वाली थीं?’’

‘‘अरे, वह! मुझे तो माफी ही माँगनी थी, वह मैंने माँग ली। तुमने दे दी-यह तो तुमने अभी नहीं कहा, लेकिन मैं कहला लूँगी। और कुछ-’’

वह फिर थोड़ी देर चुप रही। फिर एक लम्बी साँस लेकर बोली, ‘‘मैं थक जाती हूँ।’’
मुझे ध्यान आया कि उसने दिन भर कुछ नहीं खाया है। पहले दिन भी लगभग कुछ नहीं खाया था। बल्कि इधर कई दिनों से कुछ नहीं खा रही है। मैं कहा, ‘‘पहले तुम्हारे लिये कुछ ले आऊँ-थोड़ा-सा गरम शोरबा या कहवा ही।’’

उसने संक्षेप में कहा, ‘‘जितनी मेरी जरूरत है, मैं ले लेती हूँ-जितना ले सकती हूँ।’’
बात खत्म नहीं हुई थी लेकिन इसके बाद वह पलकें मूँदकर देर तक चुपचाप पड़ी रही तो मैंने बुलाना उचित नहीं समझा और चुपचाप उठ आयी।

11 जनवरी :

इस काठघर में-लिखकर मैं देखती हूँ कि मैंने कब्रघर नहीं लिखा है, काठघर लिखा है-क्या मेरे भीतर कहीं कोई छिपी हुई आशा है?-अब पहले जैसा अँधेरा और झुटपुटे के बीच का-सा प्रकाश नहीं है। ऐसा प्रकाश है जो पहचाना जा सकता है, जो बड़े निर्मम भाव से चेहरे की रेखाएँ और उनकी सलवटों में छिपाना चाहनेवाली जीवन की बेशर्मी को उघाडक़र रख देता है। वह प्रकाश जिसमें किसी चीज़ की ओर देखते डर लगता है क्योंकि वह पलटकर वापस मेरी ओर देखती है और उस देखने ही में कैसी डरावनी हो आती है। यह मेज, यह पलँग, यह आईने का चौखटा, यह आईने में मेरी परछाईं, ये मेरे अपने हाथ-पैर, ये मेरी उँगलियों की गति। कैसी भयानक है पार्थिवता, स्थूलता, यह गतिमत्ता! मैं मुट्ठी बन्द करती और खोलती हूँ, और मुझे अपनी उँगलियों की गति से डर लगने लगता है। मुझे नहीं लगता कि मैं उनको चलाती हूँ-वे अपने-आप चलती हैं, और कैसा आतंकित करनेवाला है यह विचार कि मेरी उँगलियाँ और यह मेरी उँगलियाँ अपने आप मुझसे स्वतन्त्र एक अपने निरात्म मन से चलती हैं! और उससे भी कितना अधिक भयानक है यह मानना कि अपने आप नहीं चलतीं बल्कि मेरे द्वारा चलाई जाती हैं। क्योंकि तब क्या मैं भी वैसी ही निरात्म हूँ?

इस प्रकाश में सेल्मा को देखना आसान नहीं है। लेकिन अच्छा ही है कि मुझे उसकी ओर देखना भी नहीं पड़ता और उससे बोलना भी बहुत कम पड़ता है। वह कमरे से लगभग नहीं निकलती, पलँग से भी लगभग नहीं उठती; और जब उठना होता है तो मेरा सहारा लेने से इनकार करके मुझे कमरे से बाहर भेज देती है। रात में कभी सुनती हूँ कि वह उठी है, एक कदम के बाद दूसरा घिसटता हुआ कदम सुनाई पड़ता है। फिर तीसरा और फिर चौथा...मेरे भीतर एक सशंक प्रतीक्षा उमड़ आती है। मैं तने हुए स्नायुओं और सुई-सी एकाग्र श्रवण शक्ति से वह घिसटना सुनती रहती हूँ और कदम गिनती रहती हूँ जब तक कि अन्त में पलँग की हलकी-सी चरमराहट के साथ एक चरम क्लान्ति का ‘ऊँह!’ न सुनने को मिल जाए-उस चरम क्लान्ति का, जो चरम उपलब्धि के साथ आती है-मानो जो कुछ करना चाहा गया था सब कर लिया गया, और कुछ करने को बाकी नहीं रहा। और तब एकाएक ऐसा लगता है कि जीवन पैरों के घिसटने के सिवा कुछ नहीं है, और उसके बीच-बीच जो मुझे अपना ध्यान आता है वह धोखा है, मैं नहीं हूँ और केवल पैरों का घिसटना है।...

12 जनवरी :

इस बिना कफन की कब्र से क्या वह पहले की ही अवस्था अच्छी नहीं थी? बर्फ के नीचे दबकर मर जाना भी मर जाना है। लेकिन वह दबकर मरना तो है-उसमें कार्य और कारण की संगति तो है! लेकिन यह बिना दबे, बिना बर्फ को छुए भी अहेतुक मर जाना-यह मानो हमारे जीवन के अनुभव का अपमान करता है। और हम मरने पर भी अनुभव का खंडन सहने को तैयार नहीं। शायद यह हमारे करुण विश्वास का-विश्वास की कामना का फल है कि अगर अनुभव है तो हम भी हैं, और अगर काई अनुभव हमें हुआ है तो हमारे मर जाने पर भी वह नहीं मरता और एक धनात्मक उपलब्धि के रूप में बचा ही रह जाता है। इस करुण विश्वास के सहारे हम यह मान लेना चाहते हैं कि हमीं बचे रह जाते हैं। लेकिन सब झूठ है-कुछ नहीं बचता-हम नहीं बचते; बचने को रहे भी, यह भी नहीं कह सकते! मृत्यु-मत्यु-उसी की एकमात्र प्रतीक्षा, ऊपर बर्फ हो या न हो-और हाँ, कैंसर भी हो या न हो! क्या सेल्मा की प्रतीक्षा मेरी प्रतीक्षा से इसलिए भिन्न है और मुझे नहीं है, या कि भिन्न इसी बात में है कि उसके पास कारण की संगति का सबूत है और मेरे पास वह भी नहीं है? क्या मैं ज्यादा लाचार, ज्यादा दयनीय-ज्यादा मरी हुई नहीं हूँ? क्या मुझे ही ज्यादा कैंसर नहीं है-वह कैंसर जिसे हम ज़िन्दगी कहते हैं?


14 जनवरी :

धूप की एक पतली-सी किरण। नहीं, छत के रोशनदान के एक कोने से घुसकर फर्श पर गिरा हुआ धूप का एक छोटा-सा चकता।
और हमारी जि़न्दगी में-हमारे कब्र के प्रवास के इतिहास में एक घटना!
मैंने बिना सोचे एकाएक सेल्मा के कमरे में जाकर देखा, ‘‘सेल्मा, धूप! बड़े कमरे में फर्श पर धूप की एक बड़ी-सी थिगली है, देखोगी?’’
बुढिय़ा चुपचाप थोड़ी देर मेरी ओर देखती रही। फिर मानो मन-ही-मन तय करके कि इस सूचना पर उसे जरूर मुस्कुराना चाहिए, वह किसी तरह मुस्कुरा दी। फिर उसने धीरे-धीरे गुनगुनाकर कुछ कहा, जो मुझे सुनाई नहीं दिया। और थोड़ी देर मैं यह भी नहीं सोच सकी कि वह मेरे सुनने के लिए कहा भी गया था या नहीं। थोड़ा झिझककर मैंने पूछा, ‘‘सेल्मा, मुझसे कुछ कहा है?’’ और तनिक उसकी ओर झुक गयी।
वह बोली, ‘‘जाने दो, वह कुछ नहीं।’’
मैंने फिर पूछा, ‘‘नहीं जरूर-कोई चीज़ की जरूरत हो तो...धूप देखना चाहोगी?’’
वह कुछ ऐसे ढंग से मुस्कायी जैसे अपना अपराध पकड़े जाने पर बच्चा मुस्कुराता है। ‘‘हाँ, वह मैं चाह सकती थी पर मेरे बस का नहीं है।’’
मैंने कहा, ‘‘मैं उठाकर ले चलूँ?’’
‘वह-नहीं हो सकेगा।-तुमसे नहीं, मुझसे ही नहीं हो सकेगा।’’
मैंने कहा, ‘‘अच्छा, मैं यहाँ से दिखा देती हूँ।’’ और बढक़र मैंने बैठक की ओर के उसके कमरे का किवाड़ खोलकर परदा एक ओर सरका दिया। उतना काफ़ी नहीं था। मैंने पलँग को भी एक ओर खींच लिया। फिर उसके सिरहाने जाकर कहा, ‘‘मैं बाँह का सहारा देती हूँ, उठकर देख लो!’’ और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये अपना हाथ उसकी गरदन के नीचे डाल दिया।

वह इतनी हलकी थी, कि उसे सहारा देकर उठाना ही नहीं, बिलकुल उठा लेना भी कोई बड़ा काम नहीं था। लेकिन मेरी बाँह का सहारा जरूरत से ज्यादा न लेने की कोशिश में उसने उठने के लिये थोड़ा सा जोर भी लगाया। क्षण-भर के लिए मेरा हाथ बालों के लच्छे को छूता रहा, उसके भार का अनुभव उसे नहीं हुआ। फिर एकाएक उसकी गरदन शिथिल हो गयी और उसके सिर का भार मेरे हाथ पर आ रहा। उसने कहा, ‘‘नहीं, शुक्रिया योके!’’
मैंने हाथ खींच लिया और पल-भर उसके चहेरे को देखती रही। मुझे लगा कि उस पर पसीने की बूँदें हैं-ठंडी बूँदें।
उसने कहा, ‘‘शुक्रिया योके, धूप ने आज आना ही चुना है, पर मैं उसे देखना नहीं चुन सकती। उसे भी मेरा शुक्रिया दे दो।’’

मैंने कुछ कहना चाहा, लेकिन मुझे कुछ सूझा ही नहीं कि क्या कहा जाए। और वह फिर बोली नहीं-आँखें मूँद पड़ी रही। मैं चुपचाप उसके चेहरे की ओर देखती रही, पर मुझे ध्यान आया कि मुझे वहाँ कुछ करने को नहीं है और मेरे वहाँ खड़े होने का कोई मतलब नहीं है। मैंने उसके कमरे का परदा फिर गिरा दिया और बैठक में आकर उस छोटी होती हुई धूप की थिगली को देखने लगी। इतनी देर में ही उसका आकार बाँका-टेढ़ा होकर सिकुड़ गया था। और एकाएक मुझे लगा कि जिस थिगली को मैं देख रही हूँ वह धूप की नहीं है, फर्श पर पड़े हुए सेल्मा के चेहरे की है।

फर्श पर पड़ा हुआ चेहरा। शरीर से अलग चेहरा-निरा चेहरा, सनातन चेहरा। मैंने मानो धु्रव सत्य के रूप में जान लिया, वह चेहरा ही सेल्मा है और सेल्मा ही धूप की वह थिगली है जो कभी भी मिट जा सकती है लेकिन फिर भी ज्यों-की-त्यों बनी रहती है क्योंकि उसका होना उसके न होने से अलग नहीं है।

सेल्मा का, सेल्मा के पास कोई इतिहास नहीं है, केवल स्मृति है। सेल्मा भी इतिहास नहीं स्मृति है, शुद्घ स्मृति। वह एक साथ यहाँ भी और अन्यत्र भी जीती है, आज भी और कल भी और सभी दिनों में एक साथ ही जीती है। और इसलिये वह अलग नहीं है, अकेली नहीं है।
और मैं-मैं यहाँ अभी इस क्षण में जीती हूँ-मुझमें स्मृति नहीं है। मुक्त मुझे होना चाहिए, लेकिन मैं इतिहास से क्षयग्रस्त हूँ और अकेली हूँ। मरना सेल्मा को है, मरेगी वह, लेकिन मर रही हूँ मैं, अकेली मैं...

कोई आध घंटे बाद सेल्मा ने पुकारा।
मेरे पास जाने पर बोली, ‘मेरी एक विनती है।’
मैंने कहा, ‘‘कहो।’’
उसने फिर कहा, ‘‘इसके लिये मैं माफी चाहती हूँ। लेकिन तुम मुझे उठाकर धूप तक ले जा सकती हो। मैं चीखँू भी तो न सुनना-एक बार-’’
मैंने कहा, ‘‘लेकिन सेल्मा, धूप तो चली गयी।’’
वह थोड़ी देर चुप रही। फिर बोली, ‘‘यही ठीक है। या कि दूसरा कुछ भी बेठीक होता! जाने दो।’’

मुझ पर एकाएक उदासी छा गयी। पहली बार-एक मात्र बार-मुझे लगा कि मेरे मन में बुढिय़ा के प्रति करुणा उपजी है। लेकिन फिर एकाएक ही मन कड़ा हो आया। बुढिय़ा कैसे कह सकती है यह ठीक ही है, या कि दूसरा कुछ बेठीक होता? यही बात तो बेठीक है-बुढिय़ा ही बेठीक है!

एकाएक बुढिय़ा ने कहा, ‘‘योके, मैं यह सब एक बार पहले देख चुकी हूँ। इसमें से गुजर चुकी हूँ।’’
बुढिय़ा की बात मैं नहीं समझ सकी। लेकिन मैंने कुछ कहा नहीं। चुपचाप खड़ी रही। उसी ने फिर कहा, ‘‘वर्षों पहले, यहाँ आने से पहले, जब मैं शहर में थी-यहाँ आये मुझे कोई अट्ठाईस वर्ष हो गये हैं-यह तो तुम्हारे जन्म से पहले की बात होगी-’’
मेरे मुँह से निकल गया, ‘‘मेरे लिए तो यह दूसरी ही दुनिया की बात है।’’
वह बोली, ‘‘मेरे लिये भी-दूसरी ही दुनिया की बात है-सुनोगी-तुम्हें समय है?’’
मैंने कहा, ‘‘जरूर, मैं अभी आयी-कुछ काम ठीक-ठाक कर आऊँ।’’

लेकिन थोड़ी देर बाद दुबारा जब वहाँ गयी तो मानो उसे मेरे आने का पता ही नहीं लगा। मैं काफ़ी देर तक उसके पास खड़ी रही, फिर एक चौकी खींचकर बैठ गयी और फिर थोड़ी देर बाद चली आयी।

दूसरी दुनिया की बात। दूसरी दुनिया भी कोई दुनिया है? या कि दूसरी ही दुनिया है, और यह जो हैं वह नहीं है?

बोलचाल का मुहावरा जिस तेजी से बदलता है, बस्ती का रूप उससे कहीं अधिक तेजी से बदल रहा था। बातचीत में अभी तक कस्बा ही कहते थे, लेकिन उसमें शहर के सब लक्षण आ चुके थे। बल्कि जिस हिस्से को किसी भी औचित्य के साथ कस्बा कहा जा सकता है वह उसके एक छोर पर पड़ गया था। उतने हिस्से का स्थापत्य कुछ अलग और पिछड़ा हुआ था। सडक़ें इतनी तंग थीं कि उन्हें गलियाँ कहना ही ठीक था और वहाँवाले वही कहते भी थे। वहाँ के लोगों के जीवन की गति भी धीमी ही थी और शायद उनके बोलने के ढंग की तरह उनकी जीवन-दृष्टि भी कुछ पुरानी और कुछ पिछड़ी हुई थी। कम-से-कम शहर में, यानी शहर के दूसरे हिस्से में, रहनेवाले लोग उसे पिछड़ा ही मानते थे और जब भी कस्बे के लोगों की चर्चा करते तो उसमें एक व्यंग्य निहित होता था-बड़ा शरारती, छिपा हुआ व्यंग्य, लेकिन शहराती या छिपा हुआ होने के कारण कुछ कम तीखा नहीं।

कस्बे के आगे सीधे-सपाट मैदान में बाग था। वह भी पुराना बाग था; पुरानी और सुस्त चाल से चलनेवाला बाग, जिसमें हलकी-फुलकी, चुस्त और हर मौसम में रूप बदलनेवाली फूलों की क्यारियाँ बिलकुल नहीं थीं; पुरानी और सदा-बहार हरियाली के बीच में जहाँ-तहाँ बहुत बड़े-बड़े, पुराने और धीमी गति से बढऩेवाले पेड़ थे।

बाग के पार नदी थी-या नदी के किनारे की सडक़ थी क्योंकि सडक़ ही बाग की मर्यादा बाँधती थी, सडक़ के आगे फिर हरियाली का फैलाव था और उसके आगे नदी थी।

हरियाली का ढलाव नदी की ओर था; और हर साल बारिश होने पर सारी हरियाली डूब जाती थी और बाग की मर्यादा-रेखा खींचनेवाली सडक़, नदी की मर्यादा-रेखा बन जाती थी। लेकिन जब नदी उतर जाती थी और हरियाली के नीचे की मिट्टी फिर बँध जाती थी, तब बाग की सैर करनेवाले सडक़ पार करके हरियाली की सैर करने भी जरूर आते थे और हरियाली पर टहलते हुए ही नदी के पुल तक जाते थे। पुल था तो नदी का, पर नदी के साथ-साथ हरियाली को भी बाँधता था। धनुषाकार पुल दूर-दूर से दीखता था और हरियाली की सैर करने आनेवालों के क्षितिज का महत्त्वपूर्ण अंग था। सैर के अन्त में उन्हें प्यास जरूर लगती थी, और कभी-कभी भूख भी लग आती थी, जिसके शमन का प्रबन्ध पुल पर ही था। जहाँ से पुल की उठान शुरू होती थी वहाँ से, बल्कि उसके कुछ पहले सडक़ की पटरी पर से ही, अस्थायी दुकानें शुरू हो जाती थीं। पहले झावे या रेहड़ीवाले; फिर उनके बाद बड़ी रेहडिय़ाँ आती थीं जिन पर दुकानदार के रहने की भी जगह बनी हुई हो, उसके बाद, धनुष के सबसे ऊँचे खंड पर, कुछ पक्की दुकानें थीं।

नदी में बाढ़ हर साल ही आती थी, लेकिन हर साल की बाढ़ सडक़ को छूकर धीरे-धीरे उतर जाती थी। ऐसा कभी-कभी ही होता था कि वह और बढक़र सडक़ पर आ जाए। लेकिन जब वैसा होता था तो सडक़ के साथ समूचा बाग भी पानी में डूब जाता था और पुल के छोर भी डूब जाते थे। बाग के बड़े-बड़े पेड़ मानो सीधे पानी में उगकर पानी पर ही छाँव करते जान पड़ते थे, और पुल का भी मानो नदी से, या उसे पार रकने की जरूरत से, कोई सम्बन्ध नहीं रहता था। मानो पातालवासी जलदेवता ने अपनी शक्ति देखने के लिये भुजा बढ़ाकर एक महाकाय धनुष पानी से ऊपर ठेल दिया हो, ऐसा ही वह तब लगने लगता था। उसकी लोहे और पत्थर की कंकरीट की चुनौती की ओर पीठ फेरकर कस्बे के लोग ऊँचाई पर बसी हुई नई बस्ती की ओर चले जाते थे और पानी उतरने की प्रतीक्षा किया करते थे-जब मानव को जलदेवता द्वारा दी गयी चुनौती का प्रतीक, फिर पलटकर जलदेवता पर मनुष्य की विजय की प्रतीक बन जाएगा, और पुल पर से लोगों का आना-जाना फिर सम्भव हो जाएगा-पुल पर खाने-पीने की तरह-तरह की चीेजें फिर बिकने लगेंगी और आने-जानेवाले न केवल अपनी भूख-शान्त कर सकेंगे, बल्कि तफरीह के लिये घूमते हुए कंघी-रूमाल, फूल-गुलदस्ते भी खरीद सकेंगे। या कि सडक़ के किनारे के फोटोग्राफर से यादगार के लिये फोटो भी खिंचवा सकेंगे।

सन 1906 में जो बाढ़ आयी उसे लोग अब भी याद करते हैं। यह कह देने से कि उस शहर या कस्बे के लिये नदी की उस वर्ष की बाढ़ ने रेकॉर्ड स्थापित किया था, कुछ भी अनुमान नहीं हो सकता कि वह बाढ़ क्या चीज़ थी। बाढ़ के साथ भूकम्प भी हुआ था, जिससे नई बस्ती की सडक़ में भी बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गयी थीं और कस्बे के तो मकान ही गिर गये थे। लेकिन सबसे अधिक चौंकानेवाली जो बात हुई थी वह उस धनुषाकार पुल की दुर्घटना थी। पुल पर कुछ लोग इस वर्ष भी थे, जैसे कि हर वर्ष बाढ़ में रहते थे-बाढ़ दो-चार दिन में उतर ही जाती थी और पक्की दुकानवालों को उनका डर नहीं रहता था। इन दिनों के लिए सब सामान उनके पास रहता ही था। नावें भी बँधी रहती थीं जिनसे जरूरत पडऩे पर काम लिया जा सके। पर वास्तव में उनकी जरूरत कभी-कभी ही पड़ती, क्योंकि आमतौर पर बाढ़ में भी पैदल चलकर ही बाग को पार किया जा सकता था। बल्कि कभी-कभी नई बस्ती के कुछ मनचले लोग घुटने तक के रबड़ के बूट पहनकर इस तरह बाग पार करके आते भी थे। और भी शौकीन और सम्पन्न लोग नाव में बैठकर सीधे पुल तक पहुँचते थे जो कि उन दिनों अच्छी-खासी सैरगाह बन जाता था। बाढ़ के दिनों में पुल के ऊपरी हिस्से के चायघर में बैठकर चाय-पानी एक खास बात समझी जाती थी और इसका प्रमाण रखने के लिये लोग-या कभी-कभी प्रेमीयुगल अपने साहस-कर्म की स्मृति बनाये रखने के लिए-वहीं के फोटो भी खिंचवाते थे।

फोटोग्राफर की दुकान में अधिक संख्या ऐसे ही चित्रों की थी जिनमें गलबहियाँ डाले या चाय का प्याला अथवा सिगरेट हाथ में लिये हुए लोग पानी से घिरे हुए बैठे या खड़े हैं।
लेकिन उस साल एकाएक सब बदल गया। पहली बाढ़ में ही पानी इतना चढ़ आया कि नावें रस्सियाँ तुड़ाकर बह गयीं। पुल से आने-जाने का रास्ता भी बन्द हो गया और शहर की नावें बह जाने के कारण वहाँ से लोगों का आना भी असम्भव हो गया। सैलानी कोई नहीं आये। बल्कि बहते हुए जानवर या जानवरों की लाशें दुर्गन्ध की एक लकीर-सी खींचती हुई पुल के नीचे से निकल गयीं।

फिर भूचाल के साथ आनेवाली दूसरी बाढ़ में और भी दुर्घटना यह हुई कि सारे पुल की नींव हिल गयी। दोनों सिरे तो टूटकर बह ही गये, बीच का जो सबसे ऊँचा खंड बचा उसके खम्भे भी दरक गये और कुछ तो अपनी जगह से थोड़ा हट भी गये। कब तीव्र धारा का थप्पड़ उन्हें थोड़ा और सरकाकर, या अपनी रगड़ से सहारा देनेवाले निचले हिस्से को काटकर, अधर में टँगे हुए धनु-खंड को भी बहा ले जाएगा इसका कोई ठिकाना नहीं रहा। चारों ओर घहराता हुआ दुद्र्धर्ष अथाह पानी, आक्षितिज केवल पानी। बाग के बड़े-बड़े पेड़ भी अब उस पानी पर छाया नहीं डाल रहे थे, बल्कि उनके ऊपरी हिस्से स्वयं पानी की सतह पर छाया-से दीख रहे थे। कुछ तो उखडक़र बह भी गये थे। थोड़ी देर के लिये शायद एक-आध की जड़ें पुल के डूबे हुए छोर के साथ अटकी होंगी, लेकिन उसके बाद गँदले पानी और झाग का एक भँवर अपने पीछे खींचते हुए वे पेड़ आगे बह गये थे। और इस घरघराहट और टूटन और प्रलयंकर विनाश के बीच में बेतुका-सा खड़ा रह गया था तीन खम्भों पर टँगा हुआ पुल का बीच का हिस्सा और उसके ऊपर की तीन-चार दुकानें और उनमें बसे हुए तीन-चार लोग।

सेल्मा डॉलबर्ग ने एक बार दुकान में से निकलकर पुल की मुँडेर तक आकर पानी की ओर देखा, और फिर आकाश की ओर, और फिर दुकान के अलग हिस्से में बने हुए काँच मढ़े बरामदे में जाकर ऊँचे मूढ़े पर बैठकर अनदेखती आँखों में मेजों और कुरसियों के सूनेपन को ताकने लगी। चायघर में अकेली वह, पास की फोटो की दुकान में फोटोग्राफर, और दूसरे पास सूवेनिर रूमालों, खिलौना-आकार के चाय के प्यालों, और पुल की प्रतिकृतियों की दुकानों में यान एकेलोफ-प्रलय की मटमैली धारा के ऊपर टँगी हुई पुल-रूपी दुनिया में यही तीन प्राणी रह गये थे, हजरत नूह की नाव मानो मस्तूल टूट जाने के बाद भटकती हुई कहीं अटक गयी थी और अटककर अर्थहीन हो गयी थी; और अर्थहीनता से थर-थर काँपते हुए तीनों प्राणी उससे चिपके हुए साँस गिन रहे थे। नूह के बचाये हुए जानवरों से किसी बात में कम नहीं थे ये तीनों जानवर। क्योंकि जानवर ही थे वे-या कम-से-कम चायघर के बरामदे में बैठी हुई सेल्मा डॉलबर्ग की अनदेखती आँखों को ऐसा ही लग रहा था।

थोड़ी देर बाद उठकर उसने अपने खाने के लिये कुछ बनाना शुरू किया तो बाहर से यान एकेलोफ की आवाज आयी :
‘‘खाने को कुछ है?’’
सेल्मा ने एक बार सिर से पैर तक यान को देखकर कहा, ‘ईंधन की तो बहुत कमी है। कुछ बनाने में दुगुने दाम लगेंगे।’
यान थोड़ी देर एकटक उसकी ओर देखता रहा। फिर बोला, ‘स्टोव तो मेरे पास है। अगर दुकान से कुछ कच्ची चीज़ भी मिल जाए-थोड़ा आटा या सूखा गोश्त ही मिल जाए तो भी काम चला लूँगा।’
‘‘कितना क्या चाहिए?’’
सामान लेने के लिये मुड़ते हुए सेल्मा ने कहा, ‘दाम तो तुरन्त दे दोगे न?’
यान ने थोड़े अचम्भे से कहा, ‘आँ-हाँ’ फिर थोड़ा रुककर बोला, ‘मैं कभी हिसाब बेबाक किए बिना भागा न होऊँ ऐसा तो नहीं कह सकता, लेकिन इस वक्त तो तुम्हें इसका डर नहीं होना चाहिए!’

थोड़ी देर बार सेल्मा ने एक बड़ा लिफाफा यान की ओर बढ़ाते हुए दाम बताये तो यान चौंक पड़ा। उसे लगा कि शायद सुनने में भूल हुई है। लेकिन जब सेल्मा ने अपनी बात दोहरायी तब उसने चुपचाप पैसे निकालकर दे दिये और लिफाफा उठाकर चला गया। उसे याद नहीं था कि जीवन में पहले कभी वह बिना ‘थैंक्स’ कहे यों सौदा उठा ले गया है।

उस दिन फिर वह नहीं आया। सेल्मा ने इसकी सम्भावना की थी कि वह फिर आएगा, क्योंकि जो सौदा वह ले गया था वह अगले दिन तक के लिये काफ़ी नहीं था। एक बार उसे फोटोग्राफर का भी ध्यान आया था। लेकिन वह उसकी ओर नहीं आया। वह यान की अपेक्षा अधिक सम्पन्न भी था। असम्भव नहीं कि उसके यहाँ खाने-पीने का कुछ सामान हो। सेल्मा ने धीरे-धीरे सब परदे खींच दिये और भीतर कहीं खो गयी।

लेकिन दूसरे दिन सवेरे ही फोटोग्राफर ने आकर जानना चाहा कि सेल्मा के यहाँ से पीने का पानी मिल सकता है या नहीं।

सेल्मा ने विस्मय दिखाते हुए कहा, ‘पानी? मैं तो समझती थी कि तुम्हारे यहाँ साफ पानी बराबर रहता होगा-फोटोग्राफर का काम उसके बिना कैसे चल सकता है?’

मालूम हुआ कि पुल के काँपने से दवा की कुछ शीशियाँ पानी के ड्रम में गिरकर टूट गयी थीं और सारा संचित पानी दूषित हो गया था।

सेल्मा ने मानो मन-ही-मन परिस्थिति का मूल्य आँकते हुए कहा, ‘पानी मेरे पास शायद चाय बनाने लायक भर होगा। मैंने अभी चाय भी नहीं बनायी है, कहो तो वही पानी तुम्हें दे दूँ। या कि यहीं एक प्याला चाय पी लो।’

फोटोग्राफर ने कहा, ‘‘नहीं, तब तुम्हें तकलीफ नहीं दूँगा। चाय तो नदी के पानी में भी बन सकती है-एक बार उबल जाए तो कोई डर तो नहीं रहेगा।’’ और लौट गया।

समय नापने के कई तरीके हैं। एक घड़ी का है, जो शायद सबसे घटिया तरीका है। क्योंकि उसका अनुभव से कम-से-कम सम्बन्ध है। दूसरा तरीका दिन और रात का, सूर्योदय और सूर्यास्त का, प्रकाश और अँधेरे का और इनसे बँधी हुई अपनी भूख-प्यास, निद्रा-स्फूर्ति का है। यह यन्त्र के समय को नहीं, अनुभव के समय को नापने का तरीका है; इसलिये कुछ अधिक सच्चा और यथार्थ है।

फिर एक तरीका है, घरघराते हुए पानी में बहते हुए भँवरों को गिनकर और उनके ताल पर बहती हुई साँसों को गिनकर समय को नापने का तरीका। यह और भी गहरे अनुभव का तरीका है, क्योंकि यह समय के अनुभव को जीवन के अनुभव के निकटतर लाता है। समय और समयमुक्त, काल और काल-निरपेक्ष, अनित्य और सनातन की सीमा-रेखा और क्या है-सिवा हमारी साँसों के और साँसों की चेतना में होनेवाले जीवन-बोध के। साँस में ही जीवन-बोध हो, ऐसा नहीं : क्योंकि साँस लेना तो अनवधान अवस्था की क्रिया है। साँस की बाधा ही जीवन बोध है क्योंकि उसी में हमारा चित्त पहचानता है कि कितनी व्यग्र ललक से हम जीवन को चिपट रहे हैं। इस प्रकार डर ही समय की चरम माप है-प्राणों का डर...
क्या सेल्मा अकेले ही इस मापदंड से समय को नापती रही है? क्या यान और फोटोग्राफर भी उसी नदी-प्रवाह से घिरे हुए उन्हीं भँवरों की ओर नहीं देख रहे हैं? क्या उसके पास कोई दूसरा माप है? नदी का प्रवाह और काल का प्रवाह पर्याय है; क्योंकि दोनों की पहचान डर की पहचान है। प्राणों के डर की...

यान, फोटोग्राफर और सेल्मा के बीच एक दीवार-सी खिंच गयी। कम से कम उन दोनों और सेल्मा के बीच तो खिंच ही गयी; क्योंकि सेल्मा कभी-कभी खिडक़ी के काँच में से झाँककर देखती कि वे दोनों कुछ बातें कर रहे हैं, या कभी-कभी इशारों से एक-दूसरे को कुछ कह रहे हैं। दोनों ने इस बीच शायद दो-चार बार एक साथ चाय बनाकर भी पी, ऐसा उनकी हरकतों से सेल्मा ने अनुमान लगा लिया।

चौथे दिन यान फिर उसके पास कुछ खरीदने आया। यान को सामने पाकर उसे एकाएक लगा कि वह दीवार और भी ठोस हो गयी है, और उसका मन यान के प्रति एकाएक कठोर हो आया। सहानुभूति उन सबकी परिस्थिति में अकल्पनीय हो, ऐसा उसे अब तक नहीं लगा था-इस बारे में कुछ सोचने की आवश्यकता ही उसे नहीं हुई थी। लेकिन जिस ढंग से यान से बात हुई-यानी यान ने जैसे बात शुरू की-उससे सेल्मा को एकाएक ऐसा लगा कि दुनिया का मतलब और कुछ नहीं है सिवा इसके कि एक वह है, और बाकी ऐसा सब है जो कि वह नहीं है, और जिसके साथ उसका केवल विरोध का सम्बन्ध है। यह विरोध ही एकमात्र ध्रुवता है जिसे उसे कसकर पकड़े रहना है, जिसे पकड़े रहने के अपने सामथ्र्य को उसे हर साधन से बढ़ाना है।

यान ने जेब में से पैसे निकाले और फिर कहा, ‘‘यह तो काफ़ी नहीं है, मैं उधर से और ले आता हूँ-तब तक तुम सामान निकालकर रखो।’’

सामान यानी थोड़ा-सा सूखा गोश्त, और डिब्बे का दूध। जब तक सेल्मा भीतर से यह निकालकर लायी तब तक यान दुबारा लौट आया था। उसने पैसे चुकाये और सामान लेकर चला आया।

दीवार फिर पहले-सी खड़ी हो गयी। ठोस पर पारदर्शी दीवार, जिसमें से सेल्मा टूटे पुल की बाकी दुनिया की हरकतें देखती रही।

तीसरे पहर उधर वे दोनों फिर मिले। शायद उन्होंने चाय बनायी। और शायद चाय स्टोव पर नहीं बनायी गयी, लेकिन यान ने अपने कुछ खिलौने जलाकर आग तैयार की। और शायद अच्छी नहीं बनी, क्योंकि उसको पीनेवाले दोनों के चेहरे विकृत दीखे।

अगले दिन उसी काँच की दीवार के पार से फोटोग्राफर का चेहरा देखकर सेल्मा को एकाएक लगा कि दुबारा देखना ज़रूरी है। दुबारा देखने पर उसने जाना कि वह चेहरा बिलकुल पीला पड़ गया है। फोटोग्राफर ने टीन का डिब्बा लटकाकर नदी का पानी पिया और अपनी दुकान के भीतर लौट गया। थोड़ी देर बाद वह फिर उसी तरह निकला और एक डिब्बा पानी भरकर लौट गया; और सेल्मा को लगा कि इस बीच वह थोड़ा और पीला हो गया है।

तीसरे पहर उसने देखा कि यान भी फोटोग्राफर की तरफ़ चला गया है और उसे रह-रहकर पानी पिला रहा है। फोटोग्राफर पानी पीकर दुकान के भीतर कहीं अदृश्य हो जाता है लेकिन थोड़ी देर बाद ही फिर घिसटता हुआ आ जाता है।

ये तो लक्षण अच्छे नहीं हैं। फोटोग्राफर शायद बीमार है। लेकिन बीमार है तो सेल्मा क्या कर सकती है? और जब वह देखती है कि यान ऐसी अनदेखती-अनपहचानती आँखों से उसके बरामदे की ओर देखता है और फिर मुँह फेर लेता है, तब उसे लगता कि न केवल वह कुछ कर नहीं सकती या करना चाहती भी नहीं, बल्कि अगर वह सकती या चाहती ही तो भी उस दूसरी दुनिया तक उसका पहँुचना न होता जिसमें वे दोनों हैं। वे दोनों हैं ही नहीं, एक भयानक दु:स्वप्न के अंग हैं; और दु:स्वप्न में देखे हुए लोगों तक जीते-जागते कोई कैसे पहुँच सकता है?

रात हो गयी। अँधेरे में नदी की ओर काल की घरघराहट कहीं बाहर हो गयी, और सेल्मा ने सब परदे खींचकर अपने को मानो अपनी ही ओट कर लिया। उसमें और इस बाहर में एक मौलिक विरोध है जिसे पकड़े रहना है; वही धु्रव है और उसे पकड़े रहने का सामथ्र्य ही जीवन...

कभी न कभी यह बाढ़ उतरेगी ही, और तब वह टुटहा पुल शायद एक अतिरिक्त आकर्षण पा लेगा। सैलानी पुल पर हमेशा आते रहे, टूटे हुए पुल पर और भी अधिक आएँगे, क्योंकि अब तो वह एक कौतुक की चीज़ हो जाएगा। और उसका चायघर का कारोबार और भी चमक उठेगा। यों भी मुनाफा होता ही रहा है। कहावत है कि कोई भी दुर्भाग्य ऐसा नहीं होता जिसमें किसी-न-किसी का लाभ भी न हो...

लेकिन घनी रात में कहीं वह एकाएक हड़बड़ाकर जागी और उठ बैठी। आँखों की और शिराओं की कसक कह रही थी कि अभी घोर रात है। लेकिन परदों की ओट से भी अंगारे-सा लाल उजाला मानो उसके अनुभव का खंडन कर रहा था। जल्दी से एक चादर कन्धों पर डालकर वह बरामदे तक आयी, परदा हटाकर उसने बाहर झाँका और झाँकती रह गयी।

फोटोग्राफर की दुकान धू-धू जल रही थी।

इससे पहले कि सेल्मा कुछ सोच भी सके कि उसे क्या करना चाहिए, उसने देखा कि फोटोग्राफर दुकान की ओट से निकलकर सामने की ओर आया और कमर पर हाथ टेककर आगे की ओर देखने लगा। फिर एकाएक वह ठोढ़ी उठाकर हँसा-सेल्मा हँसी सुन नहीं सकी, पर जो उन्मत्त अमानुषी भाव फोटोग्राफर के चेहरे पर झलक आया था और जिस ढंग से उसका जीर्ण देहपिंजर हिल उठा था, उससे यह अनुमान कठिन नहीं था कि वह हँस रहा है। यद्यपि उस अमानुषी विस्फोट को हँसी कहना भाषा के चयन के साथ अत्याचार करना ही है।

सेल्मा का जडि़त मोह एकाएक टूट गया। उसने झटके से दरवाजा खोला और बाहर बढऩे को ही थी कि फिर एक बार ठिठक गयी। उस पार यान भी बाहर निकल आया था और फोटोग्राफर की ओर लपक रहा था। एकाएक फोटोग्राफर जोर से चीखा और धारा में कूद पड़ा। वह चीख सेल्मा सुन सकी। वह एकाएक प्रवाह के कारण कट गयी, लेकिन जिस ढंग से कटी उससे यह सन्देह बना ही रह गया कि वह चीख एक पागल हँसी थी-एक पागल अट्टहास का आरम्भ जो कि चीख के साथ छोटे-छोटे विस्फोटों में बँट जाता है-या कि पानी ने ही एकाएक साँस तोडक़र दो-तीन बुलबुलों में बाँट दिया था।

सेल्मा की टाँगें लडख़ड़ाने लगीं और वह बरामदे की सीढ़ी पर बैठ गयी। टाँगें न लडख़ड़ायी होतीं तो भी वह आगे बढ़ सकती थी यह नहीं कहा जा सकता था। यान धीरे-धीरे बढ़ रहा था, जहाँ से फोटोग्राफर कूदा था वहाँ पहुँचकर वह खड़ा होकर एकटक पानी को ताकता रहा। कुछ करने को नहीं था। फोटोग्राफर पुल के नीचे से होकर न जाने कितनी दूर चला गया होगा। हाँ, सचमुच न जाने कहाँ चला गया होगा! क्योंकि अब यह भी कहना शायद झूठ होगा कि वह बाढ़ में बह रहा होगा-बाढ़ भी उसके लिए उतनी सारहीन और सत्त्वहीन हो गयी होगी जितनी कि उसकी अपनी देह...

काफ़ी देर बाद यान ने एक बार मुडक़र सेल्मा के बरामदे की ओर देखा। देख लिया कि वह सीढ़ी पर बैठी है, और फिर मुँह फेर लिया। फिर धीरे-धीरे अपनी दुकान की ओर बढऩे लगा, लेकिन चार-छह कदम जाकर फिर मुडक़र फोटोग्राफर की दुकान के पास ही बैठ गया। और चुपचाप उसके जलने को देखने लगा। उस दुकान के जलने से किसी को कोई खतरा नहीं था, और अगर सेल्मा का अनुभव ठीक है कि गँदला पानी पीकर, पेचिश से ही फोटोग्राफर मरा-नहीं, मरा तो पानी में कूदकर, लेकिन उन्माद शायद उसी कारण हुआ-तो फिर दुकान का जल जाना एक तरह से ठीक ही है।

एकाएक सेल्मा को लगा कि यह बात उसके मुँह से निकलने ही वाली है। उसने होंठ काट लिये।

शायद यान को भी ठीक उसी समय लगा कि सेल्मा कुछ कहनेवाली है। क्योंकि उसने मुडक़र दृष्टि से क्षण-भर उसकी ओर देखा। फिर मानो निश्चयात्मक भाव से गरदन मोडक़र पीठ सेल्मा की ओर कर ली। सेल्मा ने उठकर बड़े धड़ाके से दरवाजा बन्द किया और झटके से परदा खींचकर भीतर चली गयी। अपने चायघर के भीतर, अपने ही भीतर, जहाँ न डूबता हुआ फोटोग्राफर है, न घृणा करता हुआ यान। जहाँ आत्म-विश्वास है और सुरक्षा है और भविष्य की अनुकूलता है। यह नहीं कि डर बिलकुल नहीं है लेकिन उस डर की बात अभी सोचना ज़रूरी नहीं है। वह डर निरी देह का है, और देह का डर झुठलाया जा सकता है-तब तक जब तक कि वह भीतर नहीं पहुँचता। देह तो हमेशा ही अकेली है, और उसके लिये अकेलेपन का अलग से कोई मतलब नहीं है। और उसके भीतर जो है वह कभी भी अकेला नहीं है, क्योंकि वह तो समूचे का है। केवल जब वह भीतरवाला समूचे का नहीं रहता और अकेला अनुभव करता है-या जब देह अकेली नहीं रहती, समूह का खंड हो जाती है-तभी वह डर होता है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता, जो छाती पर चढ़ बैठता है और मानो फेफड़ों में पंजा डालकर खंखोड़-खंखोडक़र साँस बाहर निकालता रहता है।

सेल्मा सोयी नहीं। वह अंगारे-सी लाल दहकती हुई रोशनी धीरे-धीरे काली पड़ी और फिर एक दूसरी तरह की पीली रोशनी में बदल गयी; फिर कमरे के भीतर भी सब आकार स्पष्ट हो आये और दिन हो गया।

सेल्मा ने मुँह-हाथ धोया, अँगड़ाई लेकर अपने को बोध कराया कि उसका अंग-अंग दुखता होने पर भी शरीर अभी उसी का है और उसके वश में है। फिर उसने बहुत गहरी चाय बनाकर बिना दूध-चीनी के ही पी डाली। उसकी कडुवाहट से भी जब तसल्ली नहीं मिली तो भीगी पत्तियाँ भी प्याले में उँड़ेलकर उन्हें मुँह में भर लिया और मुँह के अन्दर इधर-उधर घुमाती रही। थोड़ी देर बाद वह घूँट उसने थूक दिया और गालों के अन्दर जीभ फेरकर मानो अपने मुँह के कसैलेपन का स्वाद लेने लगी।

फिर आकर उसने बरामदे के परदे उठाकर एक खिडक़ी खोली। दूसरी खिड़कियाँ या दरवाजे भी खोले, इसकी जरूरत उसे नहीं जान पड़ी, बल्कि अवचेतन रूप से शायद उसे यही ज़रूरी जान पड़ा कि दरवाजा न खोले।

यान को वह देखे ऐसा कोई कौतूहल उसके मन में नहीं था। शायद यह कहना अधिक सच होगा कि यान उसे देखे यही वह नहीं चाहती थी और उसे अपनी ओर देखते हुए पासे यह तो कदापि नहीं।

लेकिन उनकी आशंका निर्मूल थी। यान उधर नहीं देख रहा था। वह बाहर ही था, उसी जगह पर था, जहाँ उसे बैठा हुआ देखकर सेल्मा रात में भीतर गयी थी, और उसकी पीठ उसी तरह सेल्मा की ओर थी।

लेकिन यह नहीं था कि यह रात भर वहीं वैसा ही बैठा रहा हो। वह शायद थोड़ी देर पहले ही वहाँ आकर बैठा था। सेल्मा ने बिना आहट किये एक चौकी खिडक़ी के पास रखी और उस पर बैठकर परदे की ओट से यान को देखने लगी।

थोड़ी देर बाद यान उठा और जल चुके घर के अंगारों की ओर बढक़र झुका। सेल्मा ने देखा कि उन अंगारों पर एक टीन में कुछ पक रहा है। यान ने टीन के डिब्बे को हिलाया और फिर पहले-सा बैठ गया।

तो उस जले हुए घर की राख पर यान कुछ पका रहा है। एकाएक दुकान के जलने का रात में देखा हुआ दृश्य सेल्मा की आँखें के सामने साकार हो गया। मानो फोटोग्राफर की यह उन्मत्त मुद्रा उसने फिर देखी, यह पागल चीख फिर सुनी; और फिर पानी की बुड़बुड़ाहट और फिर वह एक स्वर घरघराहट, जिससे घिरे हुए उसे न जाने कितने दिन हो गये थे। एकाएक उसे उबकाई आने लगी। उसने परदा खींचकर दृश्य को अपनी आँखों के आगे से हटा दिया और वहाँ से उठ गयी। लेकिन दृश्य उसकी आँखों के आगे थोड़े ही था जो परदा खींचने से हट जाता! वह जिधर मुड़ी उधर भी वही दृश्य था-क्योंकि वह उसकी आँखों के सामने नहीं, आँखों के भीतर था। उसकी उबकाई ने एकाएक मतली का रूप ले लिया और वह बेचैन-सी भीतर दौड़ गयी।

दिन छिपनेवाला था कि बरामदे की सीढ़ी पर सेल्मा ने आहट सुनी। तो यान आया है। दरवाजा उसने नहीं खोला, खिडक़ी तक आकर प्रश्न की मुद्रा में खड़ी हो गयी।
यान ने बिना उसकी ओर देखते हुए और बिना भूमिका के पूछा, ‘‘गोश्त है?’’
सेल्मा एकाएक तिलमिला गयी, और अपने को वश में करते हुए बोली, ‘‘हाँ, है। दाम ले आओ।’’
यान ने और भी संक्षिप्त भाव से कहा, ‘‘हैं।’’
सेल्मा ने भीतर से लाकर एक हत्थेवाले तश्त में रखा हुआ गोश्त यान की ओर बढ़ा।
यान ने पूछा, ‘‘कितने?’’
सेल्मा ने दाम बताते हुए कहा, ‘‘इसी में रख दो।’’
सेल्मा ने एक हाथ से गोश्त उठा लिया था और दूसरा जेब में डाला था। सेल्मा की बात सुनकर एकाएक उसने आँखें उठाकर सेल्मा के चेहरे की ओर देखा और फिर पूछा, ‘‘कितने?’’
सेल्मा ने रुखाई से कहा, ‘‘सुना नहीं?’’
यान ने हाथ जेब में से निकाला। उसकी मुट्ठी बँधी हुई थी। मुट्ठी भर सिक्के थे। एकाएक उसने मुट्ठी उठाकर सिक्के बड़ी जोर से सेल्मा के मुँह पर दे मारे। बोला, ‘‘शायद कुछ कम हैं। लेकिन तुम चाहो तो गोश्त में से उतना कम करके दे सकती हो। पैसे मेरे पास और नहीं हैं।’’और कहते-कहते उसने दूसरे हाथ का सामान वापस सेल्मा की ओर बढ़ा दिया।
सेल्मा की आँखें एकाएक अवश भाव से बन्द हो गयी थीं। सारा इच्छा-बल लगाकर उसने आँखें खोली और दर्द को दबाते हुए हाथ बढ़ाकर सामान ले लिया एक बार उसका मन हुआ था कि बाकी के पैसे छोड़ दे। लेकिन इस तरह वह नहीं छोड़ेगी, कभी नहीं छोड़ेगी! विरोध-एकमात्र ध्रुव-जीवन का सहारा...
उसने सिक्के बीनकर इकट्ठे किये, भीतर गयी और गोश्त लगभग आधा करके ले आयी। बिना कुछ कहे उसने तश्त फिर यान की ओर बढ़ाया। यान ने गोश्त उठाया और मुड़ गया। क्षण-भर बाद सेल्मा ने खिडक़ी जोर से बन्द कर दी और तब हाथ से टटोलकर अपना चेहरा देखने लगी कि कहाँ-कहाँ सूजा है। एक चौड़ी लाल लकीर उसकी हथेली पर छप आयी।
हार वह नहीं मानेगी, कभी नहीं मानेगी। अपमान से तो और भी नहीं! और यान कौन होता है उसका अपमान करनेवाला, या उस पर क्रोध करनेवाला? मुनाफा वह करती है, मुनाफा सब करते हैं। यान क्या सूवेनिर के नाम पर तरह-तरह का निरर्थक कूड़ा बेचकर मुनाफा नहीं करता? दाम कम या ज्यादा हों यह माँग पर निर्भर है। तबीयत पर निर्भर है। सैलानी लोग सिर्फ शौक के कारण मुँह-माँगे दाम देकर तरह-तरह की फिजूल चीज़ें खरीद लेते हैं। सभी जानते हैं कि दाम चीज़ का नहीं शौक़ का है; तो इससे क्या वह व्यापार अनैतिक हो जाता है? दाम माँग का है, माँग विरोध की स्थिति उत्पन्न होती है, विरोध ध्रुव है और उसे पकड़े ही रहना है...

जरूरत भी शौक का दूसरा नाम है। दोनों ही माँगें हैं। अलग-अलग तरह की सही। शौक पर मुनाफा-जरूरत पर मुनाफा हाँ, फ़र्क़ तो है शौक के साथ लाचारी नहीं है जबकि जरूरत के साथ विकल्प नहीं है।

लेकिन विकल्प क्या सचमुच नहीं है? और जोखिम क्या मैं नहीं उठा रही हूँ यहाँ रहकर? क्या मेरी जरूरत का सवाल नहीं है-और क्या मैं कम लाचार हूँ।

फोटोग्राफर पागल होकर मर गया तो मैं क्या कर सकती हूँ? मैं भी पागल नहीं हो गयी, इसीलिए क्या मैं अपराधी हूँ...

सेल्मा के पास तर्क की कमी नहीं थी। लेकिन कुछ था जो कि उसे कोस रहा था। वह भीतर जाकर बैठी थी; फिर बरामदे में आ गयी और चौंकियाँ इधर-उधर ठेल-ठालकर, सीधा रास्ता बनाकर तेजी से लौट-लौटकर बरामदे की लम्बाई नापने लगी। कब रात कितनी घनी हो गयी उसे कुछ पता नहीं लगा, और काल का प्रवाह ही नहीं, मानो नदी का प्रवाह भी कहीं पीछे रह गया। केवल बरामदे में उसके अपने पैरों की आहट ही उसकी एकमात्र साथिन रह गयी।
कि सहसा वह बड़े जोर से चौंकी। दरवाजा खटखटाया जा रहा था।

क्या करने आया है यान रात में? सेल्मा का दिल एकाएक जोर से धडक़ने लगा और वह एक कुर्सी का हत्था पकडक़र खड़ी हो गयी।

दरवाजा फिर खटखटाया गया। अबकी बार जोर से।

सेल्मा भीतर गयी। एक नजर चारों ओर दौड़ाकर उसने अँगीठी के पास रखी हुई लोहे की सलाख उठायी और फिर बरामदे में आ गयी।

दरवाजा तीसरी बार खटखटाया गया। सेल्मा की पकड़ सलाख पर और कड़ी हो आयी। उसे पीठ की ओट करते हुए उसने बाएँ हाथ से खिडक़ी की सिटकनी खोली और पूछा, ‘‘क्या है?’’
यान ने कहा, ‘‘दरवाजा खोलो।’’

‘‘क्या काम है-इतनी देर रात को?’’
यान ने मानो कुछ चौंकते हुए फिर कहा, ‘‘दरवाजा खोलो सेल्मा।’’ फिर थोड़ी देर रुककर कहा, ‘‘सेल्मा, मैं माफी चाहता हूँ। गुस्से से मैं अवश हो गया था उसके लिये मैं शर्मिन्दा हूँ। मैंने सोचकर देखा है कि तुम्हारा दोष नहीं है।’’

सेल्मा थोड़ी देर असमंजस में रही। क्या यह दरवाजा खुलवाने का ही ढोंग है? लेकिन फिर मुट्ठी में पकड़ी हुई लोहे की छड़ से उसके लडख़ड़ाते हुए आत्मविश्वास को टेक मिल गयी और उसने दरवाजा खोल दिया।

यान ने भीतर आकर कहा, ‘‘तुमने मेरी जान लेनी चाही है लेकिन सकी नहीं-सकती नहीं। मैं चाहूँ तो तुम्हारी जान ले सकता हूँ, लेकिन मैं चाहता नहीं हूँ।’’

थोड़ी देर दोनों चुप रहे। सेल्मा का दिल फिर धडक़ने लगा था। लेकिन स्थिति उसकी समझ में नहीं आ रही थी, इसीलिये वह पूरी तरह डर भी नहीं पा रही थी। असमंजस में ही उसने अपने को सँभाल लिया औ वह सतर्क भाव से यान की ओर देखती रही।

यान ने कहा, ‘‘मरेगा तो शायद हम दोनों में से कोई नहीं-तुम्हारी हरकत के बावजूद अभी तो नहीं लगता कि मैं मरनेवाला हूँ। लेकिन अगर सचमुच यह बाढ़ ऐसी ही इतने दिनों तक रही कि मैं भूखा मर जाऊँ, तो तुम बचकर कहाँ जाओगी और अगर पीछे ही मरोगी, तो तुम समझती हो कि वैसे अकेले मरने में कोई बड़ा सुख है? बल्कि अकेली तो तुम अब भी हो, जबकि मैं नहीं हूँ। और शायद मर ही चुकी हो-जबकि मैं अभी जिन्दा हूँ।’’

यह कहकर यान ने आँखें उठाकर भरपूर सेल्मा की ओर देखा। सेल्मा ने चाहा कि उसकी बात का खंडन करे, लेकिन कुछ बोल न सकी-एकाएक हाथ ढीले होने से ही उसे ध्यान आया कि उसकी मुट्ठी में लोहे की सलाख है। उसने धीरे-धीरे एक ओर झुककर उसे दीवार के साथ टेक दिया और फिर सीधी हो गयी। फिर उसने पूरा जोर लगाकर किसी तरह कहा, ‘‘तुम तो माफ़ी माँगने आये थे-यह क्या नए सिरे से अपमान नहीं कर रहे हो?’’

यान ने कहा, ‘‘तुम माफी दे कैसे सकोगी? कोई भी जो अपनी बेचारगी नहीं देखता दूसरे को क्षमा नहीं कर सकता। मैं तो तुम्हारी मदद ही कर रहा हूँ।’’

थोड़ी देर फिर सन्नाटा रहा-तरह-तरह के विचारों और भावनाओं के बोझ से टीसें मारता हुआ सन्नाटा।
फिर सेल्मा ने तनाव को शिथिल करने के लिए कहा, ‘‘यह तुम्हारे हाथ में क्या है?’’
यान बोला, ‘‘यह-ओह!’’
थोड़ी देर ठहरकर फिर उसने साभिप्राय कहा, ‘‘यह लोहे की छड़ तो नहीं है। लेकिन यही देने तो मैं यहाँ आया था, गोश्त मैंने पकाया है।’’
सेल्मा ने अचकचाकर कहा, ‘‘तो मुझे क्या? जाओ खाओ।’’ फिर मानो थोड़ा पसीजकर उसने जोड़ा, ‘‘तुमने काफ़ी दाम देकर खरीदा है।’’
‘‘इसीलिये साझा करने आया हूँ। अपनी अन्तिम पूँजी देकर यह अन्तिम भोजन मैंने खरीदा है। इसे अकेला नहीं खा सकूँगा।’’

यान थोड़ी देर चुप रहा। ‘‘और इसे पकाना भी कुछ आसान नहीं था-फोटोग्राफर की जली हुई दुकान की आँच पर ही यह पका है। इसे जरूर ही बहुत स्वादु होना चाहिए-मेरे जीवन के मोल यह खरीदा गया और फोटोग्राफर के जीवन के मोल पक सका। लो...’’

कहते-कहते उसने हाथ का दस्तेदार टीन सेल्मा के सामने चौकी पर रख दिया। तब सेल्मा को न जाने क्या हुआ कि वह यान को दुतकार कर बाहर निकाल देने के लिये आगे बढ़ी तो उसके कन्धे पर हाथ रखकर उसने जब कहा, ‘‘यान तुम मेरे सामने से चले जाओ!’’ तब उसके स्वर में दुतकार जरा भी नहीं थी! न जाने क्यों वह खुद स्तम्भित हो गयी! ऐसी स्तम्भित कि उसका हाथ यान के कन्धे पर धरा ही रहा गया।

और यान ने कहा, ‘‘नहीं, यह अकेले तुम्हीं को नहीं दिये दे रहा हूँ, आधा ही तुम्हें दूँगा-क्योंकि अपमान करने नहीं आया, साझा करने ही आया हूँ। अपने हिस्सा निकाल लो और बाकी मुझे दे दो। मैं उधर जाकर खाऊँगा।’’

सेल्मा का हाथ धीरे-धीरे यान के कन्धे से फिसलता हुआ गिर गया। यान की ओर देखते-देखते ही उसने दूसरे हाथ से कुर्सी टटोली और एक कदम पीछे हटकर उस पर बैठ गयी। ‘‘नहीं यान, तुम अकेले ही खाओगे। नहीं तो पहले मुझे इसके दाम लौटा देने होंगे।’’
धीरे-धीरे एक बहुत सूक्ष्म व्यंग्यपूर्ण मुस्कान यान के चेहरे में झलक गयी। थोड़ा रुककर उसने कहा, ‘‘ओह!’’

सेल्मा आविष्ट-सी उठ खड़ी हुई। उस ‘ओह’ के व्यंग्य के तीखेपन ने एकाएक उसे फिर गहरे विद्रोह-भाव से भर दिया और उसी के बल से उसकी क्षण भर पहले की दुर्बलता दूर हो गयी।
लेकिन एकाएक उसने कहा, ‘‘यान, तुम मुझसे विवाह करोगे?’’

यान ने मानो चौंककर उसकी ओर ऐसे देखा जैसा कि उसने ठीक सुना नहीं। फिर जान लिया कि ठीक ही सुना है।

सेल्मा स्वयं भी ऐसे चौंकी मानो वह समझ नहीं सकी हो कि उसके मुँह से क्या निकल गया है। लेकिन फिर उसने भी पहचान लिया कि उसके मुख से वही निकला है जो कि उसने कहा है।

सन्नाटे में वह अनुत्तरित प्रश्न ही गूँजता रहा और पत्थर-सा जम गया। स्वयं ही नहीं जम गया बल्कि उन दोनों को भी उसने ऐसे कीलित कर दिया कि जब तक उत्तर देकर उसके जादू को काटा नहीं जाएगा तब तक कोई हिल नहीं सकेगा।

देर बाद यान ने कहा, ‘‘तुमसे विवाह? यानी तुम्हारी इस सब सड़ती हुई पाप की कमाई से विवाह? नहीं, मुझे नहीं चाहिए। तुम मेरे अन्तिम भोजन का अपना हिस्सा लो और मुझे छुट्टी दो।’’ क्षण-भर रुककर फिर उसने कहा, ‘‘या कि हिस्सा भी न लो, सारा तुम्हीं रख लो’’ और वह मुड़ा और फिर चला गया।

सेल्मा देर तक बैठी उस टीन को देखती रही। उस देखने-देखने में उसने दो-तीन जीवन जिये और मरे। मानो कोई दूसरा होकर दो-तीन बार वह जियी और मरी, और फिर मानो अपने आपमें लौट आयी, परायी और अनपहचानी होकर। और एक बार उसने कुछ ऐसे ही भाव से अपने हाथ-पैरों और अपने घुटनों की ओर देखा भी-मानो पूछ रही हो कि क्या ये उसी के हैं-कि क्या वह है?

हवा के झोंके से किवाड़ झूला और बन्द होकर फिर खुल गया। सेल्मा खिडक़ी बन्द करने के लिए उठी। खिडक़ी बन्द करके दरवाजा भी बन्द करने लगी; पर फिर दोनों दरवाजे उसने पूरे खोल दिये। बरामदे से लौटकर भीतर गयी। एक कागज़ पर उसने धीरे-धीरे यत्नपूर्वक सँवारकर कुछ लिखा और उसे तह करके जेब में डाला, फिर अलमारी में से खाने को कुछ और सामान निकालकर बरामदे में आयी और चौकी पर रखा हुआ टीन भी उठाकर बाहर निकलकर यान की दुकान की ओर बढ़ गयी।

यान दुकान के बाहर ही बैठा था और पानी की ओर देख रहा था। सेल्मा ने सब ची$जें उसके सामने रखते हुए कहा, ‘‘तुम मुझे न्यौता देने आये थे; वह मुझे स्वीकार है। मैं दो तश्तरियाँ भी लायी हूँ-एक में मेरे लिए परोस दो।’’

यान थोड़ी देर उसकी ओर स्थिर दृष्टि से देखता रहा। क्षण-भर सेल्मा को लगा कि वह इनकार कर देनेवाला है। फिर उसने चुपचाप तश्तरी उठायी और टीन में से गोश्त परोसने लगी। फिर उसने कहा, ‘‘यह क्या है?’’

‘‘यह मेरी ओर से भी है-इसका भी साझा होना चाहिए।’’
थोड़ी झिझक के बाद यान ने कहा, ‘‘तो तुम्हीं परोस दो।’’
सेल्मा अभी कुछ डाल ही रही थी उसने टोक दिया। ‘‘बस-बस।’’
सेल्मा ने पूछा, ‘‘यहीं बैठकर खा सकती हूँ?’’
यान ने कुछ अस्पष्ट वक्रभाव से कहा, ‘‘पुल कोई मेरा थोड़े ही है?’’

लेकिन थोड़ी देर बाद सेल्मा को भी लगा कि वह कुछ खा नहीं सकेगी- यान के पास बैठकर किसी तरह नहीं। अपनी तश्तरी उठाकर वह खड़ी हो गयी और बोली, ‘‘मैं उधर ही ले जा रही हूँ, अभी नहीं खा सकूँगी।’’ और यान कुछ कह सके इससे पहले ही जल्दी से जेब से कागज निकालकर उसे यान के पास रखते हुए बोली, ‘‘और यह लो- यह तुम्हारे लिए लायी थी।’’
‘‘यह क्या है?’’
‘‘तुम मुझे न्यौता देने आये थे पर अपमान करके चले आये। मैं अपमान करने नहीं आयी, न करूँगी; पर अभी खा नहीं सकूँगी-किसी तरह नहीं।’’

सेल्मी तेजी से बरामदे की ओर लौटी और तश्तरी चौकी पर रखकर उसने धड़ाके से दरवाजा बन्द कर दिया। तश्तरी उठाकर वह अन्दर गयी और वहाँ जाकर उसने चौकी पर तश्तरी रख दी। एक बार कुर्सी की ओर देखा कि बैठ जाए, लेकिन फिर बैठी नहीं, वहीं अनिश्चित खड़ी रही। क्योंकि एकाएक उसके आगे एक डगमगाता अँधेरा छा गया-भीतर कहीं बहुत गहरे से एक बुलबुला-सा उठकर उसके गले तक आकर फूट गया और वह फफककर रो उठी।

वही अन्त था। और कुछ पूछने को नहीं था। और कुछ बताने को भी नहीं था। जीवन के मोड़ होते हैं जिनके आगे ज़रूरी नहीं है कि रास्ता हो ही, कभी अन्धी गली भी होती है। सवेरा हुआ, शाम हुई, दूसरा दिन हुआ और फिर तीसरा दिन। सेल्मा न बाहर निकली, न उसने बरामदे में से बाहर झाँका, उसने मन-ही-मन यह जिज्ञासा की कि यान क्या कर रहा होगा। या कि आगे क्या होगा। सब कुछ समाप्त हो चुका था; और उसने जान लिया था कि सब कुछ समाप्त हो गया है-स्वीकार कर लिया था कि यही समाप्ति है। यान ने उसका प्रत्याख्यान कर दिया था, और उसने अपनी सारी कमाई का-क्योंकि उस सबकी वसीयत वह यान के नाम लिखकर दे आयी थी। और कहीं कुछ नहीं था! और कही कुछ नहीं था...। कोई जिज्ञासा नहीं थी...। कोई उत्तर नहीं था... कोई ध्रुवता नहीं बची थी क्योंकि कोई विरोध नहीं बचा था। बाहर बाढ़ नहीं थी, और काल का प्रवाह भी नहीं था। केवल एक टूटा हुआ अर्थहीन पुल-कहाँ से कहाँ तक और कब तक! एक टूटा हुआ अर्थहीन पुल जो कि वह स्वयं है-वह, सेल्मा, जो न कहीं से है, न कहीं तक है-जो है तो यह भी नहीं जानती कि कब तक है।

चौथे दिन जब दरवाजा खटखटाया गया तो मानो उसने पहचाना कि वह इसी की प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन यान ने पुकारकर जो कहा उसकी प्रतीक्षा उसे नहीं थी।

‘‘लोग आ रहे हैं दूर एक नाव दीख रही है। बाढ़ उतर गयी है-सेल्मा! बाहर आओ!’’
लेकिन यह मानो समाचार नहीं था। पहले थी। कौन-सी बाढ़ कौन लोग? कहाँ से आ रहे हैं? फिर भी यन्त्रचालित-सी सेल्मा ने बाहर जाकर दरवाजे खोल दिये। और यान के संकेत पर दूर क्षितिज की ओर देखने लगी।

हाँ नाव, बड़ी नाव, काली-सी नाव और उसमें झलकते हुए कई एक काले-काले सिर।
सेल्मा यान के पास ही काफ़ी देर तक खड़ी रही। नाव इतनी पास आ गयी थी कि उसके लोगों ने शायद उन दोनों को देख लिया था। नाव में से दो-तीन आदमी हाथ हिलाकर इशारा कर रहे थे। लेकिन इशारे का उत्तर देने का मानो सेल्मा को ध्यान ही नहीं हुआ; उसका बोध यहीं तक था कि अभी थोड़ी देर में सहायता की टोली उन तक पहुँच जाएगी और उनका उद्धार हो जाएगा-यानी उसका और यान का एक-दूसरे से उद्धार हो जाएगा।

उसने एकाएक यान की ओर मुडक़र कहा, ‘‘यान, अब तो मेरा कुछ नहीं है। अब मैं फिर पूछती हूँ, मुझे स्वीकार करोगे?’’

यान ने एक बार उसकी ओर देखा। फिर जेब में हाथ डाला और सेल्मा का दिया हुआ कागज निकाला, यत्नपूर्वक उसे फाडक़र उसकी चिन्दियाँ कीं और उन्हें हवा में उड़ा दिया। इसके अतिरिक्त और कोई उत्तर उसने सेल्मा को नहीं दिया। फिर वह मानो पूरे एकाग्र मन से हाथ हिलाकर नाववालों के इशारों का जवाब देने लगा।

इससे आगे जो कुछ हुआ वह मानो स्वप्न में हुआ। स्वप्न में ही सेल्मा ने पहचाना कि उसे सहारा देकर नाव में उतारा गया है, कि उसके बाद यान भी उतरा है, कि वे दोनों ही नाव में बैठे हैं, और नाव पुल से हट रही है। स्वप्न में ही उसने देखा कि वह टूटा पुल उनसे दूर हटता हुआ आकाश का अंग बनता जा रहा है-उनके जीवन का अंग नहीं, केवल सूने आकाश का अंग।

पुल को देर तक देखने के बाद उसने सहसा मुडक़र यान की ओर देखा कि यान से आँखें मिलते ही अरराकर उसका स्वप्न टूट गया। सहसा एक अप्रत्याशित स्निग्ध मुस्कान यान के चेहरे पर खिल गयी थी। धूप से भी अधिक खिली हुई, आकाश से भी अधिक गहरी, नदी से भी अधिक द्रव एक मुस्कान, जो केवल उन दोनों के बीच थी... जिसमें कहीं अस्वीकार नहीं था, प्रत्याख्यान नहीं था, विरोध नहीं था-पर ध्रुवता थी, एक अटल स्वीकारी ध्रुवता जैसे अन्तहीन आकाश में बसा हुआ आलोक...

नहीं, अन्त वहाँ पुल पर नहीं था; अन्त यह था जो कि नया आरम्भ था-अन्धी गली वह नहीं थी, मोड़ का कोई सवाल ही नहीं था क्योंकि रास्ता ही नहीं था क्योंकि यह आरम्भ तो खुला आकाश था, जिनमें से एक नया जीवन उपजा-एक नया अनुभव एक नई गृहस्थी, तीन सन्तान, सुख-दुख के साझे का एक जाल जिसमें जीवन की अर्थवत्ता के न जाने कितने पंछी उन्होंने पकड़े...फिर वह दिन आया कि यान नहीं रहा; पर वह अर्थवत्ता नहीं मिटी, पास हुए सारे अर्थ चाहे छिन जाएँ। जीवन सर्वदा ही वह अन्तिम कलेवा है जो जीवन देकर खरीदा गया है और जीवन जलाकर पकाया गया है और जिसका साझा करना ही होगा क्योंकि वह अकेले गले से उतारा ही नहीं जा सकता-अकेले वह भोगे भुगता ही नहीं। जीवन छोड़ ही देना होता है कि वह बना रहे और मर-मरकर मिलता रहे; सब आश्वासन छोड़ देने होते हैं कि ध्रुवता और निश्चय मिले। और इतर सब जिया और मरा जा चुका है, सबकी जड़ में अँधेरा और डर है; यही एक प्रत्यय है जो नए सिरे से जिता जाता है और जब जिया जाता है तब फिर मर नहीं जाता, जो प्रकाश पर टिका है और जिसमें अकेलापन नहीं है...

खिडक़ी के बाहर बर्फ का विस्तार। वैसी ही सफेद अछूती बर्फ, जिसे क्वाँरी बर्फ कहते हैं। क्वाँरा, सफेद सूना, बेजान विस्तार। उस अछूती सफेदी में कुछ ऐसा था जो कि झूठ था, या कि रह-रहकर योके को ही ऐसा भान हो आता था कि वह झूठ है। शायद वह बर्फ के विस्तार का झूठ नहीं था, क्योंकि, उसका सूनापन तो उतना ही नीरन्ध्र सच था जितना कि मृत्यु। शायद वह झूठेपन का बोध सेल्मा को कहानी के प्रति उसके विद्रोह का ही स्थानान्तरित रूप था।

लेकिन सेल्मा की कहानी के प्रति विरोध क्यों? क्या वह मानती है कि वह कहानी झूठ है? नहीं, ऐसा तो वह नहीं कह सकती। शायद कहानी जिस ढंग से कही गयी-टुकड़ों-टुकड़ों में, और बीच-बीच के अन्तरालों में मानो मृत्यु की ठोस काली छाया के विराम-चिह्नों से युक्त-उसी से उसकी सच्चाई का बोध कुछ खंडित हो गया। कहानी में कुछ ऐसा सम्पूर्ण और अखंड और अबाध्य रूप से एक दिशा में बढऩेवाला है कि उसका रुकना या हिस्सों में बँटना असम्भव है। या तो कहानी के विराम झूठ हैं, या फिर कहानी ही कैसे सच हो सकती है?
योके ने कहा कि सेल्मा दूसरी दुनिया की बात कह रही है। दूसरी दुनिया क्या सच है? क्या उसका दूसरा होना ही झूठा होना नहीं है-उस परिस्थिति में जिसमें कि यह दुनिया, देश-काल का यह विशेष बिन्दु, जीवन का यह एक निस्संग जडि़त क्षण ही एकमात्र अनुभूत सच्चाई है? लेकिन यही तो सबसे बड़ा झूठ है, यही तो सबसे अधिक अग्राह्य है। यह दुनिया झूठ है, क्या इसलिये यह मान लें कि दूसरी दुनिया सच है? सपना झूठ है तो सपने में जो लोक देखा उसको सच मान लेना होगा? मोह की अवस्था में झूठ में जो कल्पना की गयी वह क्या और भी अधिक झूठ नहीं है-झूठ का भी झूठ नहीं है?

उखड़ती साँसों के अनेक अन्तरालों में सेल्मा थोड़ी-थोड़ी करके अपनी बात कह गयी थी। यह उसका आत्मानुशासन ही था कि साँसों का उखड़ापन उखड़ा नहीं जान पड़ता था, केवल एक मौन जान पड़ता था। लेकिन इसी अनुशासन के कारण शायद उसकी बात में वह व्यथा-स्पन्दित सहजता नहीं रहती थी जो योके के लिये उसे सच बना सकती...।

एक बार तो कहानी सुनते-सुनते उसका यह विरोध-भाव एकाएक इतना प्रबल हो आया था कि उसने सेल्मा को टोक भी दिया था। ‘‘दु:ख और कष्ट की बात-लेकिन दु:ख और कष्ट सच कैसे हैं अगर उनका बोध ही नहीं है?’’

सेल्मा थोड़ी देर चुप रही थी। फिर उसने कहा था, ‘‘यही तो मैं भी कहती हूँ-लेकिन दूसरी तरह से। बोध में से ही दर्द की सचाई है।’’ और थोड़ी देर रुककर, ‘‘और मृत्यु की भी।’’
योके ने इससे आगे सुनना नहीं चाहा था, इतना भी सुनना नहीं चाहा था। वह झपटती हुई उठकर दूसरे कमरे में चली गयी थी। लेकिन काम में अपने को उलझा नहीं सकी थी-काम कोई विशेष था ही नहीं। फिर आकर दो-एक बार सेल्मा को देख गयी थी और चली गयी थी, और अन्त में फिर आकर उसके पास बैठ गयी थी। योके अपने से कहती, ‘‘वह वहाँ सेल्मा है यह यहाँ मैं हूँ। वह सेल्मा है, सेल्मा ही है, यह मैं नहीं जानती-क्योंकि यह भी नहीं जानती कि वह जीती है या मर चुकी है-वह ऐसी निश्चेष्ट निस्पन्द पड़ी है-लेकिन उसके चेहरे में कोई परिवर्तन नहीं आया है और उसकी आँखें बन्द हैं। सुना है-आँखें खुल जाती हैं-लेकिन मैं क्यों उसे देख रही हूँ? क्या अपने को यही बोध कराने के लिये कि मैं मरी नहीं हूँ? जीवन के अनुभव करने के लिये, अपने मैं-पन को पहचानने के लिए? मैं-पन का बोध और जीवितपन का बोध, दोनों का एक साथ अनुभव करने के लिए-दोनों को एक अनुभूति में ढालकर इकाई को भोगने के लिये?

और प्रश्न को इस रूप में अपने सामने रखकर वह बेचैन होकर उठ खड़ी होती और इधर-उधर चक्कर काटने लगती। क्योंकि यहीं कहीं कुछ झूठ था-एक धोखा था-क्योंकि इन दो अलग-अलग अनुभवों का मेल किसी तरह भी इस एक अनुभूति के बराबर नहीं होता कि ‘मैं जीवित हूँ।’ मैं जीवित हूँ-की अखंड अनुभूति तभी हो सकती है जब व्यक्ति उसके प्रति चेतन न हो। क्योंकि कोई भी, किसी प्रकार की भी आत्मचेतना अपने को अपनी अनुभूति से अलग कर देती है, तटस्थ कर देती है, साक्षी बना देती है; और जो साक्षी है वह भोक्ता कैसे है? जीवन की अनुभूति तभी हो सकती है जब अनुभव कर रहे होने का बोध न हो। और वहाँ बैठी हुई योके-उसे न केवल बराबर यह बोध था कि वह अनुभव कर रही है, वह चाहती थी कि वह अनुभव करे! और यह बोध, यह चाहना ही जीवन को झूठा किये देता था। ...झूठ, झूठ, झूठ!
बर्फ-उजली बर्फ, धुँधली बर्फ, काली बर्फ-मानो काल का प्रवाह बर्फ की अलग-अलग रंग की झाईं है-उससे अलग समय की कोई सत्ता सा सत्त्वमयता नहीं है। या फिर जैसे बाहर बर्फ की झाइयाँ हैं वैसे ही भीतर सेल्मा के चहरे की झाइयाँ हैं-उजली, धुँधली, काली... यही दिनों का बीतना है; दिनों का और रातों का बीतना, जिस बीतने को योके अपने अर्थहीन साँसों से नाप रही है।...

योके ने नहीं जाना कि सेल्मा कब मर गयी। जानने का कोई उपाय नहीं था। शायद स्वयं सेल्मा ने भी नहीं जाना-क्योंकि उसका मरना किसी एक बिन्दु पर नहीं था। योके दूसरे कमरे में थी जब एकाएक उसने जाना। तर्कातीत गहरे और ध्रुव निश्चय से जाना कि सेल्मा मर चुकी है, उसे सहसा लगा कि कमरे की गन्ध बदल गयी है। आसन्न मृत्यु की गन्ध उसने कई दिन से पहचान रखी थी, इतनी घनिष्ठता के साथ कि अब उसकी अनुभूति की धार भी कुंठित हो गयी थी-पर अब उसे लगा कि वह गन्ध कुछ दूसरी है-मानो मृत्यु की सान पर चढक़र उसका बोध तीखा हो आया था।

एकाएक इस बोध के थपेड़े से योके क्षण-भर के लिये लडख़ड़ा गयी। फिर उसके भीतर तीव्र प्रतिक्रिया जागी कि उसे तुरन्त कुछ करना चाहिए, कि वह कुछ करेगी नहीं तो पागल हो जाएगी। उसने लपककर सेल्मा के कमरे का दरवाजा बन्द कर दिया और उसे पीठ से दबाती हुई खड़ी हो गयी। वह मृत्यु को बन्द कर देगी उस कमरे में, मृत्यु-गन्ध को वहीं दफना देगी-वह नहीं सह सकती उसे!

लेकिन वह काफ़ी नहीं था। वह मृत्यु-गन्ध मानो सर्वत्र भर रही थी।

योके ने एक कम्बल और चादर से दरवाजे के जोड़ और दरारें बन्द कर देने का यत्न किया, लेकिन उसे लगा कि ये कपड़े भी गन्ध से भर गये हैं। उसकी मुट्ठियाँ बँध गयीं। उसने जोर से एक घूँसा कम्बल पर मारा; लेकिन मानो चोट न लगने से उसे सन्तोष नहीं हुआ। और वह दोनों मुट्ठियों से दरवाजे को पीटने लगी। एक कड़वा आक्रोश उसके भीतर उमड़ आया; न जाने कब पुरुषों के झगड़ों में सुनी हुई गालियाँ उसे याद हो आयीं और वह उन्माद की-सी अवस्था में ईश्वर का नाम ले-लेकर गालियों को दुहरने लगी और साथ-साथ दरवाजे पर घूँसे मारने लगी।

व्यर्थ। सब व्यर्थ। वह मृत्यु-गन्ध नहीं दबती, न दबेगी, सब जगह फैली हुई है सब-कुछ में बसी हुई है सब-कुछ मरा हुआ है, सड़ रहा है, घिनौना है-बेपना है...

एकाएक योके को लगा कि वह गन्ध और कहीं से नहीं आ रही है, उसी में है-उसी की देह में से आ रही है। वह दरवाजे से उठ गयी और खिडक़ी के पास गयी। फिर उसने एक गिलास उठाकर खिडक़ी के बाहर से उसमें बर्फ भरी और बर्फ की मुट्ठियाँ बाँधकर उससे अपने हाथ, अपनी बाँहें, अपना चेहरा रगडऩे लगी... व्यर्थ, वह गन्ध छूटती नहीं, वह योके में भीतर तब बस गयी है। वह योके की अपनी गन्ध है-योके ही वह गन्ध है... उसने एक बार विमूढ़ भाव से अपने हाथ की ओर देखा, फिर गिलास को उठाकर सूँधा-उफ, बर्फ भी मृत्यु-गन्ध से भरी हुई थी। या कि उसके स्पर्श से ही वह गन्ध बर्फ में भी बस गयी है!

केवल मृत्यु की प्रतीक्षा-मरने की प्रतीक्षा, सडऩे और गँधाने की प्रतीक्षा... वह गन्ध पहले ही सब जगह और सब-कुछ में है और हम सर्वदा मृत्यु-गन्ध से गँधाते रहते हैं...

वह और मृत्यु-गन्ध-अकेली वह और सर्वत्र व्यापी हुई मृत्यु-गन्ध-गन्ध के साथ अकेली वह।

एक उन्मत्त अतिमानवी निश्चय से भरकर योके ने कम्बल और चादर उठाकर दरवाजा खोल दिया। वह सेल्मा को उठाकर ईश्वर के मुँह पर दे मारेगी-कहेगी कि लो अपनी सड़ी हुई, गँधाती हुई मृत्यु, और छोड़ दो मुझे मेरे अकेलेपन के साथ! लेकिन दो कदम आगे बढक़र ही वह ठिठक गयी, मानो लकवे से जड़ी हो गयी। उसे लगा कि सेल्मा की खुली आँखें एकटक उसे देख रही हैं, जैसे उस दिन देख रही थीं जब सेल्मा ने पूछा था, ‘‘लेकिन तुम रुक क्यों गयीं?’’

योके सेल्मा के पलँग की ओर और नहीं बढ़ सकी, ईश्वर के विरुद्ध ही उसका आक्रोश फिर प्रबल हो आया। थुड़ी है ईश्वर पर जो उसे इतना अकेला करके भी अकेला नहीं छोड़ रहा है, जो एक लाश की आँखों में छेद करके उनके भीतर से मुझे झाँक रहा है,

मुझ पर जासूसी करने आया है-थुड़ी है!

मुझे इतना अकेला करके...अकेला होना-मृत्यु के साथ अकेला होना-मृत्यु के सम्मुख अकेला होना-मृत्यु में अकेला होना-इस चरम अकेलेपन और स्वयं मृत्यु में क्या अन्तर है? क्या हुआ अगर ईश्वर चोरी से देख रहा है उस अकेली मृत्यु को-क्या ईश्वर भी मरा हुआ नहीं है?

योके ने सहारा लेने को हाथ बढ़ाया। लेकिन किसी तरफ़ कोई सहारा नहीं था और पलँग की ओर बढऩा सम्भव नहीं था। वह असहाय-सी वहीं फर्श पर बैठ गयी।

वह थोड़ी देर की बात भी हो सकती है और दो घंटों की भी कि योके यों फर्श पर बैठी रही। अंगों की चुनचुनाहट ने उसे सचेत किया। वह किसी तरह उठकर खड़ी हुई और लडख़ड़ाती हुई दरवाजे की चौखट तक आयी, वहाँ चौखटे के सहारे खड़ी होकर उसने सुन्न पड़ी टाँगों को सीधा किया और कुछ सँभलकर अपने पीछे दरवाजा धीरे से बन्द कर दिया। न जाने क्यों उसका ध्यान कमरे में टँगे हुए बड़े शीशे की ओर गया-खिडक़ी इतनी देर तक खुली रहने से उस पर नमी जम गयी थी और वह धुँधला होकर कोहरे की चादर-सा जान पड़ा था। योके ने हथेली से मलकर उसमें झाँकने लायक जगह बनायी; पहले अपनी परछाईं के पैरों की ओर देखा और फिर धीरे-धीरे नजर उठाती हुई परछाईं आँखों से आँखें मिलायीं और एकाएक मुड़ गयी।

एक नए निश्चय से भरकर उसने सेल्मा के कमरे का दरवाजा खोला, कम्बल सेल्मा की देह पर उढ़ाया और उसी में लपेटकर देह को बाँहों में उठा लिया। क्षण-भर उसे भ्रम हुआ कि उसने कम्बल सूना ही उठा लिया है। लेकिन पलँग पर कुछ नहीं था, सेल्मा का भार ही इतना रह गया होगा। दरवाजे की ओर बढक़र उसने कोहनी से ठेलकर उसे खोला और बाहर निकल आयी।

नहीं, खोदने की कोई जरूरत नहीं थी-अभी वह प्रयत्न भी व्यर्थ था। अभी केवल बर्फ; अनन्तर जब बर्फ पिघलेगी तब कब्र खोदकर दफनाना होगा, लेकिन अभी कुछ नहीं।
योके ने लाश को वहीं बर्फ पर लिटा दिया, फिर अन्दर जाकर एक डोल ले आयी और उसी से खोदकर बर्फ में खाई बनाने लगी। थोड़ी देर बाद उसने लाश को उसमें लिटा दिया और डोल भरकर बर्फ उठायी कि ठिठक गयी।

क्या कोई प्रार्थना उसे याद है? क्या प्रार्थना का भाव भी उसके मन में है? क्या वह ईश्वर को जानती या मानती भी है, इससे अधिक कि उसका नाम लेकर थूके! ईश्वर केवल एक अभ्यास है, और उसके नाम पर थूकना भी अभ्यास है...

‘‘मुझे क्षमा कर दो!’’ उसे याद आया कि सेल्मा ने उससे कहा था। सेल्मा ने... जबकि कभी भी कोई परिस्थिति ऐसी आयी थी जिसमें किसी को किसी से क्षमा माँगनी हो, तो वह सेल्मा से योके के क्षमा माँगने की ही थी।

योके ने किसी तरह कहा, ‘‘क्षमा करो, सेल्मा-’’ और बर्फ का डोल उस पर उलट दिया। फिर वह तेजी से डोल भर-भरकर उस पर डालने लगी।

...क्या कहीं भी ईश्वर है, सिवा मानवों के बीच के इस परस्पर क्षमा-याचना के सम्बन्ध को छोडक़र? यह क्षमा तो अभ्यास नहीं है। याचना भी अभ्यास नहीं है; तब यह सच है और ईश्वर है तो कहीं गहरे में इसी में होगा... पर क्या क्षमा, कैसी क्षमा, किससे क्षमा? मैं जो हूँ वही हूँ; और सेल्मा-सेल्मा मर चुकी है-है ही नहीं। फिर भी क्षमा सेल्मा से, ईश्वर से नहीं जो कि बीमार है और गँधाता है-मृत्यु-गन्धी ईश्वर...

लाश जब बिलकुल ओझल हो गयी तो योके ने डोल रखकर पीठ सीधी की और एक बार मुडक़र घर की ओर देखा। घर अब भी बर्फ के भीतर की एक गुफा मात्र था जिसके द्वार से निकलकर बाहर आयी थी और जिसमें फिर लौट जाएगी-अबकी बार अकेली। एकाएक सेल्मा के प्रति एक व्यापक करुणा का भाव उसके मन में उदित हो आया। सेल्मा थी, और अब नहीं है! बेचारी सेल्मा!

लेकिन एकाएक योके ने अपने को झटककर इस पिघलने के भाव को रोक दिया। करुणा गलत है, बचाव उसमें नहीं है। घृणा भी नरक का द्वार है तो दया भी नरक का द्वार है। मैं दया करके वहाँ गिरूँगी जहाँ घृणा करके गिरती!...

एकाएक योके को उस मठवासी भिक्षु की बात याद आयी जिसने साधना के लिये अपने को एकान्त कोठरी में बन्द कर लिया था; लेकिन एक दिन एकाएक मानो जागकर, अपने अकेलेपन को पहचानकर और अपने आपसे डरकर अपनी कोठरी से सुरंग खोदना आरम्भ कर दिया था। सारा जीवन सुरंग खोदते-खोदते जब अन्त में एक दिन उसे खुली-सी जगह मिलती जान पड़ी और वह उसमें सिर डालकर ऊपर उठा-तो पहुँचा केवल उसी मठ की एक दूसरी एकान्त गुफा में जो कि उसी प्रकार बन्द थी जिस प्रकार उसकी अपनी कोठरी! अन्तर इतना ही था कि इस कोठरी में एक पुराना लोटा और एक ठठरी भी पड़ी हुई थी-किसी दूसरे साधक की जो उस एकान्त में मर गया था...

क्या इतनी ही है पुरुषार्थ की उपलब्धि-एक अकेली गुफा से बढक़र एक दूसरी गुफा तक पहुँचाना जिसके अकेलेपन को एक ठठरी दोहरा रही है?

सेल्मा ने कहा था, ‘‘वरण की स्वतन्त्रता कहीं नहीं है, हम कुछ भी स्वेच्छा से नहीं चुनते हैं।’’ ईश्वर भी शायद स्वेच्छाचारी नहीं है-उसे भी सृष्टि करनी ही है लेकिन उन्माद से बचने के लिए सृजन अनिवार्य है; वह सृष्टि नहीं करेगा तो पागल हो जाएगा।

लेकिन यहाँ तो रचना की बात नहीं है। मृत्यु की बात है-मृत्यु, मृत्यु, मृत्यु... क्या उसमें ही कहीं रचना के लिए, सृष्टि के लिये गुुंजाइश है? क्या यही रहस्य था जिसका कुछ आभास सेल्मा को मिला था-कि वरण की स्वतन्त्रता नहीं है लेकिन रचना फिर भी सम्भव है और उसमें ही मुक्ति है?

योके ने फिर एक डोल भरकर बर्फ उठायी और धीरे-धीरे सेल्मा की ओझल देह पर डाल दी। यह मानो अनावश्यक था, अतिरिक्त था; लेकिन इस अनावश्यक अतिरिक्तता ने ही इस मदफन को सम्पूर्णता दी-अन्तिम रूप दिया।

भीतर लौटने से पहले योके ने एक बार चारों ओर नजर फिराकर देखा-कि बर्फ की क्षिति-रेखा पर, एक काले बिन्दु पर उसी की दीठ अटक गयी।

वह बिन्दु हिल रहा है। पहाड़ की रीढ़ के पार से कोई आ रहा है। मानो किसी दूसरी दुनिया से एक नाम गूँजा-पॉल सोरेन। हाँ, पॉल ही है।

तो यह अन्त है। अजब बात है कि एक का मदफन और दूसरे का निस्तार एक साथ एक ही क्षण में होता है।

लेकिन किसका मदफन और किसका निस्तार? कौन मर रहा है और कौन मुक्त हो गया है?
एकाएक उसे दूर से एक पुकार सुनाई पड़ी। कैसी अकल्पनीय और अविश्वास्य है यह पुकार उस सन्नाटे में। पॉल चिल्ला रहा है-हाथ हिलाकर उसे अपनी पहचान और अपनी खुशी की पहचान करना चाहता है-और पीछे प्रकट होते हुए तीन-चार और काले बिन्दुओं को प्रोत्साहन देकर तेजी से आगे बढ़ाना चाहता है...

पॉल सोरेन, योके का साथी और सह-साहसिक पॉल। लेकिन कौन है पॉल? कौन है यह अजनबी जो इस तरह चिल्लाता हुआ, इशारे करता हुआ उसकी ओर बढ़ रहा है?

कहीं वरण की स्वतन्त्रता नहीं है। हम अपने बन्धु का वरण नहीं कर सकते-और अपने अजनबी का भी नहीं...हम इतने भी स्वतन्त्र नहीं है कि अपना अजनबी भी चुन सकें...
अजनबी, अनपहचाना डर... क्या हम इतने भी स्वतन्त्र हैं कि अजनबी से पहचान कर लें?

दुकान में काफ़ी भीड़ थी। कई दिन वह बन्द रही थी, आज भी खुली थी तो कोई भरोसा नहीं था कि कितनी देर तक खुली रहेगी। और इसका कौन ठिकाना था कि बन्द न भी हो तो थोड़ी देर में सब माल चुक न जाएगा? सब लोग सहमे-सहमे-से थे, आतंक के वातावरण में प्रकट रूप में कोई ठेलम-ठेल नहीं हो रही थी लेकिन यह भाँपना कठिन नहीं था कि सभी ग्राहकों के लिये उस दुकान में आना या सौदा खरीदने की कोशिश प्राणरक्षा की दौड़ की ही एक मंजिल थी। सभी जानते थे कि जो पिछड़ जाएगा वह मर जाएगा; आगे बढक़र किसी तरह से खरीदा जा सके खरीद लेने में ही खैरियत है।

दुकान गली में थी। उस गली में जर्मनों का आना-जाना नहीं था, लेकिन शहर पर उनका अधिकार होने के बाद से जो आतंक था उसकी लपट से वह गली भी बची नहीं थी। उसी आतंक के कारण दुकान जब बन्द होती थी तब बन्द होती थी और जब खुलती थी तब खुलती थी। उसी के कारण ची$जों के दाम भी बहुत अधिक नहीं बढ़ते थे-माल जब चुक जाता था तब चुक जाता था। पिछवाड़े कहीं कभी लुक-छिपकर चोर-बाजारी होती भी हो तो सामने उसका कोई लक्षण नहीं था। यों चोर-बाजारी जितनी चौड़े में होती है उतनी लुक-छिपकर नहीं होती यह सभी जानते हैं। गली में जोखिम ज्यादा ही होता है।

भीड़ बहुत थी, लेकिन प्रतियोगी भाव के अलावा भी भीड़ में सब अकेले थे। बुझे हुए बन्द चेहरे, मानो घर की खिड़कियाँ ही बन्द न कर ली गयी हों बल्कि परदे भी खींच दिए गये हों; दबी हुई भावनाहीन पर निर्मम आवाजें, मानो जो माँगती हों, उसे जंजीर से बाँध लेना चाहती हों। अजनबी चेहरे, अजनबी आवाजें, अजनबी मुद्राएँ, और वह अजनबीपन केवल एक-दूसरे को दूर रखकर उससे बचने का ही नहीं, बल्कि एक-दूसरे से सम्पर्क स्थापित करने की असमर्थता का भी है-जातियों और संस्कारों का अजनबीपन, जीवन के मूल्य का अजनबीपन।

काले, गोरे और भूरे चेहरे; काले, लाल, पीले, भूरे गेहुएँ, सुनहले ओर धौले बाल, रँगे-पुते और रूखे-खुड्ढे चेहरे। चुन्नटदार, इस्तरी किये हुए और सलबट पड़े कपड़े; चमकीले और कीच-सने, चरमराते या फटफटाते या घिसटते हुए जूते। और चेहरों में, आँखों में, कपड़ों में, सिर से पैर तक अंग की हर क्रिया में निर्मम जीवैषणा का भाव-मानो वह दुकान सौदे-सुलुफ या रसद की दुकान नहीं है बल्कि जीवन की दुकान है जगन्नाथन् ने जैसे-तैसे कुछ सामान खरीद लिया था। एक बड़ा टुकड़ा पनीर का, कुछ मीठी टिकियाँ, थोड़ी सूखी रोटी। इन्हें अपने सामने रखे वह दीवार के साथ सजी हुई चीज़ों की ओर देख रहा था कि और क्या वह ले सकता है, कि एकाएक दुकान के पहले ही तने हुए वातावरण में एक नया तनाव आ गया। जगन्नाथन् ने भी मुडक़र उसी ओर देखा जिधर और कई लोग देखने लगे थे।

आगन्तुका के कपड़े कुछ अस्त-व्यस्त थे लेकिन ध्यान उनकी ओर नहीं जाता था, ध्यान जाता था उसके चेहरे और उसकी आँखों की ओर जो कि और भी अस्त-व्यस्त थीं-उसकी आँखों में मानो पतझर के मौसम की एक समूची वनखंडी बसी हुई थी। वह खुली-खुली आँखों से बिखरी हुई दृष्टि से चारों ओर देख रही थी। सभी को देखते हुए उसकी आँखें जगन्नाथन् तक पहुँची और उसे भी उसने सिर से पैर तक देख लिया। उस दृष्टि में कुछ था जिससे एक अशान्त, अस्वस्ति भाव जगन्नाथन् के भीतर उमड़ आया; लेकिन वह न उस दृष्टि को समझ सका न उसके प्रति होनेवाली अपनी प्रतिक्रिया को। यह अपने आप भी दुविधा का कारण होता, लेकिन इसके पीछे जगन्नाथन् ने अद्र्धचेतन मानस से यह भी पहचाना कि लोग आपस में कुछ कह रहे हैं और जो कह रहे हैं उसका विषय यह आगन्तुका ही है। जगन्नाथन् सुन भी रहा है, पर मानो सुने हुए की कोई छाप भी उसके नाम पर नहीं पड़ रही है, केवल वह आस्वस्ति भाव फैलकर उसकी सारी चेतना पर छाया जा रहा है।

एकाएक आगन्तुका ने अपने निचले होंठ से चिपका हुआ सिगरेट अलग किया और जगन्नाथन् के खरीदे हुए पनीर में उसे रगडक़र बुझा दिया, फिर अनमने भाव से सिगरेट को पनीर में ही खोंसकर उसने जगन्नाथन् की ओर देखा।

जगन्नाथन् दंग रह गया। फिर धीरे-से पनीर का टुकड़ा उठाते हुए उसने हारे स्वर से कहा, ‘‘वह देखो तुमने क्या कर दिया है!’’

आगन्तुका ने पनीर का टुकड़ा उसके हाथ से ले लिया और फिर उसे फर्श पर गिर जाने दिया। फिर वह एकाएक मुडक़र बाहर की ओर दौड़ी।

कुछ लोग हँस पड़े। पल-भर विमूढ़-सा रहकर जगन्नाथन् भी अपना सामान उठाकर उसके पीछे लपका। पीछे से किसी ने आवाज कसी, ‘फाँस लिया!’

एक दूसरी आवाज आयी, उपहास से भरी हुई, ‘वह भी तो बड़ा उतावला जान पड़ रहा है। दिन-दहाड़े पीछा कर रहा है।’

बाहर निकलते हुए जगन्नाथन् की चेतना ने इन आवाजों को भी ग्रहण किया। कुछ देर पहले सुनी हुई बातें भी उभरकर उसकी चेतना में आ गयी। उसने जान लिया कि आगन्तुका वेश्या है।

क्या वह लौट जाए? पनीर तो नष्ट हो चुका है। उस स्त्री ने जो किया उसका कारण जानकर भी अब क्या होगा? और वह उसका पीछा कर उसे पकड़ भी पाएगा तो क्या करेगा?
लेकिन वह अपने आप रुक गयी थी। वह बड़े जोर से हाँफ रही थी और उसके चेहरे पर यह ज्ञान स्पष्ट लिखा हुआ था कि जिस गली में वह घुस आयी है व अन्धी गली है और अब वह बचकर नहीं भाग सकती-उसे अपना पीछा करनेवाले की ओर ही लौटना होगा। पास ही की सीढ़ी पर बैठ गयी औरसिकुड़ गयी, जैसे मार खाने के लिये। जैसे कभी कुत्ता दुबककर बैठ जाता है, जब वह निश्चयपूर्वक जानता है कि बच नहीं सकेगा और उसे मार पड़ेगी ही।
जगन्नाथन् ने उसके पास पहुँचकर सधे हुए, मृदु स्वर में पूछा, ‘‘वह तुमने क्या किया-क्या लाचारी थी?’’

‘‘मुझे क्या मालूम था कि पनीर है?’’ स्वर उद्धत था। ‘‘मैं समझी कि यों ही रद्दी कुछ पड़ा होगा।’’

इस बात का विश्वास करना कठिन था। फिर भी जगन्नाथन् ने कहा, ‘‘लेकिन जब मैंने तुम्हें दिखाया तब तुम इतना तो कह सकती थीं कि-तुम्हें खेद है? वह मेरा अगले तीन दिन का खाना था। मैं-मैं कोई अमीर आदमी नहीं हूँ।’’

स्त्री ने तीखी दृष्टि से उसकी ओर देखा। कुछ बदले हुए स्वर में बोली, ‘‘ज़रूरी था।’’
‘‘क्या ज़रूरी था?’’ जगन्नाथन् को सन्देह हुआ कि कहीं यह स्त्री पागल तो नहीं है?
‘‘ज़रूरी था। मुझे जाना है, मेरी पुकार हो गयी है।’’

जगन्नाथन् और भी उलझन में पड़ गया। स्त्री कहती गयी, ‘‘लेकिन तुम तो मेरा पीछा कर रहे थे। तुम तो मुझे मारना चाहते थे-मारते क्यों नहीं? लो, यह मैं हूँ-मारो!’’
जगन्नाथन् ने लज्जित स्वर में कहा, ‘‘नहीं, मैं नहीं चाहता था, मैं तो-मैं तो सिर्फ...’’
‘‘या कि-या कि तुम भी इसीलिये-वे लोग जो कह रहे थे क्या ठीक कह रहे थे?’’
थोड़ी देर जगन्नाथन् प्रश्न नहीं समझा। फिर बाढ़ की तरह उसका अर्थ स्पष्ट हो गया। वह बोला, ‘‘तुम ऐसा सोच भी कैसे सकती हो? मैं जीवन में कभी नहीं गया किसी...’’
वह कहना चाहता था कि वह कभी वेश्या के पास नहीं गया। लेकिन ‘वेश्या’ शब्द पर उसकी वाणी अटक गयी। उस स्त्री के सामने वह उस शब्द को जबान पर नहीं ला सका।
स्त्री ने स्थिर आँखों से उसकी ओर देखकर पूछा, ‘तब तुम तो सिर्फ क्या?’’

‘‘मैं, मैं-मैं तो-नहीं जानता कि क्या!’’

स्त्री थोड़ी देर एकटक उसकी ओर देखती रही और फिर खिलखिलाकर हँसी पड़ी। फिर उतने ही अप्रत्यशित ढंग से वह हँसी गायब हो गयी और स्त्री का चेहरा पहले-सा हो आया। व्यथा की एक गहरी रेखा उस पर खिंच गयी। स्त्री ने जेब में हाथ डालकर कुछ निकाला और जल्दी से मुँह में रख लिया। दवा? या कोई नशा?...

‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?’’
‘‘अभी ठीक हो जाएगी-अभी हो जाएगी।’’ स्त्री की बात सुनकर जगन्नाथन् ने तय किया कि वह दवा नहीं थी, नशा ही था।
स्त्री का शरीर कुछ शिथिल हो आया। उसने उपरली सीढ़ी पर कोहनी टेककर पीठ दीवार के साथ लगा दी, फिर बायीं कलाई मोडक़र घड़ी की ओर देखा और शिथिल बाँहें अपनी गोद में गिर जाने दीं।

‘‘क्या बाजा है? मैं कुछ देख नहीं पा रही।’’ उसका स्वर भी बड़ा दुर्बल जान पड़ रहा था।
जगन्नाथन् ने घड़ी देखकर समय बता दिया।

‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’
जगन्नाथन् ने थोड़ा अचकचाते हुए कहा, ‘जगन्नाथन्!’
‘‘ज-जगन-ज-मैं सिर्फ नाथन् कहूँगी-छोटा भी है, अच्छा भी है। नाथन, मुझे माफ कर दो। मैंने तुम्हें तकलीफ पहुँचायी है, लेकिन मेरे खिलाफ इस बात को याद मत रखना पीछे याद मत करना। मैं मर रही हूँ।’’

‘‘क्यों-तुमने क्या किया है-क्या कर डाला है! अभी तुमने क्या खा लिया?’’
‘‘मैंने चुन लिया। मैंने स्वतन्त्रता को चुन लिया।’’ वह धीरे-धीरे बोली, ‘‘मैं बहुत खुश हूँ। मैंने कभी कुछ नहीं चुना। जब से मुझे याद है कभी कुछ चुनने का मौका मुझे नहीं मिला। लेकिन अब मैंने चुन लिया। जो चाहा वही चुन लिया। मैं खुश हूँ।’’ थोड़ा हाँफकर वह फिर बोली, ‘‘मैं चाहती थी कि मैं किसी अच्छे आदमी के पास मरूँ। क्योंकि मैं मरना नहीं चाहती थी-कभी नहीं चाहती थी!’’ फिर थोड़ा रुककर उसने कहा, ‘‘मुझे माफ कर दो, नाथन्! तुम जरूर मुझे माफ कर दोगे। तुम अच्छे आदमी हो। बताओ-अच्छे आदमी हो न?’’

जगन्नाथन् ने सीधे होते हुए कहा, ‘‘मैं डॉक्टर बुला लाऊँ?’’

‘‘नहीं-नहीं! अब कोई फायदा नहीं है।’’ उसने कहा, ‘‘अब मुझे छोडक़र मत जाओ यही तो मैंने चुना है।’’ फिर मानो कुछ सोचकर उसने जोड़ दिया, ‘‘लेकिन, हाँ दूसरे लोग भी तो होंगे लेकिन उनसे मैं अपने आप कह दूँगी। पर तुम जाओ नहीं!’’

क्षीणतर होती हुई उस आवाज में भी अनुरोध की एक तीव्रता आ गयी।

जगन्नाथन् वहाँ से जा नहीं सका। लेकिन वहीं मुडक़र उसने जोर से आवाज़ लगायी, ‘‘कोई है-मदद चाहिए-कोई है?’’ फिर स्त्री की ओर उन्मुख होकर उसने पूछा, ‘‘क्या कह दोगी?’’
‘‘कह दूँगी कि मैंने चुना, स्वेच्छा से चुना। सब कुछ कह दूँगी। सारी हरामी दुनिया को बता दूँगी कि एक बार मैंने अपने मन से जो चुना वही किया! हरामी-हरामी दुनिया! नाथन्-अच्छे आदमी-मुझे माफ कर दो!’’

जगन्नाथन् बड़े असमंजस में था। एक बार मुड़ता कि सहायता के लिये दौड़े, फिर उस स्त्री की ओर देखता जिसका अनुरोध-शायद अन्तिम अनुरोध- था कि वह उसे छोडक़र न जाए। फिर उसे ध्यान आता कि औरत शायद पूरे होश में भी नहीं है, जानती भी नहीं कि क्या कह रही है, और शायद इतना बोध भी नहीं रखती कि वह उसके पास खड़ा है। लेकिन अगर उसे बोध नहीं है तो जगन्नाथन् को तो है कि उसने क्या माँगा था! और शायद जगन्नाथन् का कर्तव्य यही है कि वह जो कुछ कह रही है उसका साक्षी हो अगर वह प्रलय भी है तो भी उसका साक्षी हो-क्योंकि शायद वही उस स्त्री के पास और कहने को रह गया है। और शायद वही कहना ही वह सारवस्तु है जिसके लिये वह जैसा भी जीवन जिया है...

स्त्री फिर रुक-रुककर कुछ कहने लगी। ‘‘कह दो-सारी हरामी दुनिया से कह दो, अन्त में मैं हारी नहीं-अन्त में मैंने जो चाहा सो किया-मरजी से किया। चुनकर किया। मैं-मरियम-ईसा की माँ-ईश्वर की माँ मरियम-जिसको जर्मनों ने वेश्या बनाया-’’

जगन्नाथन् ने धीरे से पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम मरियम है?’’

‘‘हाँ, मेरा नाम मरियम। ईसा की माँ का नाम मरियम। चुनी हुई माँ। जो कभी मर नहीं सकती-जर्मनों की वेश्या। उससे पहले मेरा नाम योके था। वह मैंने नहीं चुना, पर अच्छा नाम है। लेकिन योके मर गयी। मरियम कभी नहीं मरती।’’

जगन्नाथन् ने मुडक़र देखा, गली की नुक्कड़ पर कुछ लोग आ गये थे। उसने समझा था मरियम को-योके को-इतना होश नहीं होगा कि उनका आना जाने, लेकिन उसने उन्हें देख लिया और किसी तरह हाथ उठाकर इशारे से बुलाया। दो-तीन आदमी दौड़े हुए पास आये और एक बार कौतूहल से जगन्नाथन् की ओर देखकर स्त्री की ओर झुक गये।

योके ने कहा, ‘‘मैंने अपने मन से चुना है। मैं मर रही हूँ-अपनी इच्छा से चुनकर मर रही हूँ, हरामी मौत।’’

उसका स्वर कुछ और दुर्बल हो आया था। जगन्नाथन् को लगा कि उसका शरीर भी शिथिल पड़ रहा है और चेहरे की फीकी होती हुई रंगत में एक हल्की-सी कलौंस आ गयी है। उसे लगा कि योके की पीठ दीवार पर से एक ओर सरक रही है। जल्दी से घुटने टेकर कर बैठते हुए उसने एक बाँह से उसे सहारा देकर सँभाल लिया मानो उसके स्पर्श को पहचानती हुई योके ने उसकी ओर तनिक-सा मुडक़र कहा, ‘‘मैंने कह दिया-सब हरामियों से कह दिया।’’ फिर थोड़ा रुककर उसने आयासपूर्वक कहा, ‘‘उससे भी कह दिया-उससे भी।’’
इस ‘उस’ में कुछ ऐसा प्रबल आग्रह था कि जगन्नाथन् ने अवश प्रेरणा से पूछा, ‘‘उससे किससे?’’

‘‘पॉल से, उस अजनबी से।’’

एकाएक सभी लोग चुप हो गये थे। सभी में कुछ होता है जो पहचान लेता है कि कोई महत्त्वपूर्ण घटना घटनेवाली है और उसके आसन्न प्रभावसामने क्षण-भर चुप हो जाता है। उस मौन में योके और जगन्नाथन् मानो बाकी सारी भीड़ से कुछ अलग हो गये थे। योके ने फिर कहा, ‘‘मैंने चुना। हम अजनबी नहीं चुनते, अच्छे आदमी चुनते हैं। मैंने आदमी चुना-अच्छा आदमी। उसमें मैं जियूँगी। नाथन्, मुझे माफ कर दो।’’

जगन्नाथन् की बाँह कुछ और घिर आयी और योके का सिर उसने अपने कन्धे पर टेक लिया।

योके ने कहा, ‘‘किया?’’

जगन्नाथन् ने उसके कान के पास मुँह से लाकर स्निग्ध भाव से पूछा, ‘‘क्या?’’ फिर एकाएक उसका प्रश्न समझकर जल्दी से कहा, ‘‘हाँ, योके! किया। माफ किया-पर माफ करने को कुछ है तो नहीं।’’

योके ने बहुत ही धीमे, लगभग न सुने जा सकने वाले स्वर में कहा, ‘‘मैंने भी किया। अच्छा आदमी। उसको भी-’’

जगन्नाथन् ने पूछा, ‘‘पॉल को?’’

एक क्षणिक दुविधा का-सा भाव योके के चेहरे पर आ गया। या कि बेहोशी से पहले के क्षण में उसका मन बहक रहा था? फिर उसने कुछ कहा जिसे जगन्नाथन् ठीक-ठीक सुन नहीं पाया। इतना तो स्पष्ट ही था कि योके ने पॉल का नाम नहीं लिया था; कुछ और कहा था। क्या कहा था, यह जानने का अब कोई उपाय नहीं था, लेकिन साक्षी जगन्नाथन् को एकाएक धु्रव निश्चय हो आया कि योके ने कहा था : ‘‘ईश्वर को।’’

फिर वह एकान्त सहसा विलीन हो गया। जगन्नाथन् ने पहचाना कि वह भीड़ से घिरा हुआ है और उसकी बाँह योके की जड़ देह को सँभाले हुए है।

उसने अनदेखती हुई-सी आँखें लोगों पर टिकाकर कहा, ‘‘वह गयी।’’

स्तब्ध भीड़ में केवल एक ही बूढ़े व्यक्ति को सूझा कि हाथ उठाकर रस्मी ढंग से क्रूस का चिह्न बना दे; वह चिह्न सूने आकाश में अजनबी-सा टँका रह गया।






शेखर : एक जीवनी



जो आदमी जीवन द्वारा जीने का आदी है, उसे यह असह्य है कि उसे जीवन के बचे-खुचे बासी टुकड़े ही मिलें, जीवन का उच्छिष्ट मिले-किन्तु बन्दी शेखर के लिए यही विधान हो गया था... यह विचार ही उसको असह्य था, पर आता था वह बार-बार, और हर बार मानो उसको बाँधनेवाले लोहे के किवाड़ों का एक सींखचा उसकी अन्तज्र्वाला से ही तप्त होकर उसके हृदय में घुस जाता था..?

बाहर के संसार से-शशि से-उसका एक सम्बन्ध रह गया था निर्जीव कागज के पन्ने, उस पर निर्जीव लिपि के अक्षर... भाषा सजीव होती है, दर्द सजीव होता है, पर क्या उनके प्राण इस ज्ञान के आगे टिक सकते हैं, कि आज जो उसके सामने है, उसमें जीवन का स्पन्दन तीन दिन, या सात दिन, या दस दिन पहले था?...

शेखर को शशि का पत्र मिला, तो ऊपर तारीख देखकर उसे अनुमान नहीं हुआ कि चिट्ठी उस तक पहुँचने में जो नौ दिन लग गये हैं, वे उसके जीवन-प्रवाह के एक युग का अधिकांश एक ही घूँट से पी गये हैं। वह बढ़ती हुई वेदना से सारा पत्र एक बार पढ़ गया, फिर दूसरी बार पढ़ गया-हाँ, वेदना बहुत थी, पर इतनी नहीं कि वह फूट जाए, निर्वेद हो जाए-वह पीछे आयी जब बायाँ हाथ उठाकर उसने तारीखें गिनना शुरू किया और जाना चौदह में से नौ जाएँ तो पाँच बचते हैं...

अबकी बार शशि का पत्र छोटा था। शेखर से वह सहमत थी कि जीवन में हर एक को अपना मार्ग स्वयं खोजना होता है, हम किसी को मार्ग नहीं बता सकते, किसी को प्रकाश भी नहीं दिखा सकते; हम कर सकते हैं तो इतना ही कि पथिक के पैर दाब दें, उसका कवच कस दें, अगर उसके पास दीया है तो उसकी बत्ती कुछ उकसा दें। और इसलिए वह शेखर के प्रति दुगुनी कृतज्ञ है कि वह उसके लिए इतना करके उसके आगे भी जा रहा है, वह उसके दीपक में स्नेह भी भर रहा है। ...’भविष्य क्या है, नहीं जानती; और मैंने जो मार्ग अपने लिए निर्धारित किया है, उसमें भविष्य होने-न-होने का प्रश्न भी नहीं है। वह इतना ज्वलित है; पर इतना मैं आज तुम्हें कहती हूँ कि तुमने जो मुझे दिया, वह मैं उसमें नहीं भूलूँगी। तुमने लिखा है निर्णय मेरा है, पर उसका आदर करना तुम्हारा है; तुमने लिखा है एक निश्चय में तुम्हारा सहयोग और संरक्षण, और आवश्यक होने पर तुम्हारे हाथों का परिश्रम और तुम्हारे पसीने की रोटी; तुम्हारी उदारता में मैंने दोनों पा लिये हैं, और अब चुनने के नाम पर तुम्हारा आशीर्वाद ही चुनती हूँ। मैंने माँ से कह दिया है कि मुझे इस मामले में किसी तरह की कोई दिलचस्पी नहीं है, उनकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है।’

कठोर और कड़वा और स्वयं नारी की तरह चिरन्तन शशि का निर्णय-कठोर और कड़वा और चिरन्तन उसका यह अपनी आहुति दे देने का निर्णय-कठोर और कड़वा और चिरन्तन नारी का अभिमान कि जो समाज उसका आदर नहीं करता, उसी के हाथों नष्ट-भ्रष्ट, छिन्न-त्रस्त-ध्वस्त होकर वह उसकी अवमानना करेगी... आशीर्वाद? क्या आशीर्वाद हो उस नारी को क्षुद्र-पुरुष का? कि तू हुतात्मा हो, मेरी ज्वाला उज्ज्वल और सुगन्धित और निर्धूम हो! लज्जा, क्षोभ और आत्मग्लानि से शेखर ने अपनी बंधी हुई मुठ्ठी छाती में मार ली...

क्यों उसने शशि को अपनी सम्मति नहीं दी थी? क्यों नहीं उसे कहा था कि समाज पर अपने को बलि देने अपनी और समाज की भी विडम्बना है? क्यों नहीं कहा था कि समाज उसकी विविक्त इकाइयों का समूह है, और इकाई की अवहेलना समाज की अवहेलना है? क्यों नहीं कहा था कि अन्याय को सहना उसका भागी बनना है? क्यों स्वाधीनता दी थी निर्णय की? क्यों दोनों सूरतों में सहानुभूति का वचन दिया था?

उसे याद आया कि उसने क्या लिखा था... कि यह मामला शशि का है, शशि के अतिरिक्त किसी का भी नहीं है, और इसमें परामर्श भी किसी का ग्राहय नहीं है, माँ का भी नहीं, शेखर का भी नहीं... शशि, निपट अकेली शशि, इस समस्या से लड़े और किसी निष्पत्ति तक पहुँचे; बाकी यही कर सकते हैं कि सहानुभूतिपूर्वक देखें, अपनी इच्छा-शक्ति से उसे इतनी प्रेरणा दें कि वह ठीक ही परिणाम पर पहुँचे, यह आश्वासन दें कि निर्णय जो भी हो , वे उसके साथ हैं... ‘और मैं तुम्हारे साथ हूँ, शशि, तुम विवाह हो जाने दो, अपने भविष्य को किसी और के भविष्य में मिटा दो, तब भी मेरी सारी शक्ति तुम्हारे साथ होगी कि तुम अपने चुने हुए मार्ग में अडिग रहो; और वैसा तुम नहीं करो, एक व्यक्ति पर अपने को मिटाने की बजाय समाज के विरोध से ही टक्कर लेना चाहो, तो भी मैं तुम्हारे साथ हूँ। वह तुम्हें अलग कर दे, घर-बार भी तुमसे छूट जाए, तो मेरा अकिंचन सहयोग तुम्हें मिलेगा; अगर अपने हाथों के परिश्रम से मुझे तुम्हारी रोटी प्राप्त करनी पड़ेगी तो वह मेरा गौरव होगा...मैं जानता हूँ कि तुमने मुझे जो सीख दी है, उसका मूल्य मैं किसी तरह नहीं चुका सकता, उसके लिए कृतज्ञता भी दिखा सकता हूँ तो केवल इतनी कि उसी पर चलते-चलते या चलने की चेष्टा करते-करते समाप्त हो जाएँ। इतनी भी कृतज्ञता न दिखा सकूँ, ऐसा बुरा मैं नहीं हूँ-पहले रहा भी होऊँ तो तुम्हारी सीख का मुकुट पहनकर अब नहीं हूँ। मैं तुम्हारे साथ हूँ, चाहे जिधर भी तुम जाओ; किधर जाओ, इसका उत्तर तुम्हें तुम्हारे भीतर का आलोक दे...’

शशि ने मार्ग चुन लिया। ‘आज से ठीक दो सप्ताह बाद, आज ही के दिन, मैं-ओह शेखर, यह वाक्य अधूरा ही क्यों नहीं रह जाता!’ और यह नौ दिन पहले का पत्र है-केवल पाँच दिन और!

क्यों? किस चीज़ ने बाधित किया शशि को यह निर्णय करने के लिए? क्या बुद्धि ने? विवेक ने? क्या डर ने? अक्षमता ने? क्या हृदय ने? चाह ने? क्या आत्मा ने? अभिमान ने?

‘‘मैं जानती हूँ मेरी सम्पूर्ण अनिच्छा है। पर क्या मुझे अनिच्छा का, अनिच्छा के बाद अस्वीकृति का अधिकार है? समाज का मैं अंग हूँ, उसके प्रति मेरी जवाबदेही है, पर उसकी मैं उपेक्षा कर सकती हूँ, क्योंकि वह मेरे प्रति कर्तव्यशील नहीं है और फिर उसके आदर्श भी बदलते रहते हैं और रहेंगे। पर माँ-माँ तो सनातन है, सदा माँ है, उसके प्रति भी तो मेरा कर्तव्य है... माँ विधवा है, फिर उसके अपने संस्कार हैं। मेरी अस्वीकृति समाज के सम्मुख उनकी क्या अवस्था करेगी, यह तो अभी नहीं कह सकती, पर स्वयं अपने ही सामने उन्हें तोड़ देगी। वे कुछ नहीं कहेंगी, मैं जानती हूँ; पर क्या उससे मुझे कुछ दीखेगा नहीं? उनका मौन उनकी व्यथा को धार दे देगा, जिस पर मैं हर समय कटती रहूँगी... मैं अपना युद्ध लड़ सकती हूँ, पर मुझे क्या अधिकार है, मैं उनसे अपना युद्ध लड़वाऊँ? ...और अगर किसी को मूक होकर जलना ही है, तो वह कोई मैं ही क्यों नहीं होऊँ? मैं तो विवाह के बाद चली जाऊँगी, माँ या कोई भी मेरा होम नहीं देखेगा- मेरे अतिरिक्त कोई भी नहीं देखेगा उसे! इस दु:ख को अपने बन्धुओं के घेरे से बाहर ले जाने का यही एक तरीका है... शेखर, यही मेरा निर्णय है, आशीर्वाद दो कि मैं साभिमान इसे निभा ले जाऊँ...’

क्या शशि ठीक कहती है? क्या वह बेठीक ही कहती है?

पर सच वह अवश्य कहती है कि दु:ख किसी का अवश्य है, प्रश्न यही है कि कौन बढक़र उसे अपने कन्धों पर ले ले, कौन उसे झेलने में इतना विशाल अभिमान जुटा सके कि वह असानी से झिल जाए...
उसे अपनी ही लिखी हुई दो-चार पंक्तियाँ याद आयीं, जो उस समय तक केवल एक शव थीं, किन्तु इस समय प्राणोन्मेष से दीप्त हो उठीं।

I have burned in solitude
And burning has brought its own solace
In more quenchless burning...


(मैं एकान्त में जला किया हूँ, और जलना अपना ही शमन लाया है और भी अनबुझ जलने के रूप में...)

क्या यही है प्रतिनिधिक यन्त्रणा का वह सिद्धान्त, जो उसने कहीं पुस्तक में पढ़ा था और अग्राह्य मानकर छोड़ दिया था- कि हमारी यातना किसी दूसरे के पाप का प्रायश्चित हो सकती है? क्या प्रत्येक व्यक्ति किसी दूसरे का ईसा मसीह है, किसी दूसरे का क्रूस ढोनेवाला है? क्या यही है यातना के इस कुम्भीपाक में आलोक की प्रथम और अन्तिम किरण...
व्यथा से शेखर को रोमांच हो आया...

दूसरा पत्र आने में उतना समय नहीं लगा-पर जितना समय लगा था, उतना क्या कम था? शशि ने लिखा था, ‘‘आज मेरी उस अवस्था का अन्तिम दिन है, जिसमें अपने आत्मीयों से अलग एक सम्बन्धी मेरा था-मेरे बहिनापे में घिरे हुम तुम। कल से मेरा पहला परिचय होगा, अमुक की स्त्री; और अब सम्बन्ध उसके बाद आएँगे। न जाने यह पत्र तुम्हें कब मिलेगा, पर जब भी मिले, तुम उस शशि को आशीर्वाद देना, जो आज तक तुम्हारी बहन थी और उसके अतिरिक्त किसी की कुछ नहीं थी; किन्तु कल वैसा नहीं रहेगी; और जो आज इस पद से अन्तिम बार तुम्हें प्रणाम करती है...’’

शशि ने शेखर के अभ्यन्तर का कोमलतम मर्म छू लिया था- दर्द इतना था कि शेखर आह भी नहीं कर सकता था... अन्तिम बार प्रणाम... मेरी बहिनापे में घिरे हुए.. उसके अतिरिक्त कुछ नहीं...

यह सच था!-कि शशि ने ही उस ‘न-कुछ’ को खींचकर सगेपन का गौरव दिया था-ऐसे दिया था जैसे कभी किसी ने नहीं दिया था-उसकी अपनी दो सहोदरा बहनों ने नहीं...शशि ने उसके जीवन को अर्थ और उद्देश्य दिया था, एक ऐसी निधि दी थी जिसके गौरव के लिए जीना और लडऩा और मरना स्वयं पुरुष का गौरव है... तब क्या यह भी सच है कि आज उस निधि के रक्षकत्व का अन्तिम क्षण है?-आज क्यों, आज तो शशि को नए संरक्षण में गये हुए भी दो दिन हो गये!- क्या जो आरम्भ ही नहीं हुआ था, वह आज समाप्त होने जा रहा है?

वेदना... कोई उसके भीतर कहता है, वह नहीं थी सहोदरा, नहीं थी बहिन; जो हुआ है वह होना ही था... उसे दु:ख का अधिकार नहीं है... हाँ नहीं है अधिकार, अधिकार होता तो दु:ख क्यों होता? दु:ख उसको मेरी स्नेह की भेंट है, जैसे बहिनापा उसका मुझे स्नेह का दान था? नहीं है वह सहोदरा, वह सहजन्मा है; एक खंडित आत्मा दो क्षेत्रों में अंकुरित हुई है... तभी तो... तभी तो... शेखर अपने को देखता है, और नहीं समझ पाता कि कहाँ वह अपंग हो गया है-यद्यपि एक गहरी टीस उसमें उठती है और एक मूच्र्छना भी उसके बचे हुए गात पर छायी जा रही है...

किन्तु कर्तव्य अभी बाकी हैं-यन्त्रवत् शेखर ने कागज और कलम उठाया, एक छोटा-सा आशीर्वाद का पत्र लिखकर लिफाफे में बन्द किया, पता लिखा और वार्डर को बुलाकर दफ्तर में भिजवा दिया। दूसरा मार्ग नहीं था-और किसी तरह पत्र भेजने में बड़ी देर लगती।
तब एकाएकक्षत-विक्षत और शून्य और निष्प्राण शेखर चक्की पर सिर टेक कर खड़ा हो गया। उसकी निविड़ वेदना में ज्वाला की तरह उसके अन्तरंग को फोड़ता हुआ कुछ फूट निकला...

जल, ऊध्र्वगे, जल यज्ञ-ज्वाले जल! उत्तप्त जल, उज्ज्वल और सुवासित जल, क्षार-हीन और निर्धूम और अक्षय जल! यह मुझ अभागे का तुझे आशीर्वाद हो! तब आँसू आए, घने और झरझर...

फिर एक बार कुहासा शेखर के प्राणों पर छा गया। पर अबकी बार उसमें जैसे विरोधभाव नहीं जागृत हुआ। अपने रोने पर क्षोभ नहीं हुआ, परास्त हो जाने पर ज्ञान का प्रतिकार करने की भी इच्छा नहीं हुई। वह मानो अस्तित्व के किसी निचले स्तर पर उतर आया। जीवन शिथिल हो गया, और शैथिल्य स्वाभाविक धर्म मालूम पडऩे लगा।

शेखर ने ‘साहब’ से अनुमति माँगी कि उसे पहले सिरे की एक कोठरी में रखा जाए। ‘साहब’ ने विस्मित होकर कारण पूछा, और यह जानने पर कि शेखर एकान्त चाहता है, मुस्कराकर अनुमति दे दी। ‘तुम स्वयं अपनी आज़ादी कम करना चाहते हो तो तुम जानो। वहाँ पर तुम्हें वहीं के नियम मानने पड़ेंगे-बन्द भी रहना पड़ेगा। हाँ, अगर फाँसीवाले अधिक हो गये तो वहाँ से हटना पड़ेगा।’ शेखर ने मौन स्वीकृति दे दी।

फाँसी की कोठरी साफ-सुथरी थी। पक्का फर्श था, चक्की कोई नहीं थी, पतरे के लिए फाटक के पास कोने में अलग जगह बनी हुई थी, जहाँ से पानी बाहर को बह जाता था, अत: कोठरी में बदबू नहीं थी। शेखर दिन में बन्द रहता, सुबह-शाम टहलने बाहर निकलता और तलाशी के बाद बन्द हो जाता। ये नियम उसे पसन्द नहीं थे, पर वह मानो अपनी देह से हटकर कहीं रहता था, ये उसे छूते ही नहीं थे। दिनभर वह अर्धसुप्त-सी अवस्था में रहता-जैसे अफीमची अफीम न मिलने पर रहते हैं। केवल सायं-प्रात: जैसे उनकी तन्द्रा टूट जाती, वह जानता कि वह जीवित है।

उषाकाल से लेकर टहलाई के लिए द्वार खुलने तक, और शाम की टहलाई के बाद बन्द होने से लेकर दिनावसान तक-ये दो मुहूत्र्त न जाने कैसे थे कि दिनभर मुरझाये रहनेवाले प्राण उसके भीतर एकाएक प्रदीप्त हो उठते थे- चार-साढ़े चार बजे उसकी नींद खुलती, तब वह पलटकर सिर फाटक की ओर कर लेता, और आकाश की ओर देखकर मन के मनकेफेरा करता; कभी वर्षा हो रही होती, तो बूँदों का स्वर उसके विचारों पर ताल देता चलता।
फूटते आलोक की पहली किरण के साथ, मिटते आलोक की अन्तिम दीप्ति के साथ, तीर-सा एक प्रश्न शेखर के हृदय को बेध जाता, ‘क्या आत्माहुति देकर वह सुखी है’ उसका पत्र फिर नहीं आया था; जानकारी के लिए शेखर के पास कुछ नहीं था सिवाय अपनी समझ के-कितनी क्षुद्र समझ! और अपनी सम्वेदना के-कितनी असमर्थ सम्वेदना!

क्यों नहीं लिखा उसने? क्या दु:ख में है इसलिए? या सुखी है इसलिए?

कभी व्याकुलता इतनी उग्र हो उठती कि वह दाँत भींचकर, मुट्ठी बाँधकर, फर्श पर, दीवार पर, जँगले पर दे मारता, एक बार, दो बार, तीन बार... जब तक कि जोड़ों पर से खून न फूट आता-तब उस रक्त को वह माथे पर पोंछ लेता और उसकी ललाई से उसे कुछ शान्ति मिली! कभी अपने ही कार्य से घबराकर यह पूछ उठता, क्या मैं पागल हो गया हूँ? पर तत्काल ही पहला प्रश्न इस दूसरे प्रश्न को निकाल देता, और मानो इस अल्पकालिक विस्मृति के दंड-स्वरूप स्वयं अधिक तीव्र हो उठता...

किन्तु दिन में इतनी शक्ति का संचय कभी न होता, वह केवल एक क्षीण-सी चिन्ता में सोचा करता, क्या वह आत्मबलिदान उचित हुआ? ...कौन कह सकता है? कोई नहीं जानता- जाननेवाली, कहनेवाली, निश्चय करनेवाली एकमात्र शशि है! यह प्रश्न उसका प्रश्न है... बाबा मदनसिंह ने भी तो कहा था, हर एक को अपना रास्ता खुद खोजना होता है...

कभी उसे इसमें भी सन्देह हो जाता। क्या सचमुच यह व्यक्तिगत प्रश्न है? क्या सामाजिक उत्तरदायित्व इसमें शामिल नहीं है? व्यक्ति अपने को रखे या बलि दे, अच्छे काम में बलि दे या बुरे में, क्या इसका एकमात्र निर्णायक वह व्यक्ति स्वयं है और समाज को कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है? उसका मन भटकने लगता है... यह तो वही पुराना हिंसा और अहिंसा का प्रश्न है...

चाहे यह अपने प्रश्न का उत्तर पाने की उत्कट इच्छा रही हो, चाहे केवल कुछ घूमने-फिरने की; शेखर बाबा मदनसिंह से मिलने गया। और न जाने क्यों उसकी पुरानी जिज्ञासाएँ उबल पड़ीं; शशि का प्रश्न भी बीच में उलझ गया और शेखर हिंसा-अहिंसा और सामाजिक दायित्व के पचड़े फिर ले बैठा।

बाबा बोले, ‘‘देखिए, आजकल न जाने मन क्यों बहुत दु:खी रहता है। शायद मैं कोई नया सूत्र पानेवाला होऊँ, शायद केवल बुढ़ापा ही हो। इसलिए आपके सवालों का जवाब सूत्रों में ही-पुराने सूत्रों में ही-दूँगा। प्रश्न अवश्य सामाजिक भी है। मुझे दीखता है कि हमारा भारतीय जीवन और दर्शन अन्तर्मुखी और व्यक्तिवादी है-जैसे, हम मुक्ति का साधन यही मानते हैं कि जहाँ तक हो सके, अपने को समाज से अलग खींच ले और ‘आत्मानं विद्धि’। इस व्यक्तिवाद का परिणाम है कि हम पाप-पुण्य भी व्यक्तिगत ही समझते हैं। तभी तो हमारे धर्मात्मा लोग साँपों को दूध पिलाना भी पुण्य समझते हैं। समाजिक दृष्टि से यह हिंसा है। दूसरी ओर पश्चिम का जीवन और दर्शन हमारे बिलकुल विपरीत है। वह बहिर्मुखी और समाजवादी है। उनका मानदंड भिन्न है, उनकी समझ में हमारा दृष्टिकोण आध्यात्मिक कलाबाजी और कायरता है। हम उन्हें निकृष्ट यथार्थवादी कह सकते हैं, वह हमें थोथे अध्यात्मवादी कह सकते हैं। पर इस गाली-गलौज से भी यह बात नहीं छिपती कि हम दोनों एक-दूसरे के आदर्श नहीं भूल सकते। खासकर हम लोगों को अपने आर्दशों में सुधार की जरूरत है, क्योंकि हम नीचे हैं।’’ कुछ देर चुप रहकर बाबा मुस्कराये, ‘‘भेड़ों की तरह झुंड बाँधकर रहेंगे, तो भेड़-चाल चलनी पड़ेगी। भेड़-चाल का सभ्य नाम संस्कृति है।’’

शेखर कुछ देर तक चुपचाप खड़ा रहा। चेहरे पर एकसाथ पड़ी दो बूँदों ने उसे चौंका दिया। उसने ऊपर देखा, आकाश में सावन के घने बादल थे, और पश्चिमी क्षितिज पर एक मटमैला धब्बा क्रमश: फैलता हुआ बढ़ रहा था-उसके भीतर से मानो किसी तरह का प्रकाश फूट रहा था।

‘अन्धड़’ आ रहा है।

‘‘अच्छा ही है, मुझे आजकल इसकी जरूरत थी।’’ बाबा की आँखों पर भी एक बादल छा गया। ‘‘वह कहानी का पठान बाहर चला गया था, तब जेल की अवधि नहीं गिनता था, पर मेरे लिए तो ‘कुछ न होना’ ही स्थायी हो गया है। ये इक्कीस वर्ष मुझ पर बोझ हो गये हैं। इसीलिए आँधी-तूफान से कुछ सहारा मिलता है।’’

शेखर ने विस्मय से उनकी ओर देखा, उस क्षण में बाबा उसे पहली बार बूढ़े लगे-उनकी आँखें बूढ़ी हो गयी थीं, और धवल जटा और धवल दाढ़ी से भी कितनी अधिक बूढ़ी! मानो शाप-ग्रस्त प्रथम मानव का शाप उनमें चमक गया हो!- ‘‘अपने दु:ख के सहारे ही तू जिएगा!’’
वह सहमा हुआ-सा धीरे-धीरे लौट पड़ा।

कोठरी की ओर लौटते हुए शेखर के भीतर सहसा ग्लानि उमड़ आयी। कितनी घोर लज्जा की बात है कि वह इस समय कोरी बौद्धिक उलझनों में पड़ा हुआ है, जबकि शशि पर न जाने क्या बीत रही होगी... मानसिक क्लेश, शायद शारीरिक यातना-वह चलते-चलते ठिठक गया-कौन जाने क्या अवस्था होगी इस समय शशि की!

क्या अवस्था होगी? किस बात से डर रहा है वह? वह नामहीन कौन-सा डर है, जो उसके भीतर है?

मानो उसके प्रश्न के उत्तर में वायु का एक झोंका जेल के असंख्य सींखचों, लौह-द्वारों और वातायनों में से कराहता हुआ निकल गया-वह कराह फिर ऊँची उठी और फिर धीमी पड़ गयी, फिर उठी और एक अपार्थिव पीडि़त प्राणी की चीख बन गयी; उसकी व्याकुल साँस शेखर को धकेलने-सी लगी-आँधी का पहला वातचक्र उसे घेरे ले रहा था...

वह फिर चल पड़ा। ...किन्तु सोचने से कैसे रुका जाए-सोचने से नहीं, प्रश्न पूछने से कैसे रुका जाए! और प्रश्नों का अन्त कहाँ-जिज्ञासा के घूँट नहीं होते, वह भी भीमप्रवाहिनी कूलहीना नदी है, स्वयं जीवन की तरह दुर्निवार...

मदनसिंह ने कहा था, पीड़ा तपस्या है, किन्तु असली तपस्या तो जिज्ञासा है-क्योंकि वही सबसे बड़ी पीड़ा है...

वह कोठरी में पहुँच गया था। सन्तरी पहले ही वहाँ मौजूद था, शेखर के भीतर जाते ही उसने ताला बन्द कर दिया और स्वयं आँगन से बाहर निकलकर कुछ दूर पर सामने बने हुए कठघरे में जा खड़ा हुआ-आँधी के साथ ही बड़ी बूँदें वर्षा की पडऩे लगी थीं...
जिज्ञासा-जिज्ञासा-यह मर्मान्तक पीड़ा...

पर मैं जानना चाहता हूँ-शशि की अवस्था जानना चाहता हूँ्...क्या वह सुखी है?
...’जहाँ अपना वश नहीं है, वहाँ दु:ख करना मोह है।’...कहाँ पढ़ा था उसने यह? या यह मदनसिंह के शब्दों में ‘सूत्र’ है, दु:ख की चोट से पाया हुआ? वेदना के बिना ज्ञान नहीं है तभी तो ज्ञान अपौरुषेय है- पुरुष की बुद्धि में वह नहीं पाया जाता, वेदना में, तपस्या में, वह उदित होता है। वह मन्थन से मिलनेवाला अमृत नहीं है, वह अवतीर्ण होनेवाला कोई अप्रेमय है... इसी तरह कभी प्राचीन ऋषियों ने वह सूत्रबद्ध ज्ञान पाया होगा, जो अब वेद है-जो ‘जाना हुआ’ है, किसी भीतरी आलोक से सहसा प्रकट हुआ-इसी तरह पीड़ा की तपस्या से सहसा जागकर उन्होंने प्रज्ञा के बोझ से लडखड़ाकर कहा होगा, ‘अपौरुषेय’! अपौरुषेय!’

एक चौंधियानेवाले प्रकाश ने घिरती रात के अन्धकार को फाड़ डाला, भीषण गडग़ड़ाहट ने जेल के लोहे और पत्थर को कँपा दिया, आकाश का बोझीला पर्दा मानो अपने भार से फट गया और धारासार वर्षा होने लगी; शेखर के पैरों में कुछ आकर लगा तो उसने देखा, एक बड़ा-सा ओला है; वह जँगले के पास जाकर खड़ा हो गया; शीत से काँपता हुआ, बादल के गम्भीर घोष और बिजली की तड़पन से हतबुद्धि, आँधी और पानी के क्रुद्ध थपेड़ों से पिटता हुआ खड़ा रहा... कितना अच्छा था यह सामने की मार खाना, कितना अच्छा था इस तरह पिटते हुए खड़े रहना, उस नामहीन, आकारहीन शत्रु द्वारा असहाय लील लिये जाने की अपेक्षा...

किन्तु उससे निस्तार कहाँ है? प्राकृतिक तत्त्वों की इस उथल-पुथल में भी आत्मा कहाँ चुप है... जेल में दूसरे भी तो हैं, वे भी क्या कर रहे होंगे इस समय? उसे याद आया, एक दिन उसने देखा था, जेठ की दुपहरी में एक कैदी वर्षा में भीगे और ठिठुरे हुए बन्दर की तरह कोठरी के जँगले के नीचे उकड़ूँ बैठा था; और बिल्लौर के मनके-सी उसकी आँखें उत्तम सफेद आकाश पर टिकी थीं... क्या वह जीवन था? उस समय उसका जीवन मानो स्थगित था, प्राणीत्व भी मानो स्थगित था; उस समय उसके भीतर से वह कई अरब वर्षों का जड़त्व झाँक रहा था, जो विकास द्वारा जीवोद्भव से पहले उसकी मिट्टी का रहा होगा... बाबा मदनसिंह की कहानी का पठान ठीक ही कहता था- जेल में आदमी जीता नहीं, वृद्धि नहीं पाता पर वृद्ध अवश्य हो जाता है-गात सूख जाते हैं और बाल पक जाते हैं...

और स्थगित जीवन के उस भीषण अन्तराल में क्षुद्र बुद्धि ही एकमात्र सम्बल है, जिज्ञासा ही एकमात्र सम्बल है... वही स्थानापन्न प्राण है...

शेखर एक बार काँपा, और फिर लिखने बैठ गया। हाँ,...

ईश्वर ने सृष्टि की।

सब ओर निराकार शून्य था, और अनन्त आकाश में अन्धकार छाया हुआ था। ईश्वर ने कहा, ‘प्रकाश हो’ और प्रकाश हो गया। उसके आलोक में ईश्वर ने असंख्य टुकड़े किये और प्रत्येक में एक-एक तारा जड़ दिया। तब उसने सौर-मंडल बनाया, पृथ्वी बनायी। और उसे जान पड़ा कि उसकी रचना अच्छी है।

तब उसने वनस्पति, पौधे, झाड़-झंखाड़, फल-फूल, लता-बेलें उगायीं; और उन पर मँडराने को भौंरे और तितलियाँ, गाने को झींगुर भी बना।

तब उसने पशु-पक्षी भी बनाये। और उसे जान पड़ा कि उसकी रचना अच्छी है।

लेकिन उसे शान्ति न हुई। तब उसने जीवन में वैचित्र्य लाने के लिए दिन और रात, आँधी-पानी, बादल-मेंह, धूप-छाँह इत्यादि बनाये; और फिर कीड़े-मकोड़े, मकड़ी-मच्छर, बर्रे-बिच्छू और अन्त में साँप भी बनाये।

लेकिन फिर भी उसे सन्तोष नहीं हुआ। तब उसने ज्ञान का नेत्र खोलकर सुदूर भविष्य में देखा। अन्धकार में, पृथ्वी और सौर-लोक पर छायी हुई प्राणहीन धुन्ध में कहीं एक हलचल, फिर उस हलचल में धीरे-धीरे एक आकार, एक शरीर का, जिसमें असाधारण कुछ नहीं है, लेकिन फिर भी सामथ्र्य है; एक आत्मा जो निर्मित होकर भी अपने आकार के भीतर बँधती नहीं, बढ़ती ही जाती है; एक प्राणी जो जितनी बार धूल को छूता है नया ही होकर अधिक प्राणवान् होकर, उठ खड़ा होता है...

ईश्वर ने जान लिया कि भविष्य का प्राणी यही मानव है। तब उसने पृथ्वी पर से धुन्ध को चीरकर एक मुट्ठी धूल उठायी और उसे अपने हृदय के पास ले जाकर उसमें अपनी विराट् आत्मा की एक साँस फूँक दी-मानव की सृष्टि हो गयी।

ईश्वर ने कहा, ‘जाओ, मेरी रचना के महाप्राणनायक, सृष्टि के अवतंस!’
लेकिन कृतित्व का सुख ईश्वर को तब भी नहीं प्राप्त हुआ, उसमें का कलाकार अतृप्त ही रह गया।

क्योंकि पृथ्वी खड़ी रही, तारे खड़े रहे। सूर्य प्रकाशवान नहीं हुआ, क्योंकि उसकी किरणें बाहर फूट निकलने से रह गयी! उस विराट् सुन्दर विश्व में गति नहीं आयी।

दूर पड़ा हुआ आदिम साँप हँसता रहा। वह जानता था कि क्यों सृष्टि नहीं चलती। और वह इस ज्ञान को खूब सँभालकर अपनी गुंजलक में लपेटे बैठा हुआ था।

एक बार फिर ईश्वर ने ज्ञान का नेत्र खोला, और फिर मानव के दो बूँद आँसू लेकर स्त्री की रचना की।

मानव ने चुपचाप उसकी देन को स्वीकार कर लिया; सन्तुष्ट वह पहले ही था, अब सन्तोष द्विगुणित हो गया। उस शान्त जीवन में अब भी कोई आपूर्ति न आयी और सृष्टि अब भी न चली।

और वह चिरन्तन साँप ज्ञान को अपनी गुंजलक में लपेटे बैठा हँसता रहा ।

साँप ने कहा, ‘मूर्ख, अपने जीवन से सन्तुष्ट मत हो। अभी बहुत कुछ है जो तूने नहीं पाया, नहीं देखा, नहीं जाना। यह देख, ज्ञान मेरे पास है। इसी के कारण तो मैं ईश्वर का समकक्ष हूँ, चिरन्तन हूँ।’

लेकिन मानव ने एक बार अनमना-सा उसकी ओर देखा, और फिर स्त्री के केशों से अपना मुँह ढँक लिया। उसे कोई कौतूहल नहीं था, वह शान्त था।

बहुत देर तक ऐसे ही रहा। प्रकाश होता और मिट जाता; पुरुष और स्त्री प्रकाश में, मुग्ध दृष्टि से एक-दूसरे को देखते रहते, और अन्धकार में लिपटकर सो रहते।

और ईश्वर अदृष्ट ही रहता, और साँप हँसता ही जाता।

तब एक दिन जब प्रकाश हुआ, तो स्त्री ने आँखें नीची कर लीं, पुरुष की ओर नहीं देखा। पुरुष ने आँख मिलाने की कोशिश की, तो पाया कि स्त्री केवल उसी की ओर न देख रही हो ऐसा नहीं है; वह किसी की ओर भी नहीं देख रही है, उसकी दृष्टि मानो अन्तर्मुखी हो गयी हो, अपने भीतर ही कुछ देख रही है, और उसी दर्शन में एक अनिर्वचनीय तन्मयता पा रही है... तब अन्धकार हुआ, तब भी स्त्री उसी तद्गत भाव से लेट गयी, पुरुष को देखती हुई, बल्कि उसकी ओर से विमुख, उसे कुछ परे रखती हुई...

पुरुष उठ बैठा। नेत्र मूँदकर ईश्वर से प्रार्थना करने लगा। उसके पास शब्द नहीं थे, भाव नहीं थे, दीक्षा नहीं थी। लेकिन शब्दों से, भावों से, प्रणाली के ज्ञान से परे जो प्रार्थना है, जो सम्बन्ध के सूत्र पर आश्रित है, वही प्रार्थना उसमें से फूट निकलने लगी...

लेकिन विश्व फिर भी वैसा ही निश्चल पड़ा रहा, गति उसमें नहीं आयी।

स्त्री रोने लगी। उसके भीतर कहीं दर्द की एक हूक उठी। वह पुकारकर कहने लगी, ‘क्या होता है मुझे! मैं बिखर जाऊँगी, मैं मिट्टी में मिल जाऊँगी...’’

पुरुष अपनी निस्सहायता में कुछ भी नहीं कर सका, उसकी प्रार्थना और भी आतुर, और भी विकल, और भी उत्सर्गमयी हो गयी, और जब वह स्त्री का दु:ख नहीं देख सका, तब उसनेनेत्र खूब जोर से मींच लिये...

निशीथ के निविड़ अन्धकार में स्त्री ने पुकारकर कहा, ‘ओ मेरे ईश्वर, ओ मेरे पुरुष यह देखो!’
पुरुष ने पास जाकर देखा, टटोला और क्षण-भर स्तब्ध रह गया। उसकी आत्मा के भीतर विस्मय की, भय की एक पुलक उठी, उसने धीरे से स्त्री का सिर उठाकर अपनी गोद में रख लिया...

फूटते हुए कोमल प्रकाश में उसने देखा, स्त्री उसी के एक बहुत स्निग्ध, बहुत प्यारे प्रतिरूप को अपनी छाती से चिपटाये है और थकी हुई सो रही है। उसका हृदय एक प्रकांड विस्मय से, एक दुस्सह उल्लास से भर आया और उसके भीतर एक प्रश्न फूट निकला, ‘ईश्वर, यह क्या सृष्टि है जो तूने नहीं की?’

ईश्वर ने कोई उत्तर नहीं दिया। तब मानव ने साँप से पूछा, ‘ओ ज्ञान के रक्षक साँप, बताओ यह क्या है जिसने मुझे तुम्हारा और ईश्वर का समकक्ष बना दिया है-एक स्रष्टा-बताओ, मैं जानना चाहता हूँ?’

उसके यह प्रश्न पूछते ही अनहोनी घटना घटी। पृथ्वी घूमने लगी, तारे दीप्त हो उठे, फिर सूर्य उदित हो आया और दीप्त हो उठा, बादल गरज उठे, बिजली तड़प उठी... विश्व चल पड़ा!
साँप ने कहा, ‘मैं हार गया। ईश्वर ने ज्ञान मुझसे छीन लिया।’ और उसकी गुंजलक धीरे-धीरे खुल गयी।

ईश्वर ने कहा, ‘मेरी सृष्टि सफल हुई, लेकिन विजय मानव की है। मैं ज्ञानमय हूँ, पूर्ण हूँ। मैं कुछ खोजता नहीं। 550 मानव में जिज्ञासा है, अत: यह विश्व को चलाता है, गति देता है...’
लेकिन मानव में उलझन थी, अस्तित्व की समस्या थी। पुकार-पुकारकर कहता जाता था, ‘मैं जानना चाहता हूँ।’

और जितनी बार वह प्रश्न दुहराता था, उतनी बार सूर्य कुछ अधिक दीप्त हो उठता था, पृथ्वी कुछ अधिक तेजी से घूमने लगती थी, विश्व कुछ अधिक गति से चल पड़ता था और मानव के हृदय का स्पन्दन भी कुछ अधिक भरा हो जाता था।

आज भी जब मानव यह प्रश्न पूछ बैठता है, तब अनहोनी घटनाएँ होने लगती हैं।

शशि को एक और पत्र-वह लिखती है कि शायद उसका जीवन चल जाए-उसमें सुख नहीं तो दु:ख भी नहीं है, किसी तरह की कोई गहरी अनुभूति नहीं है, केवल उनींदें रहने से हो जानेवाले सिरदर्द की तरह एक हल्का-सा बोझ हर समय उसके ऊपर पड़ा रहता है... कभी सोचती हूँ क्या जीवन ऐसे ही बीतेगा? गाजर-मूली की तरह बढऩा और उखाड़ लिये जाना, बस? पर फिर ध्यान आता है, कई ऐसे जीते हैं और दर्जनों बरस निकल जाते हैं... और यहाँ ऐसे यन्त्र-तुल्य जीवन के सभी साधन हैं, किसी को मुझमें इतनी भी दिलचप्सी नहीं है कि तिरस्कार भी करे... ‘यह वह जीवन नहीं है, जिसकी मैंने कल्पना की थी, पर शायद सबका उदाहरण देखकर मैं भी ऐसी बन जाऊँ कि अपनी अवस्था का तिरस्कार न कर सकूँ और शान्त, सन्तुष्ट, निर्वेद होकर जीवन जी डालूँ। दु:ख तो मुझे अब भी कोई नहीं है।...’ और फिर एकाएक बदलकर ‘तुम कब आओगे?’

कब जाएगा वह? वह नहीं जानता। मुकदमा मालूम होता है कभी समाप्त नहीं होगा? गवाही प्राय: समाप्त हो गयी थी, वकील ने कहा था कि शेखर के विरुद्ध कुछ नहीं है, तब नए गवाह लाने की अनुमति माँगी गयी थी और अदालत ने उन्हें बुला भी लिया था...

पर अब जाए न जाए, कोई बात नहीं है। विवाह शशि का हो चुका, और अपना घर जैसे उसके मन से ही निकल गया है। और शशि अब निराग्रह होकर जी रही है, जीवन से कुछ माँगती नहीं है, अत: दु:ख भी नहीं पाती है। वह भी उपराम है, शून्य है, जेल और बाहर सब बराबर है।

भादों...आश्विन...कार्तिक.... प्रकाश होता है और धुँधला पड़ जाता है; जेल के चौदह सौ आदमी गिनते हैं कि एक दिन और बीत गया; लोग मानते हैं कि अस्तित्व का छकड़ा एक मंज़िल और पार कर गया; सभी समझते हैं कि वे जी रहे हैं ... इसी प्रकार तीन महीने-शेखर सुनता और देखता है, पर जीवन उसका भी स्थगित है...

मोहसिन पर दारोगा का क्रोध होता है, हजामत बनाने के अपराध में उसे सजाएँ मिलती हैं, कड़ा पहरा बिठाया जाता है; पर न जाने कैसे प्रति सोमवार परेड के समय उसकी दाढ़ी साफ और चिकनी होती है और वह कहीं से निकालकर उस्तरे की एक पुरानी पत्ती दारोगा के आगे पेश कर देता है... ऐसी खुली अवज्ञा असह्य है-दारोगा सजाएँ बढ़ाते जाते हैं-बेड़ी के बाद डंडा-बेड़ी, फिर खड़ी हथकड़ी, फिर रात हथकड़ी, फिर दो-दो और तीन-तीन सजाएँ एक साथ-रात को उल्टी हथकड़ी, और दिन-रात डंडा-बेड़ी, फिर ‘कसूरी खुराक’ यानी भोजन की बजाय पानी में घुला हुआ आटा... फिर एक दिन उसे बेंत लगाने की आज्ञा हुई, वार्डर उसे पकडक़र शेखर की कोठरी के सामने से ले गये, मोहसिन ने उसे देखकर हँसकर कहा, ‘देख मौलवी, मैं हज करने चला हूँ!’ पन्द्रह मिनट बाद वह उसी तरह अकड़ता हुआ चला आया-पर अबकी बार बिलकुल नंगा और कमर तक $खून से लथपथ-शेखर को देखकर बोला, ‘मौलवी, मुझे तेरे पास ला रहे हैं, अब गाना सुना करना!’ और बढ़ गया-घसीटकर आगे ले जाया गया...

स्तम्भित शेखर को वार्डर ने बताया, बेंत कसूरी थे, अदालती नहीं-यानी जेल के अपराध के कारण जेल अधिकारियों द्वारा लगवाये गये थे, इसलिए तेल में भिगोकर रखे गये थे और जल्लाद से पूरे जोर से लगवाये गये थे... जब मोहसिन तीस बेंत खा चुका और टिकटी से उतारा गया, तब दारोगा को देखकर बोला, ‘बस? अब तो मैं खलीफा हो गया, अब क्या है!’ इस पर छोटे अधिकारियों को मुस्कुराता देखकर दारोगा आपे से बाहर हो गया था; मोहसिन को एक और नया दंड मिला टाटवर्दी का! बेंत लगाने के लिए मोहसिन को नंगा तो किया ही गया था, जब उसके बाद पहनने के लिए उसे टाट-बोरिए का एक जाँघिया दिया गया, तब उसने उसे पहनने से इनकार कर दिया, इसलिए उसे नंगा ही कोठरी में भेजा गया-कोठरी भी बदलवा दी गयी कि पहरा और कड़ाई से हो सके। अब वह पूरबवाली फाँसी की कोठरियों में रखा गया है...

किन्तु न जाने कैसे, मोहसिन को परास्त नहीं किया जा सकता। अगले परेड में उसकी ठोढ़ी फिर चिकनी थी, और वह साभिमान नंगा ही साहब के सामने खड़ा था...

उसके बाद दारोगा ने अपना दैनिक अपमान देखना असम्भव पाकर मोहसिन को परेड में पेश करना ही छोड़ दिया, फाँसी की कोठरी से हटाकर एक और कोठरी में डाल दिया, जो जेल में कब्रिस्तान के नाम से प्रसिद्ध थी-उसमें प्राय: भीषण छूत रोगों के रोगी ही रखे जाते थे या लाइलाज बदमाश। जब ऐसा कोई व्यक्ति नहीं होता, तब खाली पड़ी रहती थी। मोहसिन ने हजामत करना नहीं छोड़ा और टाटवर्दी नहीं पहनी। दारोगा शायद इस आशा में रहे कि सर्दी आने पर वह स्वयं हार मानेगा-अगर टाटवर्दी ही पहन लेगा तो वही हार होगी। पर कार्तिक भी आया और मोहसिन में कोई परिवर्तन नहीं आया, केवल उसकी दुबली देह में हड्डियाँ और निकल आयीं, सूखी त्वचा और साँवली पड़ गयी... तब एक दिन शेखर ने सुना कि उसके शरीर पर कई-एक फोड़े निकल आये हैं, और डॉक्टर ने कहा कि उसे क्षय हो गया है...

एक दिन अपराजित मोहसिन को दफ्तर में बुलाया गया, वहाँ उसके अपने कपड़े पहनाये गये; पाँच मिनट बाद उसे पुलिस की लारी में बिठाकर चलता कर दिया गया। मालूम हुआ कि उसकी रिहाई समीप आ गयी थी, इसलिए उसे घर के जिले की जेल में भेज दिया गया...

और बाबा मदनसिंह भी अस्वस्थ रहने लगे। शेखर अब प्राय: नित्य ही उनसे मिलने जाता और देखता कि उस अत्यन्त बूढ़े चेहरे में तो कोई परिवर्तन नहीं आया है, पर उसका वह अंश जो अभी तक युवा था, वह तीव्र गति से वृद्धत्व का मार्ग तय कर रहा है-बाबा की... आँखें... इक्कीस-बाईस वर्ष के स्थगित जीवन का अन्धकार मानो एकाएक ही उन चमकीली आँखों की ज्योति को छा लेना चाहता है... इस बन्दी ऋषि के लिए शेखर के मन में गहरे आदर का भाव हो गया था, और जब से उसने सुना था कि बाबा को संग्रहणी हो गयी है, तब से एक गहरी चिन्ता हर समय उसे सताती रहती थी... दिनभर वह चिन्ता लिये रहता और सायं-प्रात: नियमपूर्वक वह बाबा के पास जाता, यही उसकी दिनचर्या हो गयी थी।

इसी तरह भादों बीता, आश्विन बीता, कार्तिक भी बीत चला। तब एक दिन सहसा शेखर के स्थगित जीवन में एक गहरा आघात हुआ और उसने पाया कि स्थगित कुछ नहीं है, उसके मर्म के ऊपर बहुत ही हल्का आच्छादन है, जो कभी भी छिन्न-भिन्न हो सकता है और मर्मस्थल को किसी भी चोट के लिए नंगा छोड़ दे सकता है...


फाँसी-कोठरियों की जिस कतार में शेखर था, उसमें कुल चार कोठरियाँ थीं। उनके वासी प्राय: बदलते रहते थे। एक कोठरी में शेखर था ही, बाकी तीन में उसके होते-होते ग्यारह आदमी आ चुके थे। दो-तीन वहाँ आने के बाद भी छूट गये थे, बाकी को फाँसी हो गयी थी।

आश्विन में एक दिन सन्ध्या समय एक नया आदमी लाया गया। शेखर ने कौतूहल से उसे देखा-23-24 वर्ष का जाट युवक, सुन्दर गठा हुआ शरीर, गोरा रंग, छोटी-छोटी ऐंठदार मूँछें, बड़ी स्वच्छ और निर्भीक आँखें-शेखर सोच नहीं सका कि वह आदमी हत्यारा हो सकता है। जब वार्डर उसे शेखर के साथवाली कोठरी में छोडक़र चले गये, तब शेखर ने पहरेवाले सन्तरी से उसके बारे में पूछकर जाना कि वह हत्यारा है, इसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया है।
उसका नाम था रामजी। नाम तो शेखर ने पहले ही दिन जान लिया था, दूसरे दिन शेखर के घूमने निकलने पर उसे बुलाकर परिचय भी कर लिया।

‘‘बाबूजी, ज़रा सुनिये तो!’’
शेखर उसकी कोठरी के आगे जा खड़ा हुआ था।
‘‘इस सुरंग के प्लेटफार्म पर आप कैसे?’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘आपको भी सजा हुई है क्या?’’

शेखर ने बता दिया कि वह अभी अभियुक्त है, स्वेच्छा से ही उस कोठरी में आया था।
‘‘तब तो आप बाहर से सामान मँगा सकते होंगे? मुझे कभी दो-एक सिगरेट दे दिया कीजिएगा-बुरी आदत है बाबूजी, पर अब तो फाँसी चढऩा ही है, इसलिए पी लेता हूँ-आप पीते हैं न?’’
‘‘नहीं, पर मँगा लूँगा, ले लिया करना।’’
‘‘आप हत्यारे पर इतना दया दिखाना बुरा तो नहीं समझते? नहीं तो-’’
‘‘इसमें दया की कौन-सी बात है-’’ शेखर रुक गया; एक प्रश्न उसकी जबान पर आया था, जो वह पूछना नहीं चाहता था।
‘‘आप रुक क्यों गये? कुछ पूछना चाहते थे-यही न कि मैंने हत्या क्यों की?’’
‘‘हाँ...’’
‘‘सो भी औरत की हत्या। आप जानते हैं न?’’
‘‘नहीं!’’
‘‘आपने पूछा है, तो सारी बात बता देता हूँ। अदालत में तो कह ही आया था।’’ कुछ रुककर कहने लगा, ‘‘गाँव में हमारी थोड़ी-सी जमींदारी थी- मेरे बड़े भाई की और मेरी। पर भाई को यह काम पसन्द नहीं आया, इसलिए वह भाभी को घर में छोडक़र नौकरी की तलाश में शहर चले गये थे। नौकरी उनकी लग भी गयी थी, और वे हर दूसरे महीने बीस-पच्चीस रुपया भाभी को भेज देते थे।’’

पर भाभी का मन अच्छा नहीं था। पड़ोस के जो लोग हमारे घर आकर भाई का हालचाल पूछा करते थे, उन्हीं में से एक से उसकी कुछ बातचीत हो गयी थी, और मेरे पीछे वह अकसर उससे मिलने आता था। मुझे कोई खबर नहीं थी; मुझे एक दिन एकाएक ही पता चला। भादों में एक दिन साँझ को घर आकर मैंने भाभी को बताया कि मुझे रात खेत पर ही रहना पड़ेगा, क्यों, इसमें आपको कोई दिलचस्पी नहीं होगी। खेत में काम था। मैं कहकर और बासी रोटी लेकर चला गया।

‘‘बारिश तो दिन में भी होती रही थी, पर रात को बड़े जोर की हुई और ओले भी पडऩे लगे, तब मैं काम छोडक़र लौट पड़ा। घर आकर दरवाजा खटखटाने पर बहुत देर तक नहीं खुला, आवाजें देने पर भी नहीं। जब मैं गुस्से में आकर तोडऩे लगा, तब भाभी ने आकर किवाड़ खोले और सहमी-सी एक तरफ़ खड़ी हो गयी। मैंने देखा, सामने वही आदमी खड़ा है, उसके कपड़े और जूते सूखे हैं जिससे जान पड़ता है, वह देर से आया हुआ है।’’

रामजी चुप हो गया। फिर लम्बी साँस लेकर बोला, ‘‘बाबूजी, मेरी जगह आप होते तो क्या करते?’’

शेखर कुछ उत्तर नहीं दे सका। चुपचाप खड़ा रहा। रामजी कहने लगा, ‘‘खैर, मैं तो जो कर चुका, कर चुका।’’ मैंने भीतर से पूछा कि यह कौन है, क्यों आया है? उसने जवाब नहीं दिया। मैंने उस आदमी से पूछा, वह भी नहीं बोला। तब मैंने भाभी को धमकाकर पूछा कि यह पहले भी आता रहा है? बहुत धमकाने पर बोली, कई बार आया है। मैंने पूछा, तू इसे चाहती है? तो कुछ नहीं बोली। मैंने आदमी से पूछा, वह भी नहीं बोला। तब मैंने कहा, ‘‘अगर तुम लोगों में प्रेम है, तो तुम ब्याह कर लो। मैं कुछ नहीं कहूँगा। पीछे जो होगी, सो मैं देख लूँगा। भाई को भी मना लूँगा। बोल, तू है तैयार?’’ भाभी कुछ नहीं बोली। मैंने उस आदमी से पूछा, तो वह बोला, ‘‘तू कौन है बीच में पडऩेवाला?’’

‘‘मुझे गुस्सा आ रहा था, पर मैं चाहता था भाभी से अन्याय न करूँ। भाभी तो वह नहीं रही थी, पर भाई के साथ जो तीन बरस रह चुकी थी, उसका कुछ लिहाज था ही। मैंने फिर पूछा, बता, ‘‘तू इससे ब्याह करने को तैयार है?’’ वह बोला, ‘‘मैं बीवी-बच्चेवाला आदमी हूँ, मैं क्यों मुसीबत मोल लूँ?’’ मैंने पूछा, ‘‘तब पहले क्यों इस घर में घुसा था?’’ वह बोला, ‘‘इसी ने बुलाया था।’’ उसके कमीनेपन पर मुझे इतना क्रोध आया कि मैं मुश्किल से सँभाल सका, पर किसी तरह मैंने कहा, ‘‘यह सब मैं नहीं जानता। या तो तुम दोनों ब्याह कर लो, या फिर जो मेरे मन में आएगा, करूँगा।’’

उसने मुझे गाली दी। भाभी से मैंने पूछा, ‘‘तू है तैयार? अगर है तो मैं इसे मनाकर छोड़ूँगा,’’ पर वह भी नहीं बोली। तब मेरी आँखों में खून उतर आया और मैंने गँड़ासे से दोनों को काट डाला।’

साँस लेने के लिए और शेखर पर बात का असर देखने के लिए वह थोड़ी देर रुका। फिर मैंने उसी वक्त थाने में जाकर बयान दे दिया-भाभी को मारकर मेरा मन दुनिया में रहने को नहीं हुआ। खूनी को मरना ही चाहिए। बस आगे तो जो होता है, सो है ही।

थोड़ी देर मौन रहा। फिर रामजी अपने आप बोला, ‘‘बाबूजी, मैं आपसे नहीं पूछूँगा, मैंने अच्छा किया या बुरा। मैं शरमिन्दा नहीं हूँ। और अच्छी तरह मरूँगा। मैंने इसीलिए अपील नहीं की है।’’

शेखर चुपचाप सोचता चला गया था। उसके बाद क्रमश: उसका परिचय बढ़ता गया था-शेखर के मन में कुछ स्नेह भी इस आधे जंगली और पूर्णत: ईमानदार व्यक्ति के लिए हो गया था।

कार्तिक में एक दिन सुना कि रामजी की अपील नामंजूर हो गयी है, और चौथे दिन उसे फाँसी हो जाएगी। रामजी ने अपील नहीं की थी, पर जेलवालों ने स्वयं ही उसकी ओर से हाईकोर्ट में दरखास्त भिजवा दी थी।

शेखर उदास था। पर रामजी पर मानो कोई असर नहीं था, जैसे कोई नई बात हुई ही नहीं थी।

शाम को रामजी ने शेखर को पुकारा, ‘‘बाबू साहब!’’
शेखर जँगले पर आकर बोला, ‘‘क्या है?’’
‘‘आपने कभी फाँसी देखी है?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘आप तो लिखनेवाले हैं न, आपको सब कुछ देखना चाहिए।’’
‘‘क्यों नहीं साहब से कहते, मेरी फाँसी देख लेने दें आपको? मुझे भी अकेला नहीं लगेगा-नहीं तो आखिरी समय सब जल्लादों का ही मुँह देखना पड़ेगा!’’

शेखर निस्तब्ध कुछ बोल नहीं सका। रामजी की फाँसी देखने की दरखास्त दे वह...!
‘‘बाबूजी, आप चुप क्यों हैं? इसमें बुराई नहीं है, एक बिचारे की मदद की है। मैं समझूँगा, मरते वक्त एक दोस्त मौजूद था।’’

शेखर ने काँपते स्वर में कहा, ‘‘अच्छा...’’
पर अनुमति नहीं मिली। शेखर ने उदास वाणी में रामजी से कहा, तो वह भी कुछ खिन्न होकर बोला, ‘‘जल्लाद, साले! सब जल्लाद हैं!’’ और चुप हो गया।
उस दिन शेखर बाहर नहीं निकला, कुछ बोला भी नहीं। रामजी ने कई बार बात करने की चेष्टा की, पर शेखर ‘हाँ-हाँ’ से अधिक नहीं कर सका। अन्त में शाम को रामजी बोला, ‘‘बाबूजी , आप तो कोई बात नहीं करते, उदास दीखते हैं। घर से कोई बुरी चिट्ठी आयी है क्या? लीजिए, मैं गाकर आपका मन बहलाता हूँ-ऐसा मौका कब मिलेगा?’’
शेखर लज्जा से गड़ गया...

रामजी आधी रात तक गाता रहा। फिर न जाने कब शेखर को नींद आ गयी...
एक दिन और भी किसी तरह बीत गया। रात आयी, तब फिर रामजी गाने लगा। आधी रात के लगभग उसने थककर कहा, ‘‘बाबूजी, अब आप कुछ सुनाइए, मैं तो थक गया। सुनता-सुनता सो जाऊँगा।’’
शेखर गा नहीं सकता था। पर रामजी के लिए कुछ गाने की कोशिश की। सफलता नहीं मिली। रामजी ने मीठी चुटकी ली, ‘‘बाबूजी, आप मेरे ही लिए गा रहे हैं...’’ तब शेखर कहानियाँ कहने लगा-कभी पुराणों से, कभी विदेशी साहित्य से, कभी एक-आध अपने जीवन की घटना... रामजी का ‘हूँ-हूँ’ धीमा पडऩे लगा और नीरव हो गया, शेखर ने वार्डर से पूछकर जाना कि वह सो गया है।
पर शेखर नहीं सो सका। जेल की ‘सब अच्छा’ की पुकारों की ताल पर रात बीतती चली... एकाएक ऊँघ से चौंककर शेखर ने देखा, उषा फूट रही है। डॉक्टर रामजी की परीक्षा के लिए आया है।
‘‘डॉक्टर साहब, टाँग तो आप देंगे ही, फिर नाड़ी क्यों देखते हैं?’’
‘‘भाई, मेरा फर्ज है सो अदा करता हूँ। तुम भी खुदा को याद करो।’’
डॉक्टर गया। दिन निकलते-निकलते साहब, दारोगा, मजिस्ट्रेट चीफ वार्डर और वार्डरों की फौज आ गयी।
शेखर अपनी कोठरी के जँगले पर खड़ा जो देख सकता था, देखता था, बाकी सुनने की कोशिश कर रहा था।
रामजी की तलाशी ली जा रही थी। हाथ बाँधे जा रहे थे- बाहर निकाला जा रहा था-
‘‘क्या वसीयत लिखानी है? किसी को कुछ कहना है?’’
‘‘इन साथवाले बाबूजी से दो मिनट बात कर लूँ?’’
कोई तीन सेकेंड बाद साहब का उत्तर, ‘‘नहीं, यह तो हम नहीं कर सकते!’’
‘‘तब चलिए।’’
कुछ घबराहट, कुछ अव्यवस्था, कुछ गति...
एकाएक आँगनों को जोडऩेवाले फाटक पर रामजी, ‘‘अच्छा बाबूजी, अब तो फिर कभी मिलेंगे, उस पार कहीं-’’ एक द्रुत मुस्कान-जुलूस चला गया-
और जँगले भींचकर पकड़े हुए खड़ा शेखर सहसा पाता है कि उसकी मुट्ठियाँ खुल गयी हैं, हाथ छटक गये हैं, सिर झुक गया है...

छ: दिन के बाद शेखर ने बाहर निकलने का विचार किया ही था कि एक और घटना हुई, जिसने उस बुरे स्वप्न-जैसी अवस्था को तीन दिन और बढ़ा दिया। शशि का पत्र आया कि वह बहुत कष्ट में है, और मनाती है कि शीघ्र उसे जीवन से छुटकारा मिल जाए.. क्यों, क्या कष्ट है, कुछ नहीं लिखा था-कल्पना के दानव के लिए ही यह छोड़ दिया था कि वह उस दु:स्वप्न में मनमाने रंग भरे...

शेखर सोचता था, जेल में जीवन स्थापित हो जाता है! और यह क्या है, जो मानो उसे पटककर उसके गले पर चढ़ बैठा है और कह रहा है, ‘‘मैं स्थगित? तो ले देख, यह मेरा बोझ और मेरी गति की चोट!’’ आह, नहीं सहा जाता... नहीं सहा जाता... नहीं सहा जाता जीवन, नहीं सहे जाते बन्धन...

क्यों नहीं सहे जाते? दुर्बल, कायर, झूठा कहीं का! उसके सामने ही मामूली से मामूली आदमी, जीवन की हर एक दने से वंचित, धन से, कुल से, आत्मीयों से, विद्या से वंचित, जीवन का सामना करते हुए चले जाते हैं, और वह अभिमानी रोता है कि मैं उसे नहीं सह सकता... कायर, दम्भी ...वेदना होती है... सम्वेदना होती है... सम्वेदना क्या है, जो जीवन को गहरा नहीं बनाती, धनी नहीं बनाती, जीवन के लिए कृतज्ञ नहीं बनाती? सम्वेदना की दुहाई देकर जीवन से डरता है! आत्मवंचक...

पीड़ा और अपमान से जलकर सहसा शेखर उठ बैठा, उन्मत्त साँड़ की तरह कन्धे झुकाकर जीवन के दबाव से टक्कर लेने को तैयार.. फूले हुए नथुनों से फुंकार की तरह साँस लेता हुआ, पृथ्वी को पैरों से मानो रौंदता हुआ वह कोठरी से बाहर निकला कि टहलेगा, सबसे मिलेगा, और नहीं दीखने देगा कि जीवन उसके लिए स्थगित है, बल्कि दुगुनी गति से चल रहा है...

बाबा मदनसिंह खड्डी पर दीवार के सहारे बैठे थे। शेखर ने एक बार उनके चेहरे की ओर देखा, उसकी जिह्वा पर आया हुआ प्रश्न वहीं रह गया। बाबा की हालत अच्छी नहीं थी।
बाबा उठे नहीं, मुस्कुराये भी नहीं। शेखर ने देखा, जटा और दाढ़ी के बीच अब त्वचा भी सफेद हो गयी है, अब केवल आँखें हैं जिनमें रंग है-और रंग ही नहीं, आज उनमें दीप्ति है-वे जल रही हैं...

‘‘तुम आये... इतने दिन कहाँ रहे?’’
‘‘मेरा मन ठीक नहीं था। मेरे पड़ोसी को फाँसी हो गयी।’’
‘‘मेरा भी मन ठीक नहीं है शेखर! शरीर तो अब चला ही, मन भी बहुत खराब है।’’
‘‘क्यों बाबा?’’
‘‘कुछ नहीं, कमजोरी! मैं बाहर के समाचार सुनता-पढ़ता हूँ, तो विचलित हो जाता हूँ!’’
‘‘कैसे समाचार?’’
‘‘तुमने चटगाँव का हाल पढ़ा है?’’
‘‘हाँ-’’
‘‘वहाँ जो गोली-ओली चली, उसका नहीं, उसके बाद जो कुछ हुआ उसका?’’
शेखर ने अख़बार में पढ़ा था कि वहाँ काफ़ी सख्ती हो रही है, कई तरह की मनाहियाँ जारी हुई हैं, और यह भी पढ़ा था कि वहाँ के समाचार छपने नहीं दिये जाते, तार और चिट्ठियाँ रोकी जा रही हैं।
‘‘और’’
‘‘और तो मैं नहीं जानता।’’
‘‘शेखर, सुना है कि वहाँ सैनिक मनमानी कर रहे हैं, गाँव के लागों को पीट-पीटकर सलामी कराई जाती है, स्त्रियों पर बलात्कार किया जाता है, और-और...’’ एकाएक बाबा का गला रुँध गया, वे कुछ बोल नहीं सके, आवेश में खड़े हो गये...
‘‘कहाँ सुना आपने?’’
‘‘मुझे चिट्ठी आयी है-’’
‘‘पर जब खबरें नहीं आतीं, तब चिट्ठी भेजनेवाले ने कैसे जाना?’’

‘‘जाना नहीं, सुना। तुम यही कहना चाहते हो न कि ये अफवाहें हैं, हुआ ही करती हैं, झूठी हैं, कोई प्रमाण नहीं है, जब तक पूरा पता न मिले, तब तक कुछ कहना अनुचित है? ऐसी बहुत बातें मैं भी सोच चुका हूँ! पर यह सब धोखा है। मेरा क्रोध इसलिए नहीं कि मेरे पास प्रमाण है; क्रोध इसलिए है कि प्रमाण नहीं है। तुम नहीं समझते, हमारी परिस्थिति कितनी भयंकर है, कितनी विवश है कि ऐसे-ऐसे संगीन अभियोगों की भी हम जाँच नहीं कर सकते; उसके प्रमाण में या सफाई में ही, कुछ पूछताछ नहीं कर सकते, कुछ जान नहीं सकते! ये अभियोग सच ही हैं, ऐसा मैं नहीं कहता। लेकिन ये अभियोग लगाये जा रहे हैं, और हमारे पास साधन नहीं हैं कि हम जाँच करें। इन साधनों को पाना अधिकार है, और वह अधिकार हमें नहीं मिल रहा...’’

बाबा जँगले के पास आ गये। भिंची हुई मुठ्ठी शेखर की ओर उठाकर उन्होंने कहा, ‘‘दासता... एकदम घृणित परवशता- और किसे कहते हैं? अप्रिय के ज्ञान को नहीं, असत्य में विश्वास को भी नहीं, दासता कहते हैं उस अवस्था को, जिसमें हम सत्य और असत्य को जानने में असमर्थ हो जाते हैं; दासता वह बन्धन, वह मनाही, जो हमारा ज्ञान आँकने का अधिकार छीन लेती है...’’

एकाएक वे रुक गये। ‘‘यह बात शायद मैं पहले कह चुका हूँ-इसका अनुभव किये मुझे एक वर्ष हो गया।’’ वे एक खोखली हँसी हँसे। ‘‘एक साल पहले जानी हुई बात आज सत्य बनकर चुभती है, और मैं बँधा हुआ हूँ!’’ बाबा की साँस फूल गयी थी। दो-तीन लम्बी साँसें खींचकर उन्होंने फिर कहा, ‘‘शेखर, चटगाँव हमारे राष्ट्रीय चरित्र पर कलंक है। यही मेरी समझ में क्रान्ति का प्रमाण है-उसके लिए चारित्र्य की आवश्यकता है, वह चारित्र्य बनाती है-और उससे बड़ी चीज़ क्या है? हमें चारित्र्य चाहिए, तो हमें क्रान्ति चाहिए! क्रान्ति! और मैं बँधा हुआ हूँ...’’

बाबा खड्डी पर लौट गये। फीके स्वर में बोले, ‘‘शेखर, तुम जाओ। मेरा मन ठीक नहीं है। मैंने चाहा था, तुम मुझे हँसता ही देखो-संसार मुझे हँसता ही देखे, पर ऐसे भी दर्द होते हैं, जो अभिमान से भी बड़े हों। यदि मैं आज सीख रहा हूँ-अच्छा हुआ कि इतना तीखा दर्द मुझे मिला! जाओ।’’

शेखर चुपचाप, सहमा हुआ और रोमांचित अपनी कोठरी में लौट आया।

तीसरे दिन शाम को बाबा की हालत बहुत खराब हो गयी। डॉक्टर ने अस्पताल में ले जाना चाहा, पर बाबा ने कहा, ‘‘एक दिन के लिए वहाँ नहीं जाऊँगा। मैंने अपने जीवन का उत्तर अंश कोठरी में बिताया है, अब सबसे महत्त्व का दिन कहीं और बिताने नहीं जाऊँगा।’’ कोई और होता तो जबरदस्ती ले जाते, बाबा से जबरदस्ती करने का साहस किसी में नहीं था। डॉक्टर एक वार्डर की ड्यूटी वहाँ लगवाकर चले गये, एक बार रात में भी आकर देख गये।
शेखर को समाचार कोठरी में बन्द होने के बाद मिला था। जेल में बाबा का कितना आदर था, उसने तभी जाना। उस रात जैसा सन्नाटा उसने जेल में नहीं देखा था-बाबा की बीमारी की खबर कानो-कान फैल गयी थी, और नम्बरदार लोग ‘सब अच्छा!’ भी धीमे, सहमे-से स्वर में पुकार रहे थे...

‘‘एक दिन के लिए... सबसे महत्त्व का दिन... सचमुच?’’ शेखर के भीतर प्रार्थना का भाव उमड़ आया...

सबेरे कोठरी खाली हो गयी।

जब कोठरियाँ खुलीं, तब बाबा का शरीर हटाया जा चुका था। कोठरियाँ खुलने में देर होती देखकर शेखर ने वार्डर से पूछा था, ‘‘क्या आज कोई फाँसी है?’’ क्योंकि ऐसे ही दिनों खुलने में देर होती थी।
‘‘नहीं!’’ वार्डर हिचकिचाकर रुक गया था।
‘‘तब?’’ और फिर एकाएक भय से प्रकाश पाकर, ‘‘क्या बाबा...’’
वार्डर बोला नही था...
शेखर दौड़ा हुआ बाबा की कोठरी की ओर गया, जैसे कोई भक्त भूकम्प से ध्वस्त मन्दिर की ओर जाता है...
कोई कह रहा था... रात में उठ बैठे, घंटा-भर रोते रहे। फिर दीवार से सटकर खड़े है, और फिर आकर लेट गये और बोले, ‘‘अब चल! बस..’’
यह रात की ड्यूटीवाला वार्डर था। शेखर तड़पकर कोठरी के भीतर घुसा.. हाँ, उसका अनुमान ठीक था, दीवार पर काँपते अक्षरों में एक नया लेख था...
‘‘अन्तिम सूत्र-अभिमान से भी बड़ा दर्द होता है, पर दर्द से भी बड़ा एक विश्वास है...’’
बाबा के पैर छूने में शेखर ने अपमान समझा था, उसके लिए अपने को कोसते हुए उसने उस अन्तिम सूत्र पर माथा टेक दिया, फिर आँखों में आये हुए दो बड़े-बड़े आँसुओं का निर्लज्ज-भाव वार्डरों को दिखाता हुआ कोठरी में चला गया-
दर्द से भी बड़ा एक विश्वास है...

बेहूदे दिन...
मुकदमा समाप्त हो गया था। सफाई की काफ़ी-सी तैयारी करने के बााद एकाएक यह परिणाम निकला कि सफाई देना व्यर्थ है। वादी पक्ष कमजोर हो, तो प्रतिवाद से लाभ नहीं होता, हानि हो सकती है। केवल विद्याभूषण के लिए कुछ गवाहियाँ पेश की गयी थीं; और उन सबके बयान एक ही दिन में हो गये थे क्योंकि जिरह नहीं की गयी थी.. वकीलों की तू-तू मैं-मैं भी हो गयी थी जिसे बहस कहते हैं।

‘‘अब मैं फैसला ही सुनाऊँगा.. उसकी तारीख फिर तय की जाएगी, अभी आरजी तौर पर तारीख डाल देता हूँ।’’ और हाकिम ने मुकदमे की अवधि तेरह दिन और बढ़ा दी थी...
ये दिन बीतते नहीं थे। यह नहीं कि फैसले के बारे में बहुत अधिक चिन्ता या उत्कंठा थी, पर इस प्रकार आकाश में लटके रहना... मुकदमा समाप्त हो चुका है, फैसले के लिए जो कुछ आधार होता है, सब सामने आ चुका है, शायद हाकिम ने मन-ही-मन फैसला कर भी लिया है। अब केवल जानने की देर है, और इसके लिए तेरह दिन बैठे रहना होगा! नहीं, तेरह दिन बाद तो यही विदित होगा कि फैसला किस दिन सुनाया जाएगा...

अन्त में तेरहवाँ दिन आया... दुपहर हो गयी, अदालत जाने के लिए बुलाहट नहीं आयी। शेखर ने समझ लिया, हाकिम ने उन्हें बुलाये बिना तारीख डाल दी होगी, अपने-आप पता चल जाएगा। वह लेटकर सोचने लगा, सोचते-सोचते सो गया।
‘‘बाबूजी, बाबूजी? आपको द$फ्तर में बुलाया है?’’
शेखर हड़बड़ाकर उठा, ‘‘किसने बुलाया है?’’
‘‘दारोगा साहब ने।’’
‘‘मुलाकात है?’’
‘‘नहीं, दफ्तर में बुलाया है। पेशी है।’’
‘‘कैसी पेशी?’’ कहकर शेखर वार्ड के साथ चल पड़ा।

दफ्तर पहुँचकर मालूम हुआ कि मुकदमे का फै सला सुना दिया गया है। शेखर के बारे में मजिस्ट्रेट की राय है कि उसके विरुद्ध गवाही इतनी दृढ़ नहीं है कि सजा दी जा सके, यद्यपि सन्देह बहुत अधिक होता है। किन्तु अगर प्रमाण अकाट्य भी होता, तो भी शायद जितनी कैद वह भुगत चुका है वह पर्याप्त होती, इसीलिए उसे छोड़ा जाता है।

बेजान-से स्वर में दरोगा ने कहा, ‘‘बधाई है। आप अब आज़ाद हैं। दफ्तर से अपना सामान वगैरह ले लीजिए।’’
‘‘अरे बाकी लोग? पूरा फैसला तो सुनाइए-’’
‘‘विद्याभूषण को एक वर्ष; सन्तराम और केवलराम को छ:-छ: महीने, हंसराज रिहा हो गया है।’’
‘‘मैं उनसे मिल नहीं सकता?’’
दारोगा जोर से हँसे। ‘‘आपने सुना नहीं, जेल की यारी क्या होती है? कैदियों से कभी कोई मिलता है?’’
‘‘तो आप नहीं मिलने देंगे?’’
‘‘वे अब कैदी हैं। तीन महीने में एक मुलाकात कर सकते हैं। आप दरखास्त दे सकते हैं; पर आप मिलेंगे तो तीन महीने तक वे दूसरी मुलाकात नहीं कर सकेंगे। शायद इसके लिए वे आपके शुक्रमन्द नहीं होंगे।’’!
‘‘और हंसराज?’’
‘‘उसे एक घंटा पहले रिहा कर दिया गया है।’’
शेखर चुपचाप दफ्तर में चला गया।

दस महीने नष्ट...
उदास भाव से शेखर दफ्तर की कार्यवाही समाप्त करने के बाद ड्योढ़ी का फाटक खुलने की प्रतीक्षा में खड़ा था। उसे लेने कोई नहीं आया था-किसी को खबर नहीं थी। वकील को रही होगी, वे अभी काम में व्यस्त होंगे.. अकेला ही वह बाहर निकलेगा, अकेला और उदास-जीवन के बड़े-बड़े दस महीने नष्ट करके...
नष्ट? बाबा मदनसिंह ने इक्कीस वर्ष वहाँ बिताए थे, और उसके बाद भी लिख गये थे कि दर्द में भी बड़ा एक विश्वास है... इस एक बात को जानने में दस महीने सफल हो जाते-और उसने बाबा मदनसिंह को जाना था, मोहसिन को जाना था, रामजी को जाना था, स्वयं अपने को जाना था...नष्ट? अकृतज्ञ शेखर...
दस दीर्घ जीवनाक्रान्त महीने...बन्धनों का अन्त-जिज्ञासाओं का अन्त-जीवन, केवल जीवन, विस्तृत और अबाध जीवन...
किन्तु जब फाटक खडख़ड़ाकर खुलने लगा, बाहर का दृश्य उसे सामने आ गया, ठीक उसी के सामने, बिना सींखचों की ओट लिये, तब एकाएक उसे अपनी बात पर सन्देह हो आया। बन्धनों का अन्त? जिज्ञासा का अन्त? शेखर को बहुत पहले पढ़ी हुई कविता की दो पंक्तियाँ याद आयीं :
 

Peace, peace, such a small lamp
illumines, on this highway.
So dimly, So few steps infront of my feet1

(1. शान्ति, शान्ति! इस राजमार्ग पर केवल एक छोटा-सा दीप आलोकित करता है-इसके फीके प्रकाश से इतने थोड़े-से क़दम मेरे चरणों के आगे...)

सभी कुछ जानने को है अभी, सभी कुछ काट गिराने को है...
और शशि?
सहारे के लिए केवल एक छोटी-सी बात पर बाबा ने लिखा था, अन्तिम सूत्र...उन्हीं के लिए अन्तिम, या मानव-मात्र के लिए अन्तिम?...
फाटक उसके पीछे बन्द हो गये थे। वह मुक्त था।
‘अभिमान से भी बड़ा दर्द होता है, पर दर्द से भी बड़ा एक विश्वास है...’





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