Monday, March 26, 2012

मिर्ज़ा ग़ालिब


मिर्ज़ा ग़ालिब
(1796 - 1869)
1. कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तूने हमनशीं
2. मज़े जहाँ के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
3. है बस कि हर इक उनके इशारे में निशाँ और
4. हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था
5. दोनों जहाँ देके वो समझे ये ख़ुश रहा
6. आमद-ए-ख़त से हुआ है सर्द जो बाज़ार-ए-दोस्त
7. मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें
 8. फिर खुला है दर-ए-अदालत-ए-नाज़
 9. न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही
10. महरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
11. फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया

12. कभी नेकी भी उसके जी में आ जाये है मुझसे
13. आईना क्यूँ न दूँ के तमाशा कहें जिसे
14. दिया है दिल अगर उस को, बशर है क्या कहिये
15. दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई
16. बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे
17. आह को चाहिये इक उम्र असर होने तक
18. बे-ऐतदालियों से सुबुक सब में हम हुए
19. धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीमतन के पाँव
20. बहुत सही ग़म-ए-गेती शराब कम क्या है
21. ज़ुल्‌मत-कदे में मेरे शब-ए ग़म का जोश है
22. आ कि मेरी जान को क़रार नहीं है
23. सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं

 

कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तूने हमनशीं

कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तूने हमनशीं
इक तीर मेरे सीने में मारा के हाये हाये

वो सब्ज़ा ज़ार हाये मुतर्रा के है ग़ज़ब
वो नाज़नीं बुतान-ए-ख़ुदआरा के हाये हाये

सब्रआज़्मा वो उन की निगाहें के हफ़ नज़र
ताक़तरूबा वो उन का इशारा के हाये हाये

वो मेवा हाये ताज़ा-ए-शीरीं के वाह वाह
वो बादा हाये नाब-ए-गवारा के हाये हाये
मज़े जहाँ के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं

मज़े जहाँ के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
सिवाय ख़ून-ए-जिगर, सो जिगर में ख़ाक नहीं

मगर ग़ुबार हुए पर हव उड़ा ले जाये
वगर्ना ताब-ओ-तवाँ बाल-ओ-पर में ख़ाक नहीं

ये किस बहीश्तशमाइल की आमद-आमद है
के ग़ैर जल्वा-ए-गुल राहगुज़र में ख़ाक नहीं

भला उसे न सही, कुछ मुझी को रहम आता
असर मेरे नफ़स-ए-बेअसर में ख़ाक नहीं

ख़्याल-ए-जल्वा-ए-गुल से ख़राब है मैकश
शराबख़ाने के दीवर-ओ-दर में ख़ाक नहीं

हुआ हूँ इश्क़ की ग़ारतगरी से शर्मिंदा
सिवाय हसरत-ए-तामीर घर में ख़ाक नहीं

हमारे शेर हैं अब सिर्फ़ दिल्लगी के 'असद'
खुला कि फ़ायेदा अर्ज़-ए-हुनर में ख़ाक नहीं
है बस कि हर इक उनके इशारे में निशाँ और

है बस कि हर इक उनके इशारे में निशाँ और
करते हैं मुहब्बत तो गुज़रता है गुमाँ और

या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात
दे और दिल उनको जो न दे मुझको ज़ुबाँ और

आबरू से है क्या उस निगाह -ए-नाज़ को पैबंद
है तीर मुक़र्रर मगर उसकी है कमाँ और

तुम शहर में हो तो हमें क्या ग़म जब उठेंगे
ले आयेंगे बाज़ार से जाकर दिल-ओ-जाँ और

हरचंद सुबुकदस्त हुए बुतशिकनी में
हम हैं तो अभी राह में है संग-ए-गिराँ और

है ख़ून-ए-जिगर जोश में दिल खोल के रोता
होते कई जो दीदा-ए-ख़ूँनाबफ़िशाँ और

मरता हूँ इस आवाज़ पे हरचंद सर उड़ जाये
जल्लाद को लेकिन वो कहे जाये कि हाँ और

लोगों को है ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब का धोका
हर रोज़ दिखाता हूँ मैं इक दाग़-ए-निहाँ और

लेता न अगर दिल तुम्हें देता कोई दम चैन
करता जो न मरता कोई दिन आह-ओ-फ़ुग़ाँ और

पाते नहीं जब राह तो चढ़ जाते हैं नाले
रुकती है मेरी तब'अ तो होती है रवाँ और

हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और
हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था
आप आते थे मगर कोई इनाँगीर भी था

तुम से बेजा है मुझे अपनी तबाही का गिला
उस में कुछ शाइब-ए-ख़ूबी-ए-तक़दीर भी था

तू मुझे भूल गया हो तो पता बतला दूँ
कभी फ़ितराक में तेरे कोई नख़्चीर भी था

क़ैद में थी तेरे वहशी को तेरी ज़ुल्फ़ की याद
हाँ कुछ एक रंज-ए-गिराँबारि-ए-ज़ंजीर भी था

बिजली एक कौंध गई आँखों के आगे, तो क्या
बात करते, कि मैं लब तश्ना-ए-तक़रीर भी था

यूसुफ़ उस को कहूँ और कुछ न कहे, ख़ैर हुई
गर बिगड़ बैठे तो मैं लायक़-ए-ता'ज़ीर भी था

देख कर ग़ैर को क्यूँ हो न कलेजा ठंडा
नाला करता था वले तालिब-ए-तासीर भी था

पेशे में ऐब नहीं, रखिये न फ़रहाद को नाम
हम ही आशुफ़्तासरों में वो जवाँ मीर भी था

हम थे मरने को खड़े पास न आया न सही
आख़िर उस शोख़ के तरकश में कोई तीर भी था

पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर नाहक
आदमी कोई हमारा दम-ए-तहरीर भी था

रेख्ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो "ग़ालिब"
कहते हैं अगले ज़माने में कोई "मीर" भी था
दोनों जहाँ देके वो समझे ये ख़ुश रहा

दोनों जहाँ देके वो समझे ये ख़ुश रहा
यांआ पड़ी ये शर्म की तकरार क्या करें

थक थक के हर मक़ाम पे दो चार रह गये
तेरा पता न पायें तो नाचार क्या करें

क्या शमा के नहीं है हवा ख़्वाह अहल-ए-बज़्म
हो ग़म ही जां गुदाज़ तो ग़मख़्वार क्या करें

आमद-ए-ख़त से हुआ है सर्द जो बाज़ार-ए-दोस्त
दूद-ए-शम-ए-कुश्ता था शायद ख़त-ए-रुख़्सार-ए-दोस्त

ऐ दिले-ना-आकिबतअंदेश ज़ब्त-ए-शौक़ कर
कौन ला सकता है ताबे-जल्वा-ए-दीदार-ए-दोस्त

ख़ाना वीराँसाज़ी-ए-हैरत तमाशा कीजिये
सूरत-ए-नक़्शे-क़दम हूँ रफ़्ता-ए-रफ़्तार-ए-दोस्त

इश्क़ में बेदाद-ए-रश्क़-ए-ग़ैर ने मारा मुझे
कुश्ता-ए-दुश्मन हूँ आख़िर गर्चे था बीमार-ए-दोस्त

चश्म-ए-मय रौशन कि उस बेदर्द का दिल शाद है
दीदा-ए-पुर-ख़ूँ हमारा सागर-ए-सर-शार-ए-दोस्त

मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें
चल निकलते जो मै पिये होते

क़हर हो या बला हो, जो कुछ हो
काश के तुम मेरे लिये होते

मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी या रब कई दिये होते

आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब'
कोई दिन और भी जिये होते
फिर खुला है दर-ए-अदालत-ए-नाज़

फिर खुला है दर-ए-अदालत-ए-नाज़
गर्म बाज़ार-ए-फ़ौजदारी है

हो रहा है जहाँ में अँधेर
ज़ुल्फ़ की फिर सरिश्तादारी है

फिर दिया पारा-ए-जिगर ने सवाल
एक फ़रियाद-ओ-आह-ओ-ज़ारी है

फिर हुए हैं गवाह-ए-इश्क़ तलब
अश्क़बारी का हुक्मज़ारी है

दिल-ओ-मिज़श्माँ का जो मुक़दमा था
आज फिर उस की रूबक़ारी है

बेख़ूदी बेसबब नहीं 'ग़ालिब'
कुछ तो है जिस की पर्दादारी है
न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही

न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही
इम्तिहाँ और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही

ख़ार-ख़ार-ए-अलम-ए-हसरत-ए-दीदार तो है
शौक़ गुलचीन-ए-गुलिस्तान-ए-तसल्ली न सही

मय परस्ताँ ख़ूम-ए-मय मूंह से लगाये ही बने
एक दिन गर न हुआ बज़्म में साक़ी न सही

नफ़ज़-ए-क़ैस के है चश्म-ओ-चराग़-ए-सहरा
गर नहीं शम-ए-सियहख़ाना-ए-लैला न सही

एक हंगामे पे मौकूफ़ है घर की रौनक
नोह-ए-ग़म ही सही, नग़्मा-ए-शादी न सही

न सिताइश की तमन्ना न सिले की परवाह्
गर नहीं है मेरे अशार में माने न सही

इशरत-ए-सोहबत-ए-ख़ुबाँ ही ग़नीमत समझो
न हुई "ग़ालिब" अगर उम्र-ए-तबीई न सही
महरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त

महरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ के फिर आ भी न सकूँ

ज़ौफ़ में ताना-ए-अग़यार का शिक्वा क्या है
बात कुछ सर तो नहीं है के उठा भी न सकूँ

ज़हर मिलता ही नहीं मुझको सितमगर वर्ना
क्या क़सम है तेरे मिलने की के खा भी न सकूँ
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया

फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
दिल जिगर तश्ना-ए-फ़रियाद आया

दम लिया था न क़यामत ने हनोज़
फिर तेरा वक़्त-ए-सफ़र याद आया

सादगी हाये तमन्ना यानी
फिर वो नैइरंग-ए-नज़र याद आया

उज़्र-ए-वामाँदगी अए हस्रत-ए-दिल
नाला करता था जिगर याद आया

ज़िन्दगी यूँ भी गुज़र ही जाती
क्यों तेरा राहगुज़र याद आया

क्या ही रिज़वान से लड़ाई होगी
घर तेरा ख़ुल्‌द में गर याद आया

आह वो जुर्रत-ए-फ़रियाद कहाँ
दिल से तंग आके जिगर याद आया

फिर तेरे कूचे को जाता है ख़्याल
दिल-ए-ग़ुमगश्ता मगर याद् आया

कोई वीरानी-सी-वीराँई है
दश्त को देख के घर याद आया

मैं ने मजनूँ पे लड़कपन में 'असद'
संग उठाया था के सर याद आया
कभी नेकी भी उसके जी में आ जाये है मुझसे
जफ़ायें करके अपनी याद शर्मा जाये है मुझसे

ख़ुदाया! ज़ज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उलटी है
कि जितना खेंचता हूँ और खिंचता जाये है मुझसे

वो बद ख़ूँ और मेरी दास्तन-ए-इश्क़ तूलानी
इबारत मुख़तसर, क़ासिद भी घबरा जाये है मुझसे

उधर वो बदगुमानी है, इधर ये नातवनी है
ना पूछा जाये है उससे, न बोला जाये है मुझसे

सँभलने दे मुझे ए नाउमीदी, क्या क़यामत है
कि दामाने ख़्याले यार छूता जाये है मुझसे

तकल्लुफ़ बर तरफ़ नज़्ज़ारगी में भी सही, लेकिन
वो देखा जाये, कब ये ज़ुल्म देखा जाये है मुझसे

हुए हैं पाँव ही पहले नबर्द-ए-इश्क़ में ज़ख़्मी
न भागा जाये है मुझसे, न ठहरा जाये है मुझसे

क़यामत है कि होवे मुद्दई का हमसफ़र 'ग़ालिब'
वो काफ़िर, जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाये है मुझसे
आईना क्यूँ न दूँ के तमाशा कहें जिसे
ऐसा कहाँ से लाऊँ के तुझसा कहें जिसे

हसरत ने ला रखा तेरी बज़्म-ए-ख़्याल में
गुलदस्ता-ए-निगाह सुवेदा कहें जिसे

फूँका है किसने गोशे मुहब्बत में ऐ ख़ुदा
अफ़सून-ए-इन्तज़ार तमन्ना कहें जिसे

सर पर हुजूम-ए-दर्द-ए-ग़रीबी से डलिये
वो एक मुश्त-ए-ख़ाक के सहरा कहें जिसे

है चश्म-ए-तर में हसरत-ए-दीदार से निहाँ
शौक़-ए-इनाँ गुसेख़ता दरिया कहें जिसे

दरकार है शिगुफ़्तन-ए-गुल हाये ऐश को
सुबह-ए-बहार पंबा-ए-मीना कहें जिसे

"ग़ालिब" बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है के सब अच्छा कहें जिसे

दिया है दिल अगर उस को, बशर है क्या कहिये
हुआ रक़ीब तो हो, नामाबर है, क्या कहिये

ये ज़िद्, कि आज न आवे और आये बिन न रहे
क़ज़ा से शिकवा हमें किस क़दर है, क्या कहिये

रहे है यूँ गह-ओ-बेगह के कू-ए-दोस्त को अब
अगर न कहिये कि दुश्मन का घर है, क्या कहिये

ज़िह-ए-करिश्म के यूँ दे रखा है हमको फ़रेब
कि बिन कहे ही उंहें सब ख़बर है, क्या कहिये

समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल
कि ये कहे कि सर-ए-रहगुज़र है, क्या कहिये

तुम्हें नहीं है सर-ए-रिश्ता-ए-वफ़ा का ख़्याल
हमारे हाथ में कुछ है, मगर है क्या कहिये

उंहें सवाल पे ज़ओम-ए-जुनूँ है, क्यूँ लड़िये
हमें जवाब से क़तअ-ए-नज़र है, क्या कहिये

हसद सज़ा-ए-कमाल-ए-सुख़न है, क्या कीजे
सितम, बहा-ए-मतअ-ए-हुनर है, क्या कहिये

कहा है किसने कि "ग़ालिब" बुरा नहीं लेकिन
सिवाय इसके कि आशुफ़्तासर है क्या कहिये
दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई

दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई
दोनों को इक अदा में रज़ामन्द कर गई

शक़ हो गया है सीना ख़ुशा लज़्ज़त-ए-फ़राग़
तक्लेएफ़-ए-पर्दादारी-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर गई

वो बादा-ए-शबाना की सरमस्तियाँ कहाँ
उठिये बस अब के लज़्ज़त-ए-ख़्वाब-ए-सहर गई

उड़ती फिरे है ख़ाक मेरी कू-ए-यार में
बारे अब ऐ हवा, हवस-ए-बाल-ओ-पर गई

देखो तो दिल फ़रेबि-ए-अंदाज़-ए-नक़्श-ए-पा
मौज-ए-ख़िराम-ए-यार भी क्या गुल कतर गई

हर बुलहवस ने हुस्न परस्ती शिआर की
अब आबरू-ए-शेवा-ए-अहल-ए- नज़र गई

नज़्ज़ारे ने भी काम किया वाँ नक़ाब का
मस्ती से हर निगह तेरे रुख़ पर बिखर गई

फ़र्दा-ओ-दीं का तफ़र्रूक़ा यक बार मिट गया
कल तुम गए के हम पे क़यामत गुज़र गई

मारा ज़माने ने 'असदुल्लह ख़ाँ" तुम्हें
वो वलवले कहाँ, वो जवानी किधर गई

बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे

इक खेल है औरंग-ए-सुलेमाँ मेरे नज़दीक
इक बात है एजाज़-ए-मसीहा मेरे आगे

जुज़ नाम नहीं सूरत-ए-आलम मुझे मंज़ूर
जुज़ वहम नहीं हस्ती-ए-अशिया मेरे आगे

होता है निहाँ गर्द में सेहरा मेरे होते
घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मेरे आगे

मत पूछ के क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
तू देख के क्या रन्ग है तेरा मेरे आगे

सच कहते हो ख़ुदबीन-ओ-ख़ुदआरा हूँ न क्योँ हूँ
बैठा है बुत-ए-आईना सीमा मेरे आगे

फिर देखिये अन्दाज़-ए-गुलअफ़्शानी-ए-गुफ़्तार
रख दे कोई पैमाना-ए-सहबा मेरे आगे

नफ़्रत क गुमाँ गुज़रे है मैं रश्क से गुज़रा
क्योँ कर कहूँ लो नाम ना उस का मेरे आगे

इमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे

आशिक़ हूँ पे माशूक़फ़रेबी है मेर काम
मजनूँ को बुरा कहती है लैला मेरे आगे

ख़ुश होते हैं पर वस्ल में यूँ मर नहीं जाते
आई शब-ए-हिजराँ की तमन्ना मेरे आगे

है मौजज़न इक क़ुल्ज़ुम-ए-ख़ूँ काश! यही हो
आता है अभी देखिये क्या-क्या मेरे आगे

गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मेरे आगे

हमपेशा-ओ-हममशरब-ओ-हमराज़ है मेरा
'गा़लिब' को बुरा क्योँ कहो अच्छा मेरे आगे
आह को चाहिये इक उम्र असर होने तक

आह को चाहिये इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक

दामे-हर-मौज में हैं हल्क़-ए-सदकामे-निहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गुहर होने तक

आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होने तक

हम ने माना के तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जायेंगे हम तुम को ख़बर होने तक

पर्तौ-ए-खुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होने तक

यक नज़र बेश नहीं फ़ुर्सत-ए-हस्ती ग़ाफ़िल
गर्मी-ए-बज़्म है इक रक़्स-ए-शरर होने तक

ग़मे-हस्ती का 'असद' किस से हो जुज़ मर्ग इलाज
शम्म'अ हर रंग में जलती है सहर होने तक

बे-ऐतदालियों से सुबुक सब में हम हुए
जितने ज़ियादा हो गये उतने ही कम हुए

पिन्हाँ था दाम सख़्त क़रीब आशियाँ के
उड़ने न पाये थे कि गिरफ़्तार हम हुए

हस्ती हमारी अपनी फ़ना पर दलील है
याँ तक मिटे के आप हम अपनी क़सम हुए

सख़्तीकशान-ए-इश्क़ की पूछे है क्या ख़बर
वो लोग रफ़्ता-रफ़्ता सरापा अलम हुए

तेरी वफ़ा से क्या हो तलाफ़ी कि दहर में
तेरे सिवा भी हम पे बहुत से सितम हुए

लिखते रहे जुनूँ की हिकायत-ए-ख़ूँचकाँ
हर्चंद इस में हाथ हमारे क़लम हुए

अल्लाह् रे! तेरी तुन्दी-ए-ख़ू जिस के बीम से
अज़्ज़ा-ए-नाला दिल में मेरे रिज़्क़े-हम हुए

अहल-ए-हवस की फ़तह है तर्क-ए-नबर्द-ए-इश्क़
जो पाँव उठ गये वो ही उन के अलम हुए

नाल-ए-अदम में चंद हमारे सुपुर्द थे
जो वाँ न खिंच सके सो वो याँ आके दम हुए

चोड़ी 'असद्' न हम ने गदाई में दिल्लगी
साइल हुए तो आशिक़-ए-अहल-ए-करम हुए
धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीमतन के पाँव

धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीमतन के पाँव
रखता है ज़िद से खेंच कर बाहर लगन के पाँव

दी सादगी से जान पड़ूँ कोहकन के पाँव
हैहात क्यों न टूट गए पीरज़न के पाँव

भागे थे हम बहुत सो उसी की सज़ा है ये
होकर असीर दाबते हैं राहज़न के पाँव

मरहम की जुस्तजू में फिरा हूँ जो दूर-दूर
तन से सिवा फ़िग़ार हैं इस ख़स्ता तन के पाँव

अल्लाह रे ज़ौक़-ए-दश्तनवर्दी के बादे-मर्ग
हिलते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद मेरे अंदर कफ़न के पाँव

है जोश-ए-गुल बहार में याँ तक कि हर तरफ़
उड़ते हुए उलझते हैं मुर्ग़-ए-चमन के पाँव

शब को किसी के ख़्वाब में आया न हो कहीं
दुखते हैं आज उस बुते-नाज़ुकबदन के पाँव

'ग़ालिब' मेरे कलाम में क्यों कर मज़ा न हो
पीता हूँ धो के खुसरौ-ए-शीरींसुख़न के पाँव

बहुत सही ग़म-ए-गेती शराब कम क्या है
ग़ुलाम-ए-साक़ी-ए-कौसर हूँ मुझको ग़म क्या है

तुम्हारी तर्ज़-ओ-रविश जानते हैं हम क्या है
रक़ीब पर है अगर लुत्फ़ तो सितम क्या है

सुख़न में ख़ामा-ए-ग़ालिब की आतशअफ़शानी
यक़ीं है हमको भी लेकिन अब उस में दम क्या है
ज़ुल्‌मत-कदे में मेरे शब-ए ग़म का जोश है

ज़ुल्‌मत-कदे में मेरे शब-ए ग़म का जोश है
इक शम`अ है दलील-ए सहर सो ख़मोश है

ने मुज़ह्‌दह-ए विसाल न नज़्‌ज़ारह-ए जमाल
मुद्‌दत हुई कि आश्‌ती-ए चश्‌म-ओ-गोश है

मै ने किया है हुस्‌न-ए ख़्‌वुद-आरा को बे-हिजाब
अय शौक़ हां इजाज़त-ए तस्‌लीम-ए होश है

गौहर को `उक़्‌द-ए गर्‌दन-ए ख़ूबां में देख्‌ना
क्‌या औज पर सितारह-ए गौहर-फ़रोश है

दीदार बादह हौस्‌लह साक़ी निगाह मस्‌त
बज़्‌म-ए ख़याल मै-कदह-ए बे-ख़रोश है

अय ताज़ह-वारिदान-ए बिसात-ए हवा-ए दिल
ज़िन्‌हार अगर तुम्‌हें हवस-ए नै-ओ-नोश है

देखो मुझे जो दीदह-ए `इब्‌रत-निगाह हो
मेरी सुनो जो गोश-ए नसीहत-नियोश है

साक़ी ब जल्‌वह दुश्‌मन-ए ईमान-ओ-आगही
मुत्‌रिब ब नग़्‌मह रह्‌ज़न-ए तम्‌कीन-ओ-होश है

या शब को देख्‌ते थे कि हर गोशह-ए बिसात
दामान-ए बाग़्‌बान-ओ-कफ़-ए गुल-फ़रोश है

लुत्‌फ़-ए ख़िराम-ए साक़ी-ओ-ज़ौक़-ए सदा-ए चन्‌ग
यह जन्‌नत-ए निगाह वह फ़िर्‌दौस-ए गोश है

या सुब्‌ह-दम जो देखिये आ कर तो बज़्‌म में
ने वह सुरूर-ओ-सोज़ न जोश-ओ-ख़रोश है

दाग़-ए फ़िराक़-ए सुह्‌बत-ए शब की जलि हुई
इक शम`अ रह गई है सो वह भी ख़मोश है

आते हैं ग़ैब से यह मज़ामीं ख़याल में
ग़ालिब सरीर-ए ख़ामह नवा-ए सरोश है
आ कि मेरी जान को क़रार नहीं है

आ कि मेरी जान को क़रार नहीं है
ताक़ते-बेदादे-इन्तज़ार नहीं है

देते हैं जन्नत हयात-ए-दहर के बदले
नश्शा बअन्दाज़-ए-ख़ुमार नहीं है

गिरिया निकाले है तेरी बज़्म से मुझ को
हाये! कि रोने पे इख़्तियार नहीं है

हम से अबस है गुमान-ए-रन्जिश-ए-ख़ातिर
ख़ाक में उश्शाक़ की ग़ुब्बार नहीं है

दिल से उठा लुत्फे-जल्वाहा-ए-म'आनी
ग़ैर-ए-गुल आईना-ए-बहार नहीं है

क़त्ल का मेरे किया है अहद तो बारे
वाये! अगर अहद उस्तवार नहीं है

तू ने क़सम मैकशी की खाई है "ग़ालिब"
तेरी क़सम का कुछ ऐतबार नहीं है
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं

सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हाँ हो गईं

याद थी हमको भी रन्गा रन्ग बज़्माराईयाँ
लेकिन अब नक़्श-ओ-निगार-ए-ताक़-ए-निसियाँ हो गईं

थीं बनातुन्नाश-ए-गर्दूँ दिन को पर्दे में निहाँ
शब को उनके जी में क्या आई कि उरियाँ हो गईं

क़ैद में याक़ूब ने ली गो न यूसुफ़ की ख़बर
लेकिन आँखें रौज़न-ए-दीवार-ए-ज़िंदाँ हो गईं

सब रक़ीबों से हों नाख़ुश, पर ज़नान-ए-मिस्र से
है ज़ुलैख़ा ख़ुश के मह्व-ए-माह-ए-कनाँ हो गईं

जू-ए-ख़ूँ आँखों से बहने दो कि है शाम-ए-फ़िराक़
मैं ये समझूँगा के शमएं हो फ़रोज़ाँ हो गईं

इन परीज़ादों से लेंगे ख़ुल्द में हम इन्तक़ाम
क़ुदरत-ए-हक़ से यही हूरें अगर वाँ हो गईं

नींद उसकी है, दिमाग़ उसका है, रातें उसकी हैं
तेरी ज़ुल्फ़ें जिसके बाज़ू पर परिशाँ हो गईं

मैं चमन में क्या गया, गोया दबिस्ताँ खुल गया
बुल-बुलें सुन कर मेरे नाले, ग़ज़लख़्वाँ हो गईं

वो निगाहें क्यूँ हुई जाती हैं यारब दिल के पार
जो मेरी कोताही-ए-क़िस्मत से मिज़्श्गाँ हो गईं

बस कि रोका मैं ने और सीने में उभरें पै ब पै
मेरी आहें बख़िया-ए-चाक-ए-गरीबाँ हो गईं

वाँ गया भी मैं तो उनकी गालियों का क्या जवाब
याद थी जितनी दुआयें, सर्फ़-ए-दर्बाँ हो गईं

जाँफ़िज़ा है बादा, जिसके हाथ में जाम आ गया
सब लकीरें हाथ की गोया रग-ए-जाँ हो गईं

हम मुवहिहद हैं, हमारा केश है तर्क-ए-रूसूम
मिल्लतें जब मिट गैइं, अज्ज़ा-ए-ईमाँ हो गईं

रंज से ख़ूगर हुआ इन्साँ तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ि इतनी के आसाँ हो गईं

यूँ ही गर रोता रहा "ग़ालिब", तो अए अह्ल-ए-जहाँ
देखना इन बस्तियों को तुम कि वीराँ हो गईं

उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पे रौनक
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।

देखिए पाते हैं उशशाक़ बुतों से क्या फ़ैज़
इक बराह्मन ने कहा है कि ये साल अच्छा है।

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीकत लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को  ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है।
 

No comments:

Post a Comment