Monday, April 2, 2012

हिन्दी-भाषा-लिपि


हिन्दी का जन्म
हिन्दी, भाषाई विविधता का एक ऐसा स्वरूप जिसने वर्तमान में अपनी व्यापकता में कितनी ही बोलियों और भाषाओं को सँजोया है। जिस तरह हमारी सभ्यता ने हजारों सावन और हजारों पतझड़ देखें हैं, ठीक उसी तरह हिन्दी भी उस शिशु के समान है, जिसने अपनी माता के गर्भ में ही हर तरह के मौसम देखने शुरू कर दिए थे। हिन्दी की यह माता थी संस्कृत भाषा, जिसके अति क्लिष्ट स्परूप और अरबी, फारसी जैसी विदेशी और पाली, प्राकृत जैसी देशी भाषाओं के मिश्रण ने हिन्दी को अस्तित्व प्रदान किया। जिस शिशु को इतनी सारी भाषाएँ अपने प्रेम से सींचे उसके गठन की मजबूती का अंदाज लगाना बहुत मुश्किल है।

सातवीं शताब्दी (ई.पू.) से दसवीं शताब्दी (ई.पू) के बीच संस्कृत भाषा के अपभ्रंश के रूप में उत्पन्न हिन्दी अभी अपनी माँ के गर्भ में ही थी,
हजारों साल पुराना हमारी सभ्यता का सफर। 2500 ई.पू. से सैंधव सभ्यता की शक्ल में हमने विश्व की प्राचीनतम संस्कृति होने का गौरव प्राप्त किया है। समय बदला, परिस्थितियाँ बदलीं। साथ ही बदलने लगी हमारी जरूरतें, हमारा रहन-सहन और हमारी भाषा। भाषा पर अगर गौर कर जिस दौरान पाली और पाकृत जैसी भाषाओं का प्रभाव उनके चरम पर था। यह वही समय था जब बौद्ध धर्म पूर्णतः परिपक्व हो चुका था और पाली व पाकृत जैसी आसान भाषाओं में इसका व्यापक प्रसार हो रहा था।

देखा जाए तो पुरातन हिन्दी का अपभ्रंश के रूप में जन्म 400 ई. से 550 ई. में हुआ जब वल्लभी के शासक धारसेन ने अपने अभिलेख में ‘अपभ्रंश साहित्य’ का वर्णन किया। हमारे पास प्राप्त प्रमाणों में 933 ई. की ‘श्रावकचर’ नामक पुस्तक ही अपभ्रंश हिन्दी का पहला उदाहरण है। परंतु हिन्दी का वास्तविक जन्मदाता तो अमीर खुसरो ही था, जिसने 1283 में खड़ी हिन्दी को जन्म देते हुए इस शिशु का नामकरण ‘‍िहन्दवी’ किया।

खुसरो दरिया प्रेम का, उलटी वा की धार,
जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार

(अमीर खुसरो की एक रचना – ‘हिन्दवी’ में…)

यह हिन्दी का जन्म मात्र एक भाषा का जन्म न होकर भारत के मध्यकालीन इतिहास का प्रारंभ भी है, जिसमें भारतीय संस्कृति के साथ अरबी व फारसी संस्कृतियों का अद्‍भुत संगम नजर आता है। तुर्कों और मुगलों के प्रभाव में पल्लवित होती हिन्दी को उनकी नफासत विरासत में मिली। वहीं दूसरी ओर इस समय भक्ति और आंदोलन भी काफी क्रियाशील हो चुके थे, जिन्होंने कबीर (1398- 1518 ई.), रामानंद (1450 ई.), बनारसी दास (1601 ई.), तुलसीदास (1532-1623 ई.) जैसे प्रकांड विद्वानों को जन्म दिया। इन्होंने हिन्दी को अपभ्रंश, खड़ी और आधुनिक हिन्दी के अलंकारों से सुसज्जित करके हिन्दी का श्रृंगार किया। इस काल की एक और विशेषता यह भी थी कि इस काल में हिन्दी को अपनी छोटी बहन ‘उर्दू’ मिली, जो अरबी, फारसी व हिन्दी के मिश्रण अस्तित्व में आई। इस कड़ी में मुगल बादशाह शाहजहाँ (1645 ई.) के योगदानों ने उर्दू को उसका वास्तविक आकार प्रदान किया।
विभिन्न सभ्यताओं ने आकर हिन्दुस्तान पर शासन किया। इनकी सभ्यता और भाषाई विविधता ने ही हिन्दी का पालन-पोषण किया और एक ‘अपभ्रंश’ शिशु व ‘खड़ी बोली’ किशोरी को अपार अलंकारों से सुसज्जित ‘आधुनिक हिन्दी’ रूपी युवती बनाया।

अँग्रेजी शासन तक यह अल्हड़ किशोरी शांत व गंभीर युवती के रूप में परिवर्तित हो चुकी थी। अँग्रेजियत के समावेश ने हिन्दी को त्तकालीन परिवेश में एक नया परिधान दिया। अब आधुनिक हिन्दी में तरह-तरह के प्रयोग अपने शीर्ष पर थे। किताबों, उपन्यासों, ग्रंथों, काव्यों के साथ-साथ हिन्दी राजनीतिक चेतना का माध्यम बन रही थी। 1826 ई. में ‘उद्दंत मार्तण्ड’ नामक पहला हिन्दी का समाचार तत्कालीन बुद्धिजीवियों का प्रेरणा स्रोत बन चुका था। अब हिन्दी में आधुनिकता का पूर्णतः समावेश हो चुका था। अँग्रेजों के शासन ने जहाँ हिन्दी को आधुनिकता का जामा पहनाया, वहीं हिन्दी उनके विरोध और स्वतंत्र भारत के स्वप्न का भी प्रभावी माध्यम रही। तमाम हिन्दी समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं ने देश के बुद्धिजीवियों में स्वतंत्रता की लहर दौड़ाई। स्वतंत्र भारत के कर्णधारों ने जो स्वतंत्रता का स्वप्न देखा उसमें स्वतंत्र भारत की राष्ट्रभाषा के रूप हमेशा हिन्दी को ही देखा।

शायद यही वजह है कि स्वतंत्रता के उपरांत हिन्दी को 1949-1950 में केंद्र की आधिकारिक भाषा का सम्मान मिला। वर्तमान में हिन्दी विश्व की सबसे अधिक प्रयोग में आने वाली भाषाओं में दूसरा स्थान रखती है। हो सकता है कि अँग्रेजी का प्रभाव प्रौढ़ा हिन्दी पर अधिक नजर आता हो, मगर इस हिन्दी ने अपने भीतर इतनी भाषाओं और बोलियों को समेटकर अपनी गंभीरता का ही परिचय दिया है। हो सकता है कि भविष्य में हिन्दी भी किसी अन्य ‘अपभ्रंश’ शिशु को जन्म दे, पर राष्ट्रभाषा का गौरव हर भारतीय में नैसर्गिक रूप से व्याप्त होगा।



हिन्दी का नामकरण

‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग फारस और अरब से माना जाता है। वास्तव में संस्कृत शब्द ‘सिंधु’ से ‘हिन्दी’ शब्द उद्भूत हुआ है। यह सिंध नदी के आसपास की भूमि का नाम है। ईरानी में ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ होता है, इसलिए ‘सिंधु’ का रूप ‘हिंदू’ हो गया तथा ‘हिंद’ शब्द पूरे भारत के लिए प्रयुक्त होने लगा और प्रकारांतर से ‘हिन्दी’ शब्द अस्तित्व में आया।
‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग अमीर खुसरो ने भी किया। अमीर खुशरो तुर्क थे, लेकिन वे भारत में पैदा हुए थे। 1317 ई. के आसपास पैदा हुए अमीर खुसरो का कहना था-‘‘चूँकि मैं भारत में पैदा हुआ हूँ अतः मैं यहाँ की भाषा के संबंध में कुछ कहना चाहता हूँ। इस समय, यहाँ प्रत्येक प्रदेश में, ऐसी विचित्र एवं स्वतंत्र भाषाएँ प्रचलित हैं जिनका एक-दूसरे से संबंध नहीं है। ये हैं-हिन्दी (सिंधी), लाहौरी (पंजाबी), कश्मीरी- डूगरों (जम्मू के डूगरों) की भाषा, धूर समुंदर (मैसूर की कन्नड़ भाषा), तिलंग (तेलुगु), गुजरात, मलाबार (कारो मंडल तट की तमिल), गौड़ (उत्तरी बँगला), बंगाल, अवध (पूर्वी हिन्दी), दिल्ली तथा उसके आसपास की भाषा (पश्चिमी हिन्दी)। ये सभी हिन्दी की भाषाएँ हैं, जो प्राचीन काल से ही जीवन के सामान्य कार्यों के लिए, हर प्रकार से, व्यवह्वत होती आ रही हैं।”

एक अन्य स्थान पर हिन्दी की चर्चा करते हुए अमीर खुसरो लिखते हैं-‘‘यह हिन्दी की भाषा है।” ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ वास्तव में खुसरो का संस्कृति से तात्पर्य है, न कि उस भाषा से जिसे आज हम इस नाम से अभिहित करते हैं। आगे इसी संबंध में वे लिखते हैं:
                                                                ‘‘यदि तथ्य को ध्यान में रखकर गंभीरता से विचार किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि हिन्दी पारसी (फारसी) से निम्नकोटि की नहीं है। यह अरबी की अपेक्षा जिसका सभी भाषाओं में प्रमुख स्थान है, निम्नकोटि की है, भाषा के रूप में अरबी का एक पृथक स्थान और कोई भी अन्य भाषा इसके साथ सम्मिलित नहीं की जा सकती। शब्द भंडार की दृष्टि से पारसी अपूर्ण भाषा है और बिना अरबी के छौंक के यह रुचिकर प्रतीत नहीं हो सकती। चूँकि अरबी विशुद्ध तथा पारसी मिश्रित भाषा है, अतः यह कहा जा सकता है कि एक आत्मा है तो दूसरी शरीर। अरबी में कुछ भी सम्मिलित नहीं किया जा सकता, किंतु फारसी में सब प्रकार का सम्मिश्रण संभव है।”

‘‘हिन्द की भाषा अरबी के समान है, क्योंकि इसमें किसी प्रकार का मिश्रण नहीं किया जा सकता। यदि अरबी में व्याकरण तथा वाक्य-विन्यास है तो हिन्दी में भी उससे एक अक्षर कम नहीं है। यदि यह प्रश्न करें कि हिन्दी में भी क्या अलंकार शास्त्र तथा विचार-प्रकाशन के अन्य विज्ञान हैं तो इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि इस संबंध में भी वह किसी तरह से न्यून नहीं है। जिस किसी व्यक्ति ने इन तीनों भाषाओं को अधिकृत कर लिया है, वह यह कह सकता है कि मैं इस संबंध में कुछ भी गलत तथा अतिशयोक्तिपूर्ण बात नहीं कर रहा हूँ।”

1886 ई. में वियना की ओरियंटल कांग्रेस ने तत्कालीन भारत सरकार से यह अनुरोध किया था कि वह विधिवत् भारत की भाषाओं का सर्वेक्षण कराए। उसी के अतर्गत बाद के दिनों में जॉर्ज ग्रियर्सन ने भारत का विस्तृत भाषा-सर्वेक्षण किया अथवा करवाया, जो हमारे लिए इस विषय से संबंधित एक बड़ी देन है। ग्रियर्सन ने इस संबंध में स्पष्ट किया है-‘‘विभिन्न स्थानीय सरकारों से परामर्श के पश्चात् मद्रास तथा बर्मा प्रदेशों एवं हैदराबाद एवं मैसूर राज्यों को इस सर्वेक्षण की सीमा से पृथक रखने का निर्णय लिया गया, ताकि इसके अंतर्गत हमारे भारतीय साम्राज्य की कुल 29 करोड़ 40 लाख जनसंख्या में से 22 करोड़ 40 लाख वाली आबादी का भाग जिसमें पश्चिम से पूर्व तक बलोचिस्तान, पश्चिमोत्तर सीमांत, कश्मीर, पंजाब, बंबई प्रेसीडेंसी, राजपूताना एवं मध्य भारत, मध्य प्रदेश तथा बरार, संयुक्त प्रदेश आगरा व अवध बिहार एवं उड़ीसा, बंगाल तथा असम प्रदेश सम्मिलित हैं, आ सके।”

1929 ई. की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 31 करोड 60 लाख थी। इनमें 29 करोड़ लोगों की भाषा का सर्वेक्षण करते हुए जॉर्ज ग्रियर्सन ने पाया कि भारत में विभिन्न भाषाओं और बोलियों की संख्या 875 है। हालाँकि उनमें 179 भाषाओं और 524 बोलियों के नाम ग्रियर्सन ने दिए हैं।


हिन्दी भाषा की उत्पत्ति और विकास

संसार का सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद है। ऋग्वेद से पहले भी सम्भव है कोई भाषा विद्यमान रही हो परन्तु आज तक उसका कोई लिखित रूप नहीं प्राप्त हो पाया। इससे यह अनुमान होता है कि सम्भवतः आर्यों की सबसे प्राचीन भाषा ऋग्वेद की ही भाषा, वैदिक संस्कृत ही थी। विद्वानों का मत है कि ऋग्वेद की भी एक काल अथवा एक स्थान पर रचना नहीं हुई। इसके कुछ मन्त्रों की रचना कन्धार में, कुछ की सिन्धु तट पर, कुछ की विपाशा-शतद्रु के संभेद (हरि के पत्तन) पर और कुछ मन्त्रों की यमुना गंगा के तट पर हुई। इस अनुमान का आधार यह है कि इन मन्त्रों में कहीं कन्धार के राजा दिवोदास का वर्णन है, तो कहीं सिन्धु नरेश सुदास का। इन दोनों राजाओं के शासन काल के बीच शताब्दियों का अन्तर है। इससे यह अनुमान होता है कि ऋग्वेद की रचना सैकड़ों वर्षों में जाकर पूर्ण हुई और बाद में इसे संहित-(संग्रह)-बद्ध किया गया।
ऋग्वेद के उपरान्त ब्राह्मण ग्रन्थों तथा सूत्र ग्रन्थों का सृजन हुआ और इनकी भाषा ऋग्वेद की भाषा से कई अंशों में भिन्न लौकिक या क्लासिकल संस्कृत है। सूत्र ग्रन्थों के रचना काल में भाषा का साहित्यिक रूप व्याकरण के नियमों में आबद्ध हो गया था। तब यह भाषा संस्कृत कहलायी। तब छन्दस् वेद तथा लोक-भाषा (लौकिक) में पर्याप्त अन्तर स्पष्ट रूप में प्रकट हुआ।


डॉ. धीरेन्द्र वर्मा का मत है कि पतञ्जलि (पाणिनि की व्याकरण अष्टाध्यायी के महाभाष्यकार) के समय में व्याकरण शास्त्र जानने वाले विद्वान् ही केवल शुद्ध संस्कृत बोलते थे, अन्य लोग अशुद्ध संस्कृत बोलते थे तथा साधारण लोग स्वाभाविक बोली बोलते थे, जो कालान्तर में प्राकृत कहलायी। डॉ. चन्द्रबली पांडेय का मत है कि भाषा के इन दोनों वर्गों का श्रेष्टतम उदाहरण वाल्मीकि रामायण में मिलता है, जबकि अशोक वाटिका में पवन पुत्र ने सीता से ‘द्विजी’ (संस्कृत) भाषा में बात न करके ‘मानुषी’ (प्राकृत) भाषा में बातचीत की। लेकिन डॉ. भोलानाथ तिवारी ने तत्कालीन भाषा को पश्चिमोत्तरी मध्य देशी तथा पूर्वी नाम से अभिहित किया है।

परन्तु डॉ. रामविलास शर्मा आदि कुछ विद्वान्, प्राकृत को जनसाधारण की लोक-भाषा न मानकर उसे एक कृत्रिम साहित्यिक भाषा स्वीकार करते हैं। उनका मत है कि प्राकृत ने संस्कृत शब्दों को हठात् विकृत करने का नियम हीन प्रयत्न किया। डॉ. श्यामसुन्दर दास का मत है-वेदकालीन कथित भाषा से ही संस्कृत उत्पन्न हुई और अनार्यों के सम्पर्क का सहारा पाकर अन्य प्रान्तीय बोलियाँ विकसित हुईं। संस्कृत ने केवल चुने हुए प्रचुर प्रयुक्त, व्यवस्थित, व्यापक शब्दों से ही अपना भण्डार भरा, पर औरों ने वैदिक भाषा की प्रकृति स्वच्छान्दता को भरपेट अपनाया। यही उनके प्राकृत कहलाने का कारण है।”

व्याकरण के विधि निषेध नियमों से संस्कारित भाषा शीघ्र ही सभ्य समाज की श्रेष्ठ भाषा हो गई तथा यही क्रम कई शताब्दियों तक जारी रहा। यद्यपि महात्मा  बुद्ध के समय संस्कृत की गति कुछ शिथिल पड़ गई, परन्तु गुप्तकाल में उसका विकास पुनः तीव्र वेग से हुआ। दीर्घकाल तक संस्कृत ही राष्ट्रीय भाषा के रूप में सम्मानित रही।
जनसाधारण अल्प शिक्षित वर्ग के लिए संस्कृत के नियमों का अनुसरण कठिन था, अतः वे लोकभाषा का ही प्रयोग करते थे। इसीलिए महावीर स्वामी ने जैन मत के तथा महात्मा बुद्ध ने बौद्ध मत के प्रसार के लिए लोकभाषा को ही अपनी वाणी का माध्यम बनाया। इससे लोकभाषा को ऐसी प्रतिष्ठा का पद प्राप्त हुआ, जो उससे पूर्व कभी प्राप्त नहीं हुआ था।

फिर भी संस्कृत भाषा का महत्त्व कभी कम नहीं हुआ। भास, कालिदास आदि के नाटकों में सुशिक्षित व्यक्ति तो संस्कृत बोलते हैं, परन्तु अशिक्षित पात्र -विट-चेट विदूषक तथा दास-दासियाँ आदि प्राकृत में बात करते हैं। परन्तु ये सब जिन प्रश्नों के उत्तर प्राकृत में देते हुए दिखाई गए हैं, उन प्रश्नों को संस्कृत में ही पूछा गया है। इससे स्पष्ट होता है। कि जनसाधारण भी संस्कृत को अच्छी तरह समझ लेते थे, भले ही बोलने में उन्हें कठिनाई प्रतीत होती हो। पंचतंत्र में विष्णु शर्मा ने संस्कृत भाषा में ही राजकुमारों को शिक्षा प्रदान की थी। डॉ. आर.के. मुकर्जी ने कहा है, ब्राह्मण काल एवं उसके पश्चात् भी निःसन्देह संस्कृत सामान्य जनता के धार्मिक कृत्यों पारिवारिक संस्कारों तथा शिक्षा एवं विज्ञान की भाषा थी।”1 सरदार के.एम. पणिक्कर ने कहा है संस्कृत विश्व की संस्कृति और सभ्यता की भाषा है जो भारत की सीमाओं के पार दूर-दूर तक फैली हुई थी।”

हिन्दी का निर्माण-काल

अपभ्रंश की समाप्ति और आधुनिक भारतीय भाषाओं के जन्मकाल के समय को संक्रांतिकाल कहा जा सकता है। हिन्दी का स्वरूप शौरसेनी और अर्धमागधी अपभ्रंशों से विकसित हुआ है। 1000 ई. के आसपास इसकी स्वतंत्र सत्ता का परिचय मिलने लगा था, जब अपभ्रंश भाषाएँ साहित्यिक संदर्भों में प्रयोग में आ रही थीं। यही भाषाएँ बाद में विकसित होकर आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के रूप में अभिहित हुईं। अपभ्रंश का जो भी कथ्य रुप था-वही आधुनिक बोलियों में विकसित हुआ। अपभ्रंश के संबंध में ‘देशी’ शब्द की भी बहुधा चर्चा की जाती है। वास्तव में ‘देशी’ से देशी शब्द एवं देशी भाषा दोनों का बोध होता है। प्रश्न यह कि देशीय शब्द किस भाषा के थे ? भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में उन शब्दों को ‘देशी’ कहा है ‘जो संस्कृत के तत्सम एवं सद्भव रूपों से भिन्न हैं।’ ये ‘देशी’ शब्द जनभाषा के प्रचलित शब्द थे, जो स्वभावतया अप्रभंश में भी चले आए थे। जनभाषा व्याकरण के नियमों का अनुसरण नहीं करती, परंतु व्याकरण को जनभाषा की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करना पड़ता है, प्राकृत-व्याकरणों ने संस्कृत के ढाँचे पर व्याकरण लिखे और संस्कृत को ही प्राकृत आदि की प्रकृति माना। अतः जो शब्द उनके नियमों की पकड़ में न आ सके, उनको देशी संज्ञा दी गई।  प्राचीन काल से बोलचाल की भाषा को देशी भाषा अथवा ‘भाषा’ कहा जाता रहा। पाणिनि के समय में संस्कृत बोलचाल की भाषा थी। अतः पाणिनी ने इसको ‘भाषा’ कहा है। पतंजलि के समय तक संस्कृत केवल शिष्ट समाज के व्यवहार की भाषा रह गई थी और प्राकृत ने बोलचाल की भाषा का स्थान ले लिया था।


हिन्दी की पूर्ववर्ती भाषाएँ

सम्पूर्ण देश में हिन्दी के उत्तरोत्तर विकास-विस्तार में विश्वविद्यालयों की महती भूमिका है। जिस प्रकार सम्पूर्ण उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन बड़े-बड़े कारखानों में होता है, उसी प्रकार देश का बहुआयामी निर्माण देश की शिक्षा संस्थानों में होता है। स्वतन्त्रता के उपरांत विश्वविद्यालयों में हिन्दी विभागों की स्थापना जोर-शोर से शुरू हुई। मद्रास विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग सन् 1954 में खुला, जो हिन्दी साहित्य के पठन-पाठन तथा शोध कार्य हितार्थ निरन्तर सक्रिय रहा। इस विभाग में प्रथम आचार्य शंकरराजू नायडू थे, जिन्होंने कम्ब रामायण और तुलसी का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया। तिरुकुरल का हिन्दी में अनुवाद किया। उनके उपरांत एस.एन. गणशेन् आए जिन्होंने 1975 में हिन्दी और तमिल व्याकरण लिखा तथा सुब्रह्मण्य भारती की कविताओं का 1986 में तथा मणिमेखलै में 1990 में अनुवाद किया। उनके उपरांत डॉ. टी.एस. कुप्पुस्वामी आये जिनकी कृति ‘हिन्दी रीतिकाव्य’ 1990 में प्रकाशित हुई तथा विभाग की अन्य प्राध्यापिका डॉ. शारदा रमणी की कृति भारतेन्दु के गीतों में राष्ट्रीय चेतना 1990, संघम काल में नारी, 1992 में छपी।
हम सब यह जानते हैं कि कोई भी भाषा एक आदमी द्वारा बनाई नहीं जा सकती। भाषा का निर्माण या विकास धीरे-धीरे समाज में आपस में बोलचाल से होता है। समय के साथ-साथ भाषा बदलती रहती है, इसलिए एक भाषा से दूसरी भाषा बन जाती है। हिन्दी भाषा का उद्भव एवं विकास में उसकी पूर्ववर्ती भाषाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
जब भारत ‘जगद्गुरु’ की संज्ञा से अभिहित था, इस समय वैदिक संस्कृत बोली जाती थी। जो आदिकाल से ईसा पूर्व पाँचवीं शती तक प्रयुक्त होती रही। समय के साथ वैदिक संस्कृति ही संशोधन प्राप्त कर (व्याकरण के नियमों से सँवर कर) संस्कृत बनी और 500 ई. पूर्व से 100 ई. तक चलती रही।
संस्कृत के बाद पहली प्राकृत या पाली आ गई। यह गौतमबुद्ध के समय बोली जाती थी, जो 500 ई. पूर्व से 100 ई. तक रही।
इसके बाद दूसरी प्राकृत आ गई। जो पाँच नामों से जानी जाती थी- (1) महाराष्ट्री; (2) शौरसेनी; (3) मागधी; (4) अर्द्धमागधी; (5) पैशाची। इनका प्रचलन 100 ई. से 500 ई. तक रहा।
इसी दूसरी प्राकृत से नई भाषा पनपी जिसे ‘अपभ्रंश’ कहा जाता है। जिसके तीन रूप थे- (1) नागर; (2) ब्राचड़; (3) उपनागर।
इस अपभ्रंश से कई भाषाएँ विकसित हुईं। जैसे-हिन्दी, बांग्ला, गुजराती, मराठी, पंजाबी आदि।
यदि हम गुजराती, मराठी आदि भाषाओं को एक-दूसरे की बहन कह दें तो अनुचित न होगा क्योंकि ‘अपभ्रंश’ इनकी जननी है।
जिस प्रकार भारत में कई प्रांत के कई जिले हैं, उसी प्रकार हिन्दी भाषा में कई उपभाषाएँ हैं।
इनमें ब्रजभाषा, अवधी, डिंगल या राजस्थानी, बुंदेलखण्डी, खड़ी बोली, मैथिली भाषा आदि का नाम उल्लेखनीय है।
इन सभी भाषाओं के साहित्य को हिन्दी का साहित्य माना जाता है क्योंकि ये भाषाएँ हिन्दी साहित्य के इतिहास में ‘अपभ्रंश’ काल से उन समस्त रचनाओं का अध्ययन किया जाता है उपर्युक्त उपभाषाओं में से भी लिखी हो।
समाज में उभरने वाली हर सामाजिक, राजनीतिक, साम्प्रदायिक, धार्मिक, सांस्कृतिक स्थितियों का प्रभाव साहित्य पर पड़ता है। जनता की भावनाएँ बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थितियों से प्रभावित होती हैं। इसलिए साहित्य सामाजिक जीवन का दर्पण कहा गया है। इस प्रकार यह बात उभर कर आती है कि साहित्य का इतिहास मात्र आँकड़े या नामवली नहीं होती अपितु उसमें जीवन के विकास-क्रम का अध्ययन होता है। मानव-सभ्यता-संस्कृति और उसके क्रमिक विकास को जानने का मुख्य साधन साहित्य ही होता है। साहित्य समाज का दर्पण होता है, इसलिए उसमें मानव-मन के चिन्तन-मनन, भावना और उसके विकास का रूप प्रतिबिम्बित रहता है। अत: किसी भी भाषा के साहित्य का अध्ययन करने और उसके प्रेरणास्रोत्रों को जानने के लिए उसकी पूर्व-परम्पराओं और प्रवृत्तियों का ज्ञान आवश्यक है। हिन्दी साहित्य के इतिहास के अध्ययन के लिए हमें विकास के इसी क्रम को जानना होगा।
हिन्दी की पूर्ववर्ती भाषाएँ (सन् 1050 से पूर्व)
हिन्दी भाषा के उद्भव-विकास में उसकी पूर्ववर्ती भाषाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
  • वैदिक संस्कृत-
                जिस समय हमारा देश जगद्गुरु की संज्ञा से अभिहित था, वैदिक संस्कृत ही भारतीय आर्यों के विचारों की अभिव्यक्ति करती थी। प्राय: यह आदि काल से ईसा पूर्व पाँचवीं शती तक प्रयोग में लायी जाती रही।
  • संस्कृत-
                वैदिक संस्कृत ही समय के साथ संस्कार एवं संशोधन प्राप्त कर, व्याकरण के नियमों से सुसज्जित होकर संस्कृत भाषा बन गई। ईसा से लगभग छ: शताब्दी पूर्व महर्षि पाणिनी की ‘अष्टाध्यायी’ के निर्माण के साथ ही     संस्कृत में एकरूपता आ गई। यह भाषा 500 ई. पूर्व से 1000 ई. तक चलती रही।
  • पहली प्राकृत या पाली-
                संस्कृति साहित्य में व्याकरण के प्रवेश ने जहाँ एक ओर उसे परिमार्जित कर शिक्षितों की व्यवहारिक भाषा के पद पर प्रतिष्ठित किया वहाँ दूसरी ओर उसे जनसाधारण की पहुँच के बाहर कर दिया। ऐसे समय में लोक भाषा के रूप में मागधी पनप रही थी, जिसका व्यवहार बौद्ध लोग अपने सिद्धान्त के प्रचारार्थ कर रहे थे। इसी को पोली कहकर संबोधित किया गया।
  • अशोक के शिलालेखों पर ब्राह्मी और खरोष्ठी नामक दो लिपियाँ मिलती हैं। इसी को कतिपय भाषा वैज्ञानिक पहली प्राकृत कहकर पुकारते हैं इस भाषा का काल 500 ई. पूर्व से 100 ई. पूर्व तक निश्चित किया है।
  • दूसरी प्राकृत-
     पहली प्राकृत साहित्यकारों के सम्पर्क में आते ही दूसरी प्राकृत बन बैठी और उसका प्रचलन होने लगा। विभिन्न अंचलों में वह भिन्न-भिन्न नामों से पुकारी गई। इस प्रकार इसके पाँच भेद हुए-
1.    महाराष्ट्री-मराठी
2.    शौरसेनी-पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी, पहाड़ी, गुजराती
3.    मागधी-बिहारी, मागधी, उड़िया, असमिया
4.    अर्द्ध मागधी-पूर्वी हिन्दी
5.    पैशाची-लहंदा, पंजाबी
प्राचीन हिन्दी
इस काल में आते-आते अपभ्रंश साहित्य का माध्यम बन गई। इसमें से ही देश का जातीय साहित्य मुखरित हुआ। इस प्रकार क्रमश: लोकवाणी, प्रचलित बोलियों एवं साहित्यिक भाषा के विकास क्रम ने प्राचीन हिन्दी को जन्म दिया जो खड़ी बोली हिन्दी की जननी है। यही ‘प्राचीन हिन्दी’ या ‘हिन्दवी’ अपभ्रंश और आधुनिक खड़ी बोली के मिलनरेखा के मध्य-बिन्दु को निर्धारित करती है।
हिन्दी-साहित्य में इतिहास लिखना कब और कैसे प्रारम्भ हुआ, यह विचारणीय प्रसंग है। इतिहास लिखने वालों की दृष्टि अपने आप चौरासी वैष्णव की वार्ता और भक्तकाल की ओर खिंच जाती है परन्तु तथ्यों और खोजबीन से यह पता चलता है कि इसका श्रीगणेश पाश्चात्य साहित्य के प्रभाव से ठाकुर शिवसिंह सेंगर (सन् 1883 ई.) द्वारा लिखित ‘कवियों के एक वृत्त संग्रह’ के द्वारा हुआ। इसके पहले अंग्रेज लेखक गार्साद तासी ने 72 कवियों का नाम विवरणों के साथ अपने इतिहास (सन् 1839) में प्रस्तुत किया था। 



अपभ्रंश का परिचय

अपभ्रंश, आधुनिक भाषाओं के उदय से पहले उत्तर भारत में बोलचाल और साहित्य रचना की सबसे जीवंत और प्रमुख भाषा (समय लगभग छठी से १२वीं शताब्दी)। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से अपभ्रंश भारतीय आर्यभाषा के मध्यकाल की अंतिम अवस्था है जो प्राकृत और आधुनिक भाषाओं के बीच की स्थिति है।
अपभ्रंश के कवियों ने अपनी भाषा को केवल ‘भासा’, ‘देसी भासा’ अथवा ‘गामेल्ल भासा’ (ग्रामीण भाषा) कहा है, परंतु संस्कृत के व्याकरणों और अलंकारग्रंथों में उस भाषा के लिए प्रायः ‘अपभ्रंश’ तथा कहीं-कहीं ‘अपभ्रष्ट’ संज्ञा का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार अपभ्रंश नाम संस्कृत के आचार्यों का दिया हुआ है, जो आपाततः तिरस्कारसूचक प्रतीत होता है। महाभाष्यकार पतंजलि ने जिस प्रकार ‘अपभ्रंश’ शब्द का प्रयोग किया है उससे पता चलता है कि संस्कृत या साधु शब्द के लोकप्रचलित विविध रूप अपभ्रंश या अपशब्द कहलाते थे। इस प्रकार प्रतिमान से च्युत, स्खलित, भ्रष्ट अथवा विकृत शब्दों को अपभ्रंश की संज्ञा दी गई और आगे चलकर यह संज्ञा पूरी भाषा के लिए स्वीकृत हो गई। दंडी (सातवीं शती) के कथन से इस तथ्य की पुष्टि होती है। उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि शास्त्र अर्थात् व्याकरण शास्त्र में संस्कृत से इतर शब्दों को अपभ्रंश कहा जाता है; इस प्रकार पालि-प्राकृत-अपभ्रंश सभी के शब्द ‘अपभ्रंश’ संज्ञा के अंतर्गत आ जाते हैं, फिर भी पालि प्राकृत को ‘अपभ्रंश’ नाम नहीं दिया गया।
दंडी ने इस बात को स्पष्ट करते हुए आगे कहा है कि काव्य में आभीर आदि बोलियों को अपभ्रंश नाम से स्मरण किया जाता है; इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अपभ्रंश नाम उसी भाषा के लिए रूढ़ हुआ जिसके शब्द संस्कृतेतर थे और साथ ही जिसका व्याकरण भी मुख्यतः आभीरादि लोक बोलियों पर आधारित था। इसी अर्थ में अपभ्रंश पालि-प्राकृत आदि से विशेष भिन्न थी। अपभ्रंश के संबंध में प्राचीन अलंकारग्रंथों में दो प्रकार के परस्पर विरोधी मत मिलते हैं। एक ओर रुद्रट के काव्यालंकार (२-१२) के टीकाकार नमिसाधु (१०६९ ई.) अपभ्रंश को प्राकृत कहते हैं तो दूसरी ओर भामह (छठी शती), दंडी (सातवीं शती) आदि आचार्य अपभ्रंश का उल्लेख प्राकृत से भिन्न स्वतंत्र काव्यभाषा के रूप में करते हैं। इन विरोधी मतों का समाधान करते हुए याकोगी (भविस्सयत्त कहा की जर्मन भूमिका, अंग्रेजी अनुवाद, बड़ौदा ओरिएंटल इंस्टीटयूट जर्नल, जून १९५५) ने कहा है कि शब्दसमूह की दृष्टि से अपभ्रंश प्राकृत के निकट है और व्याकरण की दृष्टि से प्राकृत से भिन्न भाषा है।
इस प्रकार अपभ्रंश के शब्दकोश का अधिकांश, यहाँ तक कि नब्बे प्रतिशत, प्राकृत से गृहित है और व्याकरणिक गठन प्राकृतिक रूपों से अधिक विकसित तथा आधुनिक भाषाओं के निकट है। प्राचीन व्याकरणों के अपभ्रंश संबंधी विचारों के क्रमबद्ध अध्ययन से पता चलता है कि छह सौ वर्षों में अपभ्रंश का क्रमशः विकास हुआ। भरत (तीसरी शर्त) ने इसे शाबर, आभीर, गुर्जर आदि की भाषा बताया है। चंड (छठी शती) ने ‘प्राकृतलक्षणम’ में इसे विभाषा कहा है और उसी के आसपास बलभी के राज ध्रुवसेन द्वितीय ने एक ताम्रपट्ट में अपने पिता का गुणगान करते हुए उनहें संस्कृत और प्राकृत के साथ ही अपभ्रंश प्रबंधरचना में निपुण बताया है। अपभ्रंश के काव्यसमर्थ भाषा होने की पुष्टि भामह और दंडी जैसे आचार्यों द्वारा आगे चलकर सातवीं शती में हो गई। काव्यमीमांसाकार राजशेखर (दसवीं शती) ने अपभ्रंश कवियों को राजसभा में सम्मानपूर्ण स्थान देकर अपभ्रंश के राजसम्मान की ओर संकेत किया तो टीकाकार पुरुषोत्तम (११वीं शती) ने इसे शिष्टवर्ग की भाषा बतलाया। इसी समय आचार्य हेमचंद्र ने अपभ्रंश का विस्तृत और सोदाहरण व्याकरण लिखकर अपभ्रंश भाषा के गौरवपूर्ण पद की प्रतिष्ठा कर दी। इस प्रकार जो भाषा तीसरी शती में आभीर आदि जातियों की लोकबोली थी वह छठी शती से साहित्यिक भाषा बन गई और ११वीं शती तक जाते-जाते शिष्टवर्ग की भाषा तथा राजभाषा हो गई।
अपभ्रंश के क्रमशः भौगोलिक विस्तारसूचक उल्लेख भी प्राचीन ग्रंथों में मिलते हैं। भरत के समय (तीसरी शती) तक यह पश्च्िामोत्तर भारत की बोली थी, परंतु राजशेखर के समय (दसवीं शती) तक पंजाब, राजस्थान और गुजरात अर्थात् समूचे पश्च्िामी भारत की भाषा हो गई। साथ ही स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल, कनकामर, सरहपा, कन्हपा आदि की अपभ्रंश रचनाओं से प्रमाणित होता है कि उस समय यह समूचे उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा हो गई थी।
वैयाकरणों ने अपभ्रंश के भेदों की भी चर्चा की है। मार्कंडेय (१७वीं शती) के अनुसार इसके नागर, उपनागर और ब्राचड तीन भेद थे और नमिसाधु (११वीं शती) के अनुसार उपनागर, आभीर और ग्राम्य। इन नामों से किसी प्रकार के क्षेत्रीय भेद का पता नहीं चलता। विद्वानों ने आभीरों को व्रात्य कहा है, इस प्रकार ‘ब्राचड’ का संबंध ‘व्रात्य’ से माना जा सकता है। ऐसी स्थिति में आभीरी और ब्राचड एक ही बोली के दो नाम हुए। क्रमदीश्वर (१३वीं शती) ने नागर अपभ्रंश और शसक छंद का संबंध स्थापित किया है। शसक छंदों की रचना प्रायः पश्च्िामी प्रदेशों में ही हुई है। इस प्रकार अपभ्रंश के सभी भेदोपभेद पश्च्िामी भारत से ही संबद्ध दिखाई पड़ते हैं। वस्तुतः साहित्यिक अपभ्रंश अपने परिनिष्ठित रूप में पश्च्िामी भारत की ही भाषा थी, परंतु अन्य प्रदेशों में प्रसार के साथ-साथ उसमें स्वभावतः क्षेत्रीय विशेषताएँ भी जुड़ गईं। प्राप्त रचनाओं के आधार पर विद्वानों ने पूर्वी और दक्षिणी दो अन्य क्षेत्रीय अपभ्रंशों के प्रचलन का अनुमान लगाया है।
अपभ्रंश भाषा का ढाँचा लगभग वही है जिसका विवरण हेमचंद्र के सिद्धहेमशबदानुशासनम् के आठवें अध्याय के चतुर्थ पाद में मिलता है। ध्वनिपरिर्वान की जिन प्रवृत्त्िायों के द्वारा संस्कृत शब्दों के तद्भव रूप प्राकृत में प्रचलित थे, वही प्रवृतियाँ अधिकांशतः अपभ्रंश शब्दसमूह में भी दिखाई पड़ती है, जैसे अनादि और असंयुक्त क,ग,च,ज,त,द,प,य, और व का लोप तथा इनके स्थान पर उद्वृत स्वर अ अथवा य श्रुति का प्रयोग। इसी प्रकार प्राकृत की तरह (‘क्त’, ‘क्व’, ‘द्व’) आदि संयुक्त व्यंजनों के स्थान पर अपभ्रंश में भी ‘क्त’, ‘क्क’, ‘द्द’ आदि द्वित्तव्यंजन होते थे। परंतु अपभ्रंश में क्रमशः समीतवर्ती उद्वृत स्वरों को मिलाकर एक स्वर करने और द्वित्तव्यंजन को सरल करके एक व्यंजन सुरक्षित रखने की प्रवृत्त्िा बढ़ती गई। इसी प्रकार अपभ्रंश में प्राकृत से कुछ और विशिष्ट ध्वनिपरिवर्तन हुए। अपभ्रंश कारकरचना में विभक्तियाँ प्राकृत की अपेक्षा अधिक घिसी हुई मिलती हैं, जैसे तृतीया एकवचन में ‘एण’ की जगह ‘एं’ और षष्ठी एकवचन में ‘स्स’ के स्थान पर ‘ह’। इसके अतिरिक्त अपभ्रंश निर्विभक्तिक संज्ञा रूपों से भी कारकरचना की गई। सहुं, केहिं, तेहिं, देसि, तणेण, केरअ,मज्झि आदि परसर्ग भी प्रयुक्त हुए। कृदंतज क्रियाओं के प्रयोग की प्रवृत्त्िा बढ़ी और संयुक्त क्रियाओं के निर्माण का आरंभ हुआ। संक्षेप में अपभ्रंश ने नए सुबंतों और तिङंतों की सृष्टि की। अपभ्रंश साहित्य की प्राप्त रचनाओं का अधिकांश जैन काव्य है अर्थात् रचनाकार जैन थे और प्रबंध तथा मुक्तक सभी काव्यों की वस्तु जैन दर्शन तथा पुराणों से प्रेरित है। सबसे प्राचीन और श्रेष्ठ कवि स्वयंभू (नवीं शती) हैं जिन्होंने राम की कथा को लेकर ‘पउम-चरिउ’ तथा ‘महाभारत’ की रचना की है। दूसरे महाकवि पुष्पदंत (दसवीं शती) हैं जिन्होंने जैन परंपरा के त्रिषष्ठि शलाकापुरुषों का चरित ‘महापुराण’ नामक विशाल काव्य में चित्रित किया है। इसमें राम और कृष्ण की भी कथा सम्मिलित है। इसके अतिरिक्त पुष्पदंत ने ‘णायकुमारचरिउ’ और ‘जसहरचरिउ’ जैसे छोटे-छोटे दो चरितकाव्यों की भी रचना की है। तीसरे लोकप्रिय कवि धनपाल (दसवीं शती) हैं जिनकी ‘भविस्सयत्त कहा’ श्रुतपंचमी के अवसर पर कही जानेवाली लोकप्रचलित प्राचीन कथा है। कनकामर मुनि (११वीं शती) का ‘करकंडुचरिउ’ भी उल्लेखनीय चरितकाव्य है।
अपभ्रंश का अपना दुलारा छंद दोहा है। जिस प्रकार प्राकृत को ‘गाथा’ के कारण ‘गाहाबंध’ कहा जाता है, उसी प्रकार अपभ्रंश को ‘दोहाबंध’। फुटकल दोहों में अनेक ललित अपभ्रंश रचनाएँ हुई हैं, जो इंदु (आठवीं शती) का ‘परमात्मप्रकाश’ और ‘योगसार’, रामसिंह (दसवीं शती) का ‘पाहुड दोहा’, देवसेन (दसवीं शती) का ‘सावयधम्म दोहा’ आदि जैन मुनियों की ज्ञानोपदेशपरक रचनाएँ अधिकाशंतः दोहा में हैं। प्रबंधचिंतामणि तथा हेमचंद्ररचित व्याकरण के अपभ्रंश दोहों से पता चलता है कि श्रृंगार और शौर्य के ऐहिक मुक्तक भी काफी संख्या में लिखे गए हैं। कुछ रासक काव्य भी लिखे गए हैं जिनमें कुछ तो ‘उपदेश रसायन रास’ की तरह नितांत धार्मिक हैं, परंतु अद्दहमाण (१३वीं शती) के संदेशरासक की तरह श्रृंगार के सरस रोमांस काव्य भी लिखे गए हैं।
जैनों के अतिरिक्त बौद्ध सिद्धों ने भी अपभ्रंश में रचना की है जिनमें सरहपा, कन्हपा आदि के दोहाकोश महत्वपूर्ण हैं। अपभ्रंश गद्य के भी नमूने मिलते हैं। गद्य के टुकड़े उद्योतन सूरि (सातवीं शती) की ‘कुवलयमाल कहा’ में यत्रतत्र बिखरे हुए हैं। नवीन खोजों से जो सामग्री सामने आ रही है, उससे पता चलता है कि अपभ्रंश का साहित्य अत्यंत समृद्ध है। डेढ़ सौ के आसपास अपभ्रंश ग्रंथ प्राप्त हो चुके हैं जिनमें से लगभग पचास प्रकाशित हैं।
अपभ्रंश का साहित्य :
बहुत दिनों तक पंडितों को अपभ्रंश साहित्य की जानकारी बहुत कम थी। कम तो अब भी है, पर अब पहले की अपेक्षा इस भाषा का बहुत अधिक साहित्य हमारे पास है। सन् 1877 ई. में पिशेल ने हेमचंद्राचार्य के प्राकृत व्याकरण का सुसंपादित संस्करण निकाला था। इस पुस्तक के  अंत में प्राकृतों से भिन्न अपभ्रंश भाषा का व्याकरण दिया हुआ है, और अपभ्रंश के पदों के उदाहरण के लिए अपभ्रंश के कुछ पद्य अधिकतर दोहे उद्धृत किए गए हैं। हेमचंद्राचार्य जैन धर्म के महान् आचार्य थे, वे अपने समय में कलिकाल सर्वज्ञ कहे जाते थे। इनके प्राकृत व्याकरण में अपभ्रंश की चर्चा है। अन्य प्राकृतों में व्याकरण के प्रयोगों का उदाहरण देते समय तो उन्होंने एक शब्द या एक वाक्यांश को पर्याप्त समझा है, पर अपभ्रंश के पदों का उदाहरण देते समय उन्होंने पूरे-पूरे दोहे उद्धत किए हैं। इससे इस भाषा के प्रति आचार्य की ममता सूचित होती है।
वे उन सभी से एक शब्द या आवश्यकता प़डने पर एक ही वाक्यांश उद्धत कर सकते थे, पर उन्होंने ऐसा न करके पूरा पद्य उद्धत किया है। इस प्रकार बहुत सी अमूल्य साहित्यिक रचनाएँ लुप्त होने से बच गए हैं बहुत दिनों तक अपभ्रंश भाषा और साहित्य के अध्ययन के लिए विद्वान् लोग इन्हीं दोहों से संतोष करते आए हैं। इनमें कई कवियों की रचनाएँ हैं। कुछ रचनाएँ हेमचंद्राचार्य की भी हो सकती हैं। पिशेल ने भी जब 1902 ई. में जर्मन भाषा में अपनी पुस्तक प्रकाशित की, तो प्रधान रूप से इन दोहों का अध्ययन किया, और अन्य उपलब्ध साहित्य अर्थात् विक्रमोवर्शीय सरस्वती कंठाभरण, वैताल पंचविशांत सिंहासन द्वात्रिशतिका और प्रबंध चिंतामणि आदि ग्रंथों में प्रसंग क्रम से आई हुई कुछ अप्रभंश रचनाओं का उपयोग किया। उनका विश्वास था कि अपभ्रंश का विशाल साहित्य अब खो गया है, बहुत दिनों तक अध्ययन इससे आगे नहीं बढ़ा। गलेरी जी ने अपनी पुस्तक में कुमारपाल चरित तथा प्रबंध चिंतामणि आदि में संगृहीत पदों की चर्चा की है। पर हेमचंद्राचार्य के संगृहीत दोहे उनके भी प्रधान संबल थे। बहुत दिनों तक इन्हीं पुस्तकों में प्राप्त बिखरी हुई सामग्री से अपभ्रंश भाषा और साहित्य का मर्म समझा जाता रहा।
सन् 1913-14 ईं. में एक जर्मन विद्वान् हर्मन याकोवी इस देश में आए। अहमदाबाद के एक जैन ग्रंथ भंडार का अवलोकन करते हुए, एक साधु के पास उन्हें भविसयत्त कहा की एक प्रति मिली। उन्होंने इसकी भाषा देखकर समझा कि यह अपभ्रंश की रचना है। इस समाचार से विद्वानों में बड़ा उत्साह आया और अन्य अपभ्रंश ग्रंथों के पाने की आशा बलवती हुई। बाद में अनेक जैन भंडारों की खोज करने पर अनेक महत्त्वपूर्ण रचनाएँ प्राप्त हुईं। यद्यपि ये रचनाएँ अधिकांश  में जैन कवियों की लिखी थीं। परंतु इनसे लोकभाषा के अनेक काव्य रूपों पर बिल्कुल नया और चकित कर देने वाला आलोक पड़ा। स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल, जो इंदु, रामसिंह आदि प्रथम श्रेणी के जैन कवियों की तो रचनाएँ प्राप्त हुई ही, अब्दुल रहमान जैसे मुसलमान कवि की उत्तम रचना भी प्राप्त हुई। अब हमारे सामने समृद्ध अपभ्रंश साहित्य का बहुत उत्तम निदर्शन है।
जैनेतर अपभ्रंश :
सन् 1916 ई. में म. म. पं. हरप्रसाद शास्त्री ने नेपाल से प्राप्त अनेक बौद्ध सिद्धों के पदों और दोहों को बौद्ध गान और दोहा। नाम देकर बंगाक्षरों में प्रकाशित किया। इन पदों और दोहों की भाषा को शास्त्री जी ने बंगला कहा। बाद में डॉ. शहीदुल्ला और डॉ. प्रबोधचंद्र बागची तथा पं. प्रकाशन हुआ। वस्तुतः इन दोहों और पदों की भाषा भी अपभ्रंश ही है, पर कुछ पूर्वी प्रयोग उनमें अवश्य है। दोहों की भाषा में तो परिनिष्ठित अपभ्रंश की मात्रा अधिक है।
अर्थात् इनमें भी केंद्रीय भाषा के निकट जाने का प्रयत्न है। शास्त्री जी के उद्योगों से ही विद्यापति की कीर्तिलता का प्रकाशन हुआ। इस पुस्तक की और इसके साथ ही इसी कवि की लिखी हुई एक और पुस्तक कीर्तिपताका की सूचना तो ग्रियर्सन ने पहले ही दे रखी थी, पर इसे प्रकाशित करने का श्रेय शास्त्री जी को है। विद्यापति ने स्वयं इस पुस्तक की भाषा को अवहट्ठ (अपभ्रष्ट-अपभ्रंश) कहा है। इसमें भी मैथिली प्रयोग मिलते हैं। इसमें गद्य का भी प्रयोग है। अधिकांश मैथिली प्रयोग गद्य में ही मिलते हैं। पद्यों में अपभ्रंश के प्रयोग ही अधिक मिलते हैं। इस पुस्तक में भी केंद्रीय भाषा के निकट रहने का वैसा ही प्रयत्न है, जैसा बौद्ध सिद्धों के दोहों में है।



खड़ीबोली का विकास

इस लेख में जहाँ एक ओर काव्यभाषा का विकासात्मक और प्रतीतिपरक मूल्यात्मक विवेचन किया गया है वहां दूसरी ओर संवेदना या जनता की चित्तवृत्ति में होने वाले परिवर्तनों के कारण खड़ीबोली के काव्यभाषा के रूप में विकास का भी अत्यंत व्यवस्थित वर्णन है। इस दृष्टि से यह लेख दोहरी अर्थवत्ता रखता है। संवेदना के बदलाव के कारक भाषा के भी बदलाव के कारक होते हैं। ‘नई चाल’ में ढलने के पूर्व खड़ी बोली ने कई मंज़िलें पार कीं और धर्म, राजनीति, शिक्षा, प्रचार-प्रसार तथा छापेखाने आदि के माध्यम से संवाद और विमर्श की भाषा के रूप में गद्य में विकसित हुई। गद्य भाषा के रूप में ब्रजभाषा की विफलता और खड़ीबोली की सफलता का यह इतिहास काफी रोचक और हिन्दी साहित्य तथा हिन्दी जाति की प्रतिष्ठा की दृष्टि से अत्यंत सार्थक है।
खड़ीबोली काव्य आन्दोलन और स्वच्छंदतावादी काव्यधारा के दौर में छायावाद के पूर्व खड़ीबोली किस प्रकार शैशवावस्था से किशोरावस्था को प्राप्त कर रही थी इसका संकेत  श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी, हरिऔध मैथिलीशरण गुप्त और रामचरित उपाध्याय आदि की कृतियों और महावीर छायावाद द्विवेदी की संपादन क्षमता सामर्थ्य और अनुशासन प्रियता तथा खड़ीबोली के मानकीकरण के प्रयत्नों के विवेचन क्रम में अनेक उदाहरणों मे मिलता है। छायावाद को जिस प्रकार की काव्यभाषा मिली थी उसे इन कवियों ने, और अधिक भाव-विचार-सम्प्रेषणक्षम बनाया है। ब्रजभाषा की कोमलता और मसृणता को खड़ी बोली में अन्तरिम करने के प्रयत्न में कविता की महत्वपूर्ण भूमिका है यह छायावाद के माध्यम से ही समझा जा सकता है। छायावाद ने हिन्दी में लाक्षणिकता संकेतपरकता और चित्रात्मकता को जिस प्रकार सूक्ष्म अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त करते हुए भाषा की अन्तर्निहित शक्ति के स्रोत का उद्धाटन किया यह भाषा, काव्य, चिंतन और प्रगति अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है।
 यह लेख इस अर्थ में नयी स्थापना करता है। और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की स्थापनाओं का विनम्रतापूर्वक सतर्क ढंग से प्रत्याख्यान भी करता है। शोधपरकता और विश्लेषण क्षमता का यह लक्षण होता है कि वह उस संभावना को भी रेखांकित करती चलती है जिससे महत्त्वपूर्ण कृतियाँ विकसित होती हैं। छायावादी कवियों की कृतियों की काव्यभाषा के मूल्यांकन में इसका संकेत बराबर मिलता है। छायावाद के कवि व्यक्तित्व और उनकी काव्यभाषा का क्रमिक विकास कैसे हुआ इस लेख में कालक्रमिक और मूल्यक्रमिक ढंग से प्रतिपादित किया गया है। छायावाद की प्रारंभिक कृतियों से अनेक उदाहरणों द्वारा यह सिद्ध किया जा सकता है कि अन्तत: एक बड़े कवि की खोज, भाषा की ही खोज होती है। मेरा मानना है इस लेख के द्वारा केवल छायावाद और छायावाद की काव्यभाषा क्षमता को ही नहीं समझा जा सकता है बल्कि खड़ीबोली की संभावना को भी रेखांकित किया जा सकता है।
खड़ीबोली के बीज प्राचीन काल से ही सिद्धों और नाथों की रचनाओं में मिलने लगते हैं किन्तु आधुनिक काल से पूर्व यह परम्परा मिश्रित रूप में ही मिलती है। इस प्रकार खड़ीबोली का इतिहास यद्यपि पुराना है, लेकिन उसके काव्यभाषा बनने और काव्यभाषा के रूप में पूर्ण स्वयत्तता प्राप्त करने का इतिहास अपेक्षाकृत आधुनिक है। बढ़ती हुई राष्ट्रीयता की भावना जहाँ एक ओर हिन्दी कविता को मध्यकालीन भक्ति और श्रृंगार से अलगाती है, वहीं उससे जुड़ी खड़ीबोली को काव्यभाषा के रूप में स्वीकृति मिलती है। आधुनिक काल से पूर्व गद्य की परम्परा नहीं के बराबर थी, साथ ही हमारा अधिकांश साहित्य ब्रजभाषा में मिलता है। इस प्रकार खड़ीबोली की प्रतिष्ठा और गद्य की विभिन्न विधाओं का विकास-ये दो महत्त्वपूर्ण बदलाव आधुनिक काल में दिखाई देते हैं। यह रोचक तथ्य है कि गद्यभाषा के रूप में खडी़बोली की प्रतिष्ठा अत्यन्त सहज रूप में हो गई किन्तु काव्यजगत में उसके प्रयोग का एक लम्बा इतिहास है। भारतेन्दु युग में जबकि गद्यभाषा के रूप में खड़ीबोली पूर्णत: प्रतिष्ठित हो गई थी, काव्य जगत् में ब्रजभाषा का ही एकाधिकार रहा। भाषा का यह द्वैत भारतेन्दु के बाद खड़ीबोली काव्यान्दोलन को जन्म देता है और द्विवेदी युग में महावीर छायावाद द्विवेदी के प्रयत्नों से काव्यभाषा के रूप में उसे स्वीकृति मिलती है।
 चूँकि आधुनिक काव्य का आरम्भ ब्रजभाषा से होता है, अत: आरम्भिक खड़ीबोली काव्य पर ब्रजभाषा का प्रभाव भी स्वाभाविक था। पं. श्रीधर पाठक से लेकर अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त, नाथूराम शंकर शर्मा, रायदेवी छायावाद पूर्ण और लोचन प्रसाद पाण्डेय आदि खड़ीबोली के छोटे-बड़े कवि रचनाकारों के साथ स्वयं महावीर छायावाद द्विवेदी की आरम्भिक खड़ीबोली रचनाएँ ब्रजभाषा के प्रभाव से एकदम अछूती नहीं है। खड़ीबोली रचनाएँ ब्रजभाषा के संस्कार से मुक्त कर व्यवस्थित करने के प्रयास में द्विवेदी युग में जो खड़ीबोली आती है वह इतिवृत्तात्मकता का  संस्कार लिये आती है और इस इतिवृत्तात्मकता से मुक्ति छायावाद की काव्यभाषा को जन्म देता है। काव्यभाषा के रूप में खड़ीबोली की इस विकास प्रक्रिया का विश्लेषण प्रस्तुत शोघ प्रबन्ध का एक पक्ष है।
आधुनिक खड़ीबोली काव्यभाषा का यह विकास क्रम छायावाद के काव्य में सर्वाधिक स्पष्ट होता है। छायावाद के कवि पहले ब्रजभाषा में लिखते थे, अत: उनकी आरम्भिक खड़ीबोली रचनाओं पर ब्रजभाषा का प्रभाव है। ‘इन्दु’ में समय-समय पर प्रकाशित प्रसाद की ब्रजभाषा कविताएँ ‘चित्राधार’ में संकलित हुई। ब्रजभाषा में लिखा गया उनका कथाकाव्य ‘प्रेमपथिक’ आठ वर्ष बाद खड़ीबोली में लिखा गया। ‘काननकुसुम’ की खड़ी बोली रचनाओं पर भी एक ओर ब्रजभाषा का प्रभाव है तो दूसरी ओर अधिकांश कविताओं की शैली इतिवृत्तात्मक है। इसी प्रकार ‘झरना’ की अनेक कविताएँ जबकि छायावाद की प्रवृत्तियां सबसे पहले झरना में दिखाई दीं द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता से मुक्त नहीं है। ‘झरना’ के बाद ‘आंसू’, ‘लहर’ और ‘कामायनी’ कवि की तीन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कृतियाँ छायावाद का प्रतिनिधित्व करती हैं। छायावाद की रचनाओं के इस क्रमिक विकास का अध्ययन खड़ीबोली काव्यभाषा के संदर्भ में और भी प्रासंगिक हो जाता है। काव्यभाषा के रूप में खड़ीबोली की विकास प्रक्रिया के विश्लेषण के बाद इस विकास क्रम में छायावाद-काव्य का अध्ययन नितांत आवश्यक है जो नि:सन्देह पूर्व पक्ष से अभिन्न रूप में सम्पृक्त है अथवा यों कहा जा सकता है जिसका विकास पूर्व पक्ष की पृष्ठभूमि में होता है।
 खड़ीबोली से पूर्व ब्रजभाषा की समृद्ध काव्य परम्परा थी। पूर्व मध्यकाल और उत्तर मध्यकाल में काव्यभाषा के पद पर एकाधिकार रखने वाली ब्रजभाषा को पदच्युत कर काव्यभाषा के रूप में खड़ीबोली की प्रतिष्ठा अनायास और अप्रत्याशित नहीं थी। इसके विकास के पीछे अनेक कारण थे। आधुनिक युग में बदलती हुई परिस्थितियाँ किस प्रकार बदली हुई उन परिस्थितियों का विवेचन प्रथम अध्याय के अन्तर्गत पृष्ठभूमि के रूप में किया गया है।
खड़ीबोली के प्रयोग की परम्परा यद्यपि प्राचीन है किन्तु प्रस्तुत अध्ययन आधुनिक खड़ीबोली काव्यभाषा से सम्बन्धित है। भारतेन्दु युग में गद्यभाषा के रूप में खड़ीबोली की प्रतिष्ठा किन्तु काव्य जगत में ब्रजभाषा का प्रयोग फिर महावीर प्रसाद द्विवेदी का आगमन और खड़ीबोली को ब्रजभाषा तथा अन्य प्रान्तीय शब्दों के प्रभाव से मुक्त कर व्याकरणबद्ध करना, अन्तत: व्यवस्था के इस क्रम में द्विवेदी युगीन इतिवृत्तात्मकता से मुक्ति का संकेत और छायावाद का आरम्भ-काव्यभाषा के रूप में खड़ीबोली के इस पूरे विकास को दर्शाता है।
प्रसाद के पहले खड़ीबोली काव्य संग्रह ‘काननकुसुम’ में संकलित ‘प्रथम प्रभात’ कई अर्थों में द्विवेदीयुग की इतिवृत्तात्मक शैली से अलग नई काव्य क्षमता का संकेत देती है जिसका विकास आगे चलकर छायावाद में होता है। एक ओर मैथिलीशरण गुप्त और मुकुटधर पाण्डेय में छायावाद का पूर्वाभास मिलने लगता है, तो दूसरी ओर निराला की ‘जुही की कली’ और पंत के ‘पल्लव’ में यह नई काव्य क्षमता खड़ीबोली को नया स्वर देती है। द्विवेदीयुग की इतिवृत्तात्मकता से छायावाद की चित्रात्मकता और बिम्ब क्षमता का काव्यभाषिक विश्लेषण तृतीय अध्याय के अन्तर्गत किया गया है।
प्रसाद पहले कवि है जिनकी रचनाओं में छायावाद की प्रवृत्तियाँ दिखाई दीं। ‘चित्राधार’ से लेकर ‘कामायनी’ तक छायावाद की काव्यभाषा का विकास आधुनिक खड़ीबोली काव्यभाषा के विकास क्रम को दर्शाता है। ब्रजभाषा से खड़ीबोली में लिखने का प्रयास और प्रयास की इस प्रक्रिया में उनकी आरम्भिक खड़ीबोली रचनाओं पर ब्रजभाषा का प्रभाव, साथ ही द्विवेदीयुग की इतिवृत्तात्मक शैली का संस्कार स्पष्टत: देखा जा सकता है। आगे चलकर ‘जुही की कली’  ‘पल्लव’ ‘आँसू’ ‘लहर’ और ‘कामायनी’ में छायावाद की काव्यभाषा का विकास दिखाई देता है। छायावाद की काव्यभाषा का यह विवेचन काव्यभाषा के सैद्धान्तिक पक्ष की अपेक्षा व्यावहारिक धरातल पर अधिक है। छायावाद के रूप में खड़ीबोली को अपना पूर्ण वैभव प्राप्त होता है। महाकाव्य के नूतन कलेवर में कामायनी न केवल अपने समय की बल्कि हिन्दी काव्य जगत की महानतम उपलब्धि के रूप में सामने आती है। ‘आँसू’ की सूक्ष्म प्रबन्ध कल्पना और ‘लहर’ की गीतसृष्टि खड़ीबोली काव्य में शिल्प के नये आयाम जोड़ती है। आधुनिक खड़ीबोली काव्यभाषा के विकास में छायावाद के इस योगदान सर्वविदित है।
आधुनिक युग में खड़ीबोली की संवर्धक शक्तियाँ और काव्यभाषा के रूप में उसकी स्वीकृति
१.आधुनिक काल: भाषा और संवेदना का बदलाव
खड़ीबोली के बीज यद्यपि सिद्धों और नाथों की रचनाओं में आदिकाल से ही मिलने लगते हैं किन्तु आधुनिक काल से पूर्व तक खड़ीबोली की यह परम्परा मिश्रित रूप में मिलती है। आधुनिक काल भाषा और संवेदना दोनों ही दृष्टियों से परिवर्तन का काल है। बढ़ती हुई राष्ट्रीयता की भावना जहाँ एक ओर हिन्दी कविता को मध्यकालीन भक्ति और श्रृंगार से अलगाती है, वहीं उससे जुड़ी खड़ीबोली को काव्यभाषा के रूप में स्वीकृति मिलती है।
२.गद्य भाषा के रूप में खड़ीबोली का विकास
आधुनिक काल से पूर्व गद्य की परम्परा नहीं के बराबर थी, साथ ही हमारा अधिकांश साहित्य ब्रजभाषा में मिलता है। इस प्रकार खड़ीबोली की प्रतिष्ठा और गद्य की विभिन्न विधाओं का विकास-ये दो महत्त्वपूर्ण बदलाव आधुनिक काल में दिखाई देते हैं और ये दोनों एक दूसरे के पूरक भी हैं। हम देखते हैं कि आधुनिक काल में खड़ीबोली का आगमन गद्य भाषा के रूप में होता है। यह रोचक है जबकि अधिकांश भाषाओं में विकास का क्रम काव्य से गद्य की ओर गतिमान होता है, खड़ीबोली में विकास का यह क्रम उलट जाता है। आधुनिक हिन्दी काव्यभाषा के विकास क्रम में मैथिलीशरण गुप्त के योगदान की चर्चा के प्रसंग में डा. नामवर सिंह ने खड़ीबोली हिन्दी के इस वैशिष्ट्य और अपवाद को ठीक ही पहचाना है, ‘‘पहले काव्य और फिर गद्य। विकास का यह क्रम अधिकांश भाषाओं में मिला है। नहीं मिलता तो खड़ी बोली हिन्दी में। खड़ी बोली हिन्दी के साहित्य का आरम्भ ही गद्य से हुआ इस मामले में वह आदमी अपनी संगोतिया उर्दू से भी भिन्न हैं।”1
३.पुनर्जागरण, वैचारिक जागृति और गद्य का विकास : अन्तर्सम्बन्ध
इस विपरीत विकास क्रम में हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल जिसका आरम्भ भारतेन्दु के रचनाकाल के साथ माना जाता है हिन्दी गद्य के विकास का काल भी है। भारतेन्दु से पूर्व रीतिकाल के सामन्तीय दरबारी परिवेश में चमत्कार अतिशयोक्ति और श्रृंगारपरक साहित्य की ही प्रधानता रही, जनजीवन और जनचेतना से विमुख रहने के कारण गद्य का विकास प्राय: अवरुद्ध रहा। किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी में पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के सम्पर्क से जो पुनर्जागरण आया, उसका सीधा प्रभाव साहित्य पर पड़ा। राजा राममोहनराय, केशवचन्द्र सेन, दयानंद सरस्वती और स्वामी विवेकानन्द इस पुनर्जागरण के सूत्रधार बने और इस पुनर्जागरण से उत्पन्न वैचारिक जागृति का साहित्य में प्रतिफलन रीतिकालीन दरबारी श्रृंगारिकता से अलग आधुनिक सामाजिक चेतना के साथ हुआ। जनजीवन की इस अभिव्यक्ति के लिए गद्य अनिवार्य आवश्यकता बन गई और खड़ीबोली ने जो अपने ठेठ रूप में देख के कई भागों में बोली जाती थी और उन्नीसवीं शती तक उत्तर भारत की शिष्ट भाषा हो चुकी थी, गद्य के क्षेत्र में सहज ढंग से प्रवेश किया।
४.खड़ीबोली के विकास में फोर्ट विलियम कॉलेज की भूमिका
गद्य के क्षेत्र में, खड़ीबोली की प्रतिष्ठा ने काव्यजगत में उसके प्रयोग की पीठिका तैयार की, यद्यपि उसकी स्वीकृति लम्बे अन्तराल के बाद, आधुनिकता का एक चरण बीतने के साथ हुई। आधुनिक काल में खड़ी बोली के आरम्भिक प्रयोग के संबंध में डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं, जिस समय रीतिकाल के अंतिम प्रसिद्ध कवि पद्माकर ब्रजभाषा का परिष्कार ठेठ हिन्दी क्षेत्र में रहकर अपने कवित्त-सवैयों में कह रहे हैं, उसी समय सुदूर राजधानी कलकत्ते में हिन्दी गद्य के साथ नये प्रयोग चल रहे हैं। धार्मिक ग्रंथों के अनुवाद या तत्सम्बन्धी वृत्तान्तों के रूप में कुछ पुराना ब्रजभाषा या खड़ीबोली हिन्दी गद्य का रूप अभी तक मिलता था, पर व्यावहारिक उद्देश्यों के लिये नियोजित गद्य का सजग रूप में प्रयोग यहाँ से आरम्भ होता है। स्पष्ट ही ये नये प्रयोग 1800 ई. में संस्थापित फोर्ट विलियम कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. जॉन वौर्थविक गिलक्राइस्ट द्वारा हिन्दी/हिन्दुस्तानी गद्य में लिखवाई गई लेखों के रूप में थे। इन लेखों में लल्लू लाल की रचना ‘प्रेमसागर’ और सदल मिश्र की रचना ‘चन्द्रावती’ या ‘नासिकेतोपाख्यान’ विशेष महत्त्वपूर्ण है। संवत् 1860 अर्थात् सन् 1803 ई. में लिखी गई इन दोनों ही रचनाओं की भूमिका में खड़ीबोली के आरम्भिक प्रयोग का संकेत क्रमश: यों मिलता है-‘श्रीयुक्त गुनगाहक गुनियन सुखदायक जान गिलकिरिस्त महाशय की आज्ञा से संवत् 1860 में लल्लूजी कवि ब्राह्मण गुजराती सहस्र अवदीच आगरे वाले ने विसका सार ले यामिनी भाषा छोड़ दिल्ली आगरे की खड़ीबोली में कह नाम प्रेमसागर धरा।’

हिन्दी का भाषा वैभव तथा महत्व

Posted by: संपादक- मिथिलेश वामनकर on: सितम्बर 2, 2008
भाषा की क्षमता के क्या निकष (कसौटियां) होने चाहिये?
(१) भाषा सीखने की सरलता और अक्षरों का वैज्ञानिक वर्गीकरण
(२) सीखने, सिखाने की असंदिग्ध सुस्पष्ट विधि
(३) अक्षर और शब्द उच्चरण की स्पष्टता और सनातनता
यह तीन गुण हिन्दी को देवनागरी लिपि के कारण परम्परा से प्राप्त हैं।
इसके अतिरिक्त, नीचे लिखे हुए गुण, हिन्दी को, वह संस्कृतजन्य होने के कारण, जन्मजात प्राप्त हैं।
(१) शब्द सम्पत्ति और वैश्विक तथा भारतीय भाषाओं में योगदान
(२) शब्द रचना क्षमता
(३) शब्दों की संवादिता, गेयता और काव्यमयता
(४) शब्दों की अर्थवाहिता,
(५) पारिभाषिक शब्दों की रचना क्षमता
(६) परम्परा से और अपरिमित साहित्य से जुडे रहने की क्षमता
(७) शब्दों की विकास या विस्तार क्षमता
सभी जानते हैं कि हिन्दी की देवनागरी लिपि शास्त्र-शुद्ध है। उसका वर्गीकरण एक विशेष ढंग से किया गया है। किन्तु हिन्दी के संस्कृतजन्य शब्द सुसंवादित एवं अर्थवाही भी होते हैं। हिन्दी में अंग्रेजी, अरबी की भांति स्पेलींग पाठ करना नहीं पडता, उच्चरण के अनुसार उसे लिखा और पढा जाता है। और यह सारे गुण सभी शिक्षित समाज को सामान्य रूप से ज्ञात होते हैं। इसके कारण हिन्दी सीखने की सरलता प्राप्त होती है और भाषा को शीघ्रता से सीखा जाता है।
किन्तु कुछ गुणों के विषय में साधारण हिन्दी प्रेमी को स्पष्ट रूप से जानकारी ना होने के कारण इस लेख में उन गुणों को विशद करने की चेष्टा की जाती है।
एक वैश्विक “धातु” व्यापन का उदाहरण:
वैसे तो विश्व की और विशेषकर यूरोप की कई भाषाओ में संस्कृत/ हिन्दी धातुओ का स्रोत पाया जाता है। यही बिन्दु अपने आपमें एक पूरे प्रकरण में विस्तृत किया जा सकता है। इस लेख मे इस बिन्दु का व्याकरणीय संधान लगाने का प्रयास किया है।
वैसे, कौटुम्बिक संबंधों के शब्द, सर्वनाम और धातु भी पर्याप्त मात्रा में भारतीय भाषाओ से प्रभावित हैं।
एक धातु “स्था” लेते हैं। इस धातु पर आधारित अनेक शब्द जैसे कि स्थान, स्थिति, स्थापना, स्थपति, स्थल, स्तब्ध, स्तंभ इत्यादि बनते हैं। धातु से जुडे हुये अर्थ हैं- खडा रहना, होना, उपस्थित होना, सहना, रुकना, स्थिर रहना इत्यादि। और व्युत्पादित अर्थ होते हैं जैसे कि जो खडा होता है, वह स्थिर होता है, फिर दृढ होता है, कडा भी होता है।
अब अंग्रेजी में इस “स्थ” धातु का संचार देखिये:
उदाहरण: जैसे To “st’and, be st’able, to “st’op, be “st’ill, or to “st’ay , दृढ और कडा इस अर्थ में जैसे stone, steel, और जो वस्तुएं खडी रहती हैं जैसे, stick, a stake, a staff, a stalk, a station, a stamen इत्यादि।
फिर रुकने, रहने, एकत्रित होने के स्थान, इस अर्थ में, जैसे कि stall, stadium और to step, to take a stand, जुडे हुए अर्थ के शब्द हैं study या strong फिर व्युत्पदित अर्थ के शब्द जो study या strong होता है- प्राणियों में नर होने से उसको भी stallion या steer या stag कहते हैं।
फिर नकारात्मक अर्थ में व्युत्पादित अर्थ में जो बहुत समय से रुका होता है उसे stagnant या stale कहा जाता है और फिर, stiff या तो sticky होता है और फिर stink करने लगता है। फिर sterile होना stagnant होने के समान है। अब एक शब्द देखिये- stare अर्थ होता है दृष्टि स्थिर करना। stonic का अर्थ है स्थिर रहकर (सम बुद्धि) विचलित ना होने वाला।
विद्यालय में जो पढाता हूं, structure (निर्माण) और static (स्थिर वस्तुओं का विज्ञान) इसमें भी यह “st” धातु, विद्यमान है।
ऐसे और भी उदाहरण आप केवल “st” को लक्ष्य में रखते हुए अंग्रेजी का शब्दकोष ढूंढने का पुरुषार्थ करेंगे तो प्राप्त कर पायेंगे।
इसी प्रकार “ज्ञ” या “जम” या “दिव” धातुओं पर और धातुओं पर संशोधन किया जा सकता है।
ध्यान रहे कि धातु कुछ संक्रमित होकर अंग्रेजी में जाते हैं। ज्ञ का “gn” या “kn” बनता है।
“जन” सशि बनता है इत्यादि-
 
शब्द रचना क्षमता-
 
देशी भाषाओं में, (जैसे गुजराती, मराठी, बंगला, उडीया, तेलगु, तमिल…इ.) नये नये शब्द, और परिभाषित शब्द हिन्दी/संस्कृत के आधार पर गढे जाते हैं।
भारत की प्राय: सारी प्रादेशिक भाषाएं संस्कृतजन्य संज्ञाओ का उपयोग करती हैं। वैज्ञानिक, औद्योगिक, शास्त्रीय इत्यादि क्षेत्रों में पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग सरलता से हो इसलिये और अधिकाधिक शोधकर्ता इस क्षेत्र को जानकर कुछ योगदान देने में समर्थ हो, इसलिये शब्द सिद्धि की प्रक्रिया की विधि इस लेख में संक्षेप में प्रस्तुत की जाती है।
यह लेख उदाहरणसहित उपसर्गों और प्रत्ययों के द्वारा मूल धातुओपर, संस्कार करते हुये किस विधि नये शब्द रचे जाते हैं इस विषय को स्पष्ट करने का प्रयत्न करेगा।
हिन्दी/ संस्कृत में २२ उपसर्ग हैं। शाला में एक श्लोक सीखा था।
प्रहार, आहार, संहार, प्रतिहार, विहार वत्
उपसर्गेण धात्वर्था: बलात् अन्यत्र नीयते।।
अर्थ: प्रहार, आहार, संहार, प्रतिहार, विहार की भांति उपसर्गों के उपयोग से धातुओके अर्थ बलपूर्वक अन्यत्र ले जाये जाते हैं।
 
उपसर्ग: प्र, परा, अप, सम, अनु, अव. नि: या निऱ्, दु:, या दुर, वि, आ. नि, अधि, अपि, अति, सु, उद. अभि, प्रति, परि और उप- इनके उपयोग से शब्द नीचे की भांति रचे जाते हैं।
कुछ उदाहरण: हृ हरति इस धातु से, प्र+हर – प्रहार, सं+हर – संहार, उप+हर – उपहार, वि+हर – विहार, आ+हर – आहार उद+हर – उद्धार, प्रति+हर – प्रतिहार इत्यादि शब्द सिद्ध होते हैं।
 
प्रत्यय: प्रत्ययों का उपयोग, कुछ उदाहरण:
(१) योग प्र+योग – प्रयोग, प्रयोग+इक – प्रायोगिक, प्रयोग+शील – प्रयोगशील, प्रयोग+वादी – प्रयोगवादी,
उप+योग – उपयोग+इता – उपयोगिता
उद+योग – उद्योग+इता – औद्योगिकता
उसी प्रकार रघु से राघव, पाण्डु – पाण्डव, मनु – मानव, कुरु – कौरव, इसी प्रकार और भी प्रत्यय हमें विदेह – वैदेहि, जनक – जानकी, द्रुपद – द्रौपदी – द्रौपदेय, गंगा – गांगेय, भगीरथ – भागीरथी, इतिहास – ऐतिहासिक, उपनिषद – औपनिषदिक, वेद – वैदिक, शाला – शालेय,
संस्कृत के पारिभाषिक शब्द, विशेषण का ही रूप है, इसलिये अर्थ को ध्यान में रखकर रचे जाते हैं। इसलिये शब्दकोष से ही उस अर्थ का शब्द प्राप्त करना पर्याप्त नहीं। हरेक संज्ञा का विशेष अर्थ होने से, परिभाषा को रचने के काम में उन्हीं व्यावसायिकों का योगदान हो, जो एक क्षेत्र के विशेषज्ञ है, साथ में पर्याप्त संस्कृत का भी ज्ञान रखते हैं।
संस्कृत भाषा में २२ उपसर्ग, ८० प्रत्यय और २००० धातु हैं। इनकी ही शब्द रचने की क्षमता २२*८०*२०००=३,५२०,००० – अर्थात ३५ लाख शब्द केवल इसी प्रक्रिया से बनाये जा सकते हैं।
इसके उपरान्त सामासिक शब्द, और सन्धि शब्द को जोडे तो शब्द संख्या अगणित होती है।
 
पारिभाषिक संज्ञाएं-
पारिभाषिक संज्ञाओकी रचना का उदाहरण:
तीन प्रकार की संज्ञाएं दिखाई देती हैं। (१) शब्दकोष में पाई जाती है। (२) दूसरी प्रादेशिक भाषा में पाई जाने वाली (३) जो monier williams और आपटे इत्यादि कोषों में पाई जाने वाली। आवश्यकता है कि चुने हुए शब्द का वैशेषणिक अर्थ अभिप्रेत संज्ञा के योग्य हो।
सबसे बडा योगदान उपसर्ग, प्रत्यय, समास और सन्धि प्रक्रिया से प्राप्त होता है।
उदाहरणार्थ- moment in mechanics is the product of
force and distance.
समास प्रक्रिया के उपयोग से “बलान्तर” संज्ञा बनती है।
व्याख्या: बलं च अन्तरस्य गुणाकार: स बलान्तर:।
Bending moment प्रत्यय के उपयोग से वक्रक बलान्तर:
Twisting moment व्यावर्तक बलान्तर:
Turning moment आवर्तक बलान्तर:
concrete – वज्र पदार्थ
steel – लोह
steel structure – लोह निर्माण, लोह पिंजर
Inertia – जडता,
Moment of Inertia – जड बलान्तर
Reinforced cement concrete – बलवर्धित वज्र इत्यादि
(इस विषय की लंबी सूची है)
सुसंवादी, गेय, अर्थवाही शब्द रचना।
हर वाग में एक स्वर होता है, जिसे संवादी स्वर कहा जाता है। उसी प्रकार किसी विशेष क्षेत्र में सुसंवादी पारिभाषिक शब्द रचना की जा सकती है। उदाहरण: मुख पेशियों के नाम (अभिनवं शारीरम्)
भ्रूसंकोचनी: Corrugator supercilli
नेत्र निमीलनी: Orbicularis Oculi
नासा संकोचनी: Compressor naris
नासा विस्फारणी: Dilator naris
नासा सेतु: Dorsum of the nose
नेत्रोन्मीलनी
नासावनमनी: Dopressor septi
एक और उदाहरण: Constitution, Law, Legistation code, Bill, Act इत्यादि शब्द अंग्रेजों के साथ ही भारत पहुंचे।
संस्कृत की क्षमता देखिये
Constitution संविधान
Law विधान
Legislation विधापन
Bill विधेयक
Illegal अवैध
Legal वैध
मूल अंग्रेजी शब्द एक दूसरे से स्वतंत्र है। Law का अर्थ जानने से Constitution, Legislation, Bill, Illegal, Legal यह सारे शब्द स्वतंत्र रूप से सिखना पडते हैं। किन्तु संस्कृत/ हिन्दी पर्याय एक “धा” धातु पर “उपसर्ग” और “प्रत्यय” लगाकर नियमबद्ध रीति से गढे गये हैं। जिसे संस्कृत शब्द सिद्धी की प्रक्रिया की जानकारी है, उसे ये शब्द आप ही आप समझ में आते हैं।
परकीय शब्दों के संस्कृत प्रतिशब्द रचने का शास्त्र जीवित और ज्वलन्त रखने का कार्य सहस्रों शोधकर्ताओं को अनुदान देकर करवाया जाता, तो हीनग्रंथि से पीडित यह पीढी जन्म ही ना लेती।
अर्थवाहिता-
एक और गुण जो संज्ञाओं को इस लोक से, परे ले जाता है, वह हिन्दी के उन शब्दों में है, जो वैसे शास्त्रों से जुडे हुए हैं। उदाहरणार्थ व्यक्ति, ब्रह्मांड, संसार, ब्रह्म, निसर्ग,
व्यक्ति: हमारे जन्म से पहले हम अव्यक्त थे, जन्मे तो अन्त तक व्यक्त रहे, और मृत्यु के अनन्तर फिर अव्यक्त में विलीन हुए। यह अर्थ व्यक्ति शब्द में निहित है। या तो यूं मानिये कि ईश्वर की परम, लौकिक सत्ता जिस निर्मित कृति में व्यक्त हो रही है, वह व्यक्ति है।
ब्रह्म: मूल शब्द बृहत् है। जिससे अंग्रेजी के Broad, Breadth इत्यादि शब्द बनते हैं। अर्थ है सदा विस्तरित होते रहना। ब्रह्मांड: उसका अंडाकार व्याप।
संसार: सम् सरति इति संसार: सम का अर्थ है “साथ” जैसे समाज, समिति (English में committee) तो संसार का अर्थ हुआ “जो साथ में सरते जाते हैं व ” इसीलिये इसे संसार कहा जाता है। पहले “अप्रकट” बीच में प्रकट होकर साथ चले फिर अप्रकट में चले गये। इसी प्रकार से अर्थवाही शब्द है- नदी, सरिता, मानव, निसर्ग।
नदी: या नादते (कल, कल कल नाद) सा नदी।
सरिता: या सरति सा सरिता। जो सरते सरते (नाद किये बिना) चलती है वह सरिता है।
मानव: मन: अस्ति स मानव:।
निसर्ग: य निसृत: स निसर्ग: इत्यादि
संस्कृतजन्य होने के कारण, हिन्दी को भी यह गुण प्राप्त है। यह गुण इसे वैश्वीकरण से भी ऊपर उठाता है।

मानक भाषा

Posted by: संपादक- मिथिलेश वामनकर on: सितम्बर 2, 2008
मानक भाषा और उसके प्रकार
‘मानक’शब्द अपने वर्तमान अर्थ में संस्कृत में नहीं आया है। हाँ, उसमें शब्द लगभग इस अर्थ में अवश्य है। ‘मान’ का संस्कृत में अर्थ ‘माप’, ‘मापदण्ड’, ‘मानदण्ड’ या पैमाना आदि है। ‘मान’ में स्वार्थे प्रत्यय ‘क’ के योग से अंग्रेजी ‘स्टैंडर्ड’ के प्रतिशब्द के रुप में ‘मानक’ शब्द बनाया गया है, किन्तु यह निर्माण हिंदी में 1945 के आसपास हुआ।
 
इस अर्थ में संज्ञा तथा विशेषण दोनों ही रूपों में पहले डॉ. रघुवीर ने ‘प्रमाप’ शब्द बनाया था किंतु वह चला नहीं। हिंदी के पुराने कोशों जैसे ‘हिंदी शब्द सागर’ (पहला संस्करण) या ‘वृहतहिंदी कोश’ (प्रारंभिक कई संस्करणों) में इसीलिए ‘मानक’ शब्द इस अर्थ में नहीं आया है। रामचंद्र वर्मा के 1949 में प्रकाशित ‘प्रामाणिक हिंदी कोश’ में सबसे पहले यह शब्द इस अर्थ में आया है जहाँ इसकी व्याखाया दी गयी हैः वह निश्चित या स्थिर किया हुआ सर्वमान्य मान या माप जिसके अनुसार किसी की योग्यता, श्रेष्ठता, गुण आदि का अनुमान या कल्पना की जाए (स्टैंडर्ड)। हिन्दी में मानक शब्द विशेषण तथा संज्ञा दोनों ही रूपों में आता है। ‘मानक भाषा’ में यह विशेषण है तो ‘मानक भवन’ (एक सरकारी कार्यालय) जो वस्तुओं के मानकीकरण से संबद्ध कार्य करता है) में संज्ञा।
 
मानक भाषा
 
हिंदी में ‘मानक भाषा’ के अर्थ में पहले ‘साधु भाषा’, ‘टकसाली भाषा’, ‘शुद्ध भाषा’, ‘आदर्श भाषा’ तथा ‘परिनिष्ठित भाषा’ आदि का प्रयोग होता था। अँग्रेज़ी शब्द ‘स्टैंडर्ड’ के प्रतिशब्द के रूप में मान’ शब्द के स्थिरीकरण के बाद ‘स्टैंडर्ड लैंग्विज’ के अनुवाद के रूप में ‘मानक भाषा’ शब्द चल पड़ा।
अँग्रेज़ी ‘स्टैंडर्ड’ शब्द की व्युत्पत्ति विवादास्पद है। कुछ लोग इसे ‘स्टैंड’ (खड़ा होना) सो जोड़ते हैं तो कुछ लोग एक्सटैंड ‘बढ़ाना’ से। मेरे विचार में यह ‘स्टैंड’ से संबद्ध है। वह जो कड़ा होकर, स्पष्टतः औरों से अलग प्रतिमान का काम करे। ‘मानक भाषा’ भी अमानक भाषा-रूपों से अलग एक प्रतिमान का काम करती है। उसी के आधार पर किसी के द्वारा प्रयुक्त भाषा की मानकता अमानकता का निर्णय किया जाता है।
 
‘मानक भाषा’ को लोगों ने तरह-तरह से स्पष्ट करने का यत्न किया है। रॉबिन्स (1966) के अनुसार सामाजिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण लोगों की बोली को मानक भाषा का नाम दिया जाता है। स्टिवर्ट (1968) ने प्रकृति, आंतरिक व्यवस्था तथा सामाजिक प्रयोग आदि के आधार पर भाषा के विभिन्न प्रकारों में अंतर दिखाने के लिए चार आधार माने हैं–
 
(1)    ऐतिहासिकता (History)-
‘ऐतिहासिकता’ का अर्थ है, भाशा की प्राचीन परम्परा और काल की दृष्टि से उसका विकास। अधिकांश भाषाएँ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक फिर दूसरी से तीसरी तक और ऐसे ही आगे पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती हैं। यही उनकी ऐतिहासिकता है। यह उल्लेख है कि एस्पिरैंतो, इदो, लौंग्लन जैसी कृतिम भाषाओं में इस ऐतिहासिकता का अभाव होता है।
 
(2)    मानकीकरण (Standardization)-
अर्थात भाषा को एक मानक रूप देना। ऐसा रूप जिसमें प्राप्त सभी विकल्पों में एक को मानक मान लिया गया हो तथा जिस भाषा रूप को उस भाषा के सारे बोलने वाले मानक स्वीकार करते हों। यह बात ध्यान देने की है कि सारे विश्व की अधिकांश समुन्नत भाषाओं का मानक रूप होता है, जबकि अवभाषा (वर्नाक्यूलर), बोली क्रियोल आदि का मानक रूप नहीं होता। मानकीकरण के कारण ही कोई भाषा अपने पूरे क्षेत्र में शब्दावली तथा व्याकरण की दृष्टि से समरुप होती है, इसीलिए वह सभी लोगों के लिए बोधगम्य भी होती है। साथ ही वह सभी लोगों द्वारा मान्य होती है अतः अन्य भाषा रूपों की तुलना में वह अधिक प्रतिष्ठित भी होती है।
 
 
(3)     जीवंतता ( Vitality)-
अर्थात भाषा का प्रयोक्ता कोई समाज हो जिसमें बोलचाल तथा लेखन आदि में उस भाषा का प्रयोग होता हो। जीवंत भाषा में निरंतर विकास होता रहता है। विश्व में बोली जाने वाली सभी भाषाओं और बोलियों में जीवंतता मिलती है। हाँ, संस्कृत, लैटिन, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश जैसी पुरानी या क्लासिकी भाषाएँ आज सामान्य प्रयोग में नहीं हैं, इसीलिए उनमें जीवंतता नहीं मानी जा सकती।
 
(4)    स्वायत्तता (Autonomy)-
स्वायत्तता से आश्य है अपने अस्तित्व के लिए किसी भाषा का किसी अन्य भाषा पर निर्भर न होना। सामान्यतः भाषाएँ स्वायत्तता होती हैं, किंतु बोलियाँ स्वायत्त नहीं होतीं; वे अपने अस्तित्व के लिए भाषा पर निर्भर करती हैं। इसीलिए हमें प्रत्येक बोली के लिए यह कहना पड़ता है कि वह बोली अमुक भाषा की है किंतु भाषा के संबंध में ऐसी कोई बाध्यता नहीं है।
 
इन आधारों को लेकर हम विचार करें तो क्लासिकी भाषा में ऐतिहासिकता होती है, मानकता होती है, किंतु जीवंतता नहीं होती, बोली में मानकता तथा स्वायत्तता नहीं होती, अवभाषा (वर्नाक्यूलर) में मानकता नहीं होती क्रतिम भाषा में केवल मानकता होती है, पिजिन में मात्र ऐतिहासिकता होती है, क्रियोल में अन्य सभी होती है, किंतु मानकता नहीं होती। मानक भाषा में ये चारो ही विशेषताएँ होती हैं। वस्तुतः स्टिवर्ट की ये बातें यह तो बतलाती हैं कि मानक भाषा में उपर्युक्त चार विशेषताएँ होती हैं, ‘किंतु मानक भाषा में मानकता भी होती है’ का तब तक कोई अर्थ नहीं, जब तक कि हम यह न बताएँ कि मानकता क्या है।
 
मानकता के निम्नांकित आधार हो सकते है-
 
 
(1)    मानकता का आधार कोई व्याकरणिक या भाषावैज्ञानिक तथ्य अथवा नियम नहीं होते। इसका आधार मूलतः सामाजिक स्वीकृति है। समाज विशेष के लोग भाषा के जिस रूप को अपनी मानक भाषा मान लें, उनके लिए वही मानक हो जाती है।
 
(2)    इस तरह भाषा की मानकता का प्रश्न तत्त्वतः भाषाविज्ञान का न होकर समाज-भाषाविज्ञान का है। भाषाविज्ञान भाषा की संरचना का अध्ययन करता है, और संरचना मानक भाषा की भी होती है और अमानक भाषा की भी। उसका इससे कोई संबंध नहीं कि समाज किसे शुद्ध मानता है और किसे नहीं। इस तरह मानक भाषा की संकल्पना को संरचनात्मक न कहकर सामाजिक कहना उपयुक्त होगा।
 
(3)    जब हम समाज विशेष से किसी भाषा-रूप के मानक माने जाने की बात करते हैं, तो समाज से आशय होता है सुशिक्षित और शिष्ट लोगों का वह समाज जो पूरे भाषा-भाषी क्षेत्र में प्रभावशाली एवं महत्त्वपूर्ण माना जाता है। वस्तुतः उस भाषा-रूप की प्रतिष्ठा उसके उन महत्त्वपूर्ण प्रयोक्ताओं पर ही आधारित होती है। दूसरे शब्दों में उस भाषा के बोलनेवालों में यही वर्ग एक प्रकार से मानक वर्ग होता है।
 
(4)    समाज द्वारा मान्य होने के कारण भाषा के अन्य प्रकारों की तुलना में मानक भाषा की प्रतिष्ठा होती है। इस तरह मानक भाषा सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक है।
 
(5)    सामान्यत- मानक भाषा मूलतः किसी देश की राजधानी या अन्य दृष्टियों से किसी महत्त्वपूर्ण केन्द्र की बोली होती है, जिसे राजनीतिक अथवा धार्मिक अथवा सामाजिक कारणों से प्रतिष्ठा और स्वीकृति प्राप्त हो जाती है।
 
(6)    बोली का प्रयोग अपने क्षेत्र तक सीमित रहता है, किंतु मानक भाषा का क्षेत्र अपने मूल क्षेत्र के भी बाहर अन्य बोली-क्षेत्रों में होता है।
 
(7)    यदि किसी भाषा का मानक रूप है तो साहित्य में, शिक्षा के माध्यम के रूप में, अंतःक्षेत्रीय प्रयोग में तथा सभी औपरचारिक परिस्थितियों में उस मानक रूप का ही प्रयोग होता है, अमानक रूप या बोली आदि का नहीं।
 
(8)    किसी भाषा के बोलने वाले अन्य भाषा-भाषियों के साथ प्रायः उस भाषा के मानक रूप का ही प्रयोग करते हैं, किसी बोली का अथवा अमानक रूप का नहीं।
 
संक्षेप में- ‘मानक भाषा’ किसी भाषा के उस रूप को कहते हैं  जो उस भाषा के पूरे क्षेत्र में शुद्ध माना जाता है तथा जिसे उस प्रदेश का शिक्षित और शिष्ट समाज अपनी भाषा का आदर्श रूप मानता है और प्रायः सभी औपचारिक परिस्थितियों में, लेखन में, प्रशासन और शिक्षा, के माध्यम के रुप में यथासाध्य उसी का प्रयोग करने का प्रयत्न करता है।
 
भाषाओं को मानक रूप देने की भावना जिन अनेक कारणों से विश्व में जगी, उनमें सामाजिक आवाश्यकता, प्रेस का प्रचार, वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास से एकरूपता के प्रति रूझान तथा स्व की अस्मिता आदि मुख्य हैं। यहाँ इनमें  एक-दो को थोड़े विस्तार से देख लेना अन्यथा न होगा। उदाहरण के लिए मानक भाषा की सामाजिक आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता। किसी भी क्षेत्र को लें, सभी बोलियों में प्रशासन साहित्य-रचना, शिक्षा देना या आपस में बातचीत कठिन भी है, अव्यावहारिक भी। हिन्दी की ही बात लें तो उसकी बीस-पच्चीस बोलियों में ऐसा करना बहुत संभव नहीं है। आज तो कुमायूंनी भाषी नामक हिंदी के जरिए मैथिली भाषी से बातचीत करता है किंतु यदि मानक हिंदी न होती तो दोनों एक दूसरे की बात समझ न पाते। सभी बोलियों में अन्य बोलियों के साहित्य का अनुवाद भी साधनों की कमी से बहुत संभंव नहीं है, ऐसी स्थिति में शैलेश मटियानी (कुमायूँनी भाषा) के साहित्य का आनंद मैथिली भाषी नहीं ले सकता था, न नागार्जुन (मैथिली भाषी) के साहित्य का आनंद कुमायूँनी, गढ़वाली या हरियानी भाषी। इस तरह सभी बोलियों के ऊपर एक मानक भाषा को इसलिए आरोपित करना, अच्छा या बुरा जो भी हो, उसकी सामाजिक अनिवार्यता है और इसलिए विभिन्न क्षेत्रों में कुछ मानक भाषाएँ स्वयं विकसित हुई हैं, कुछ की गई हैं और उन्होंने उन क्षेत्रों को काफी़ दूर-दूर तक समझे जानेवाले माध्यम के रूप में अनंत सुविधाएं प्रदान की हैं। ऐसे ही प्रेस के अविष्कार तथा प्रचार ने भी मानकता को अनिवार्य बनाया है।


हिन्दी मे वर्तनी

Posted by: संपादक- मिथिलेश वामनकर on: सितम्बर 2, 2008
किसी शब्द को किस प्रकार वर्णों से अभिव्यक्त किया जाए, यह समस्या काफी समय तक हिंदी में नहीं समझी जाती थी; जबकि अंग्रेजी व उर्दू में इसका महत्त्व था। अंग्रेजी व उर्दू में अर्धशताब्दी पहले भी स्पेलिंग/हिज्जों की रटाई की जाती थी और आज भी। हिंदी भाषा का पहला और बड़ा गुण ध्वन्यात्मकता है। हिंदी में उच्चरित ध्वनियों को व्यक्त करना बड़ा आसान है। जैसा बोला जाए, वैसा ही लिख जाए। देवनागरी लिपि की बहुमुखी विशेषता के कारण यह संभव था और है। यह बात शत प्रतिशत अब ठीक नहीं है। इसके अनेक कारण है-क्षेत्रीय आंचलिक उच्चारण का प्रभाव, अनेकरूपता, भ्रम परंपरा का निर्वाह आदि।
 
जब यह अनुभव किया जाने लगा कि एक ही शब्द की कई-कई वर्तनी मिलती हैं तो इनको अभिव्यक्त करने के लिए किसी सार्थक शब्द की तलाश हुई (‘हुई’ शब्द की विविधता द्रष्टव्य है-हुइ, हुई, हुवी)।
 
हिंदी शब्दसागर तथा संक्षिप्त हिंदी शब्दसागर के प्रारंभिक संस्करणों में ही नहीं, सन् 1950 में प्रकाशित प्रामाणिक हिंदी कोश (आचार्य रामचंद्र वर्मा) में इसका प्रयोग न होना यह सिद्ध करता है कि इस शताब्दी के मध्य तक इस शब्द की कोई आवश्यकता नहीं समझी गई। डॉ. बदरीनाथ कपूर ने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है-हमें स्मरण है कि उन्हीं दिनों (1950 के आसपास) आचार्य किशोरीदास वाजपेयी से जब वर्तनी शब्द के संबंध में चर्चा हुई थी तो वे बौखला उठे थे। उन्होंने कहा था कि हम जो बोलते हैं, वही लिखते हैं इसलिए हमें शब्दों की वर्तनी रटने की कभी आवश्यकता नहीं पड़ी।”
लगता है कि छठे दशक में यह ‘वर्तनी’ शब्द हिंदी में आ धमका; क्योंकि इस दशक में ही आगे-पीछे दो पुस्तकें प्रकाशित हुईं :
(1)    शुद्ध अक्षरी कैसे सीखें-प्रो. मुरलीधर श्रीवास्तव, भारती भवन, पटना।
(2)    हिंदी की वर्तनी-प्रो. रमापति शुक्ल, शब्दलोक प्रकाशन, वाराणसी।
 
पहली पुस्तक में प्रो. मुरलीधर श्रीवास्तव ने लेखक के इन विचारों को उद्धत किया-डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया के अनुसार, हिंदी की वर्णमाला पूर्णतः ध्वन्यात्मक होने के कारण हिंदी की वर्तनी की समस्या उतनी गंभीर नहीं जितनी अंग्रेजी की; क्योंकि हिंदी में आज भी लिखित रूप से शब्द अपने उच्चरित रूप से अधिक भिन्न नहीं।”
प्रो. मुरलीधरजी ने ‘अक्षरी’ शब्द का प्रयोग किया, जो चल नहीं सका; क्योंकि उसी समय लेखक ने ‘सिलेबिल’ के लिए ‘अक्षर’ का प्रयोग अपने डी. लिट्. के ग्रंथ ‘हिंदी भाषा’ में ‘अक्षर’ तथा शब्द की सीमा’ में स्थिर कर दिया। उस समय तक बिहार में ‘विवरण’ बंगाल में ‘बनान’ शब्द हिज्जे स्पेलिंग के लिए चल रहे हैं। कुछ अन्य शब्द थे।
 
अक्षरन्यास
अक्षर विन्यास
वर्णन्यास
वर्ण विन्यास
 
‘विवरण’ का यह अर्थ न ‘शब्दसागर’ में है, न (शब्द गठन) में ही प्रकट होता है; जबकि अक्षरी का अर्थ वर्तनी/हिज्जे दिया हुआ है।
‘अक्षर विन्यास’ :
शिक्षा के प्रोफेसर कृष्ण गोपाल रस्तोगी इस शब्द का प्रयोग बहुत तक करते रहे। यही ‘वर्ण विन्यास’ है। अमरकोश में लिपि के लिए अक्षर विन्यासः’ तथा ‘लिखितम्’ का प्रयोग भी पर्याय के रूप में मिलता है (लिखिताक्षर-विन्यासे लिपिः)।
 
उपर्युक्त सभी शब्दों के होते हुए भी अब इस अर्थ में ‘वर्तनी’ ही मान्य हो गया और भारत सरकार के केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली ने न केवल इस शब्द को मान्यता दी, वरन् एकरूपता की दृष्टि से कुछ नियम भी स्थिर किए हैं (हिंदी वर्तनी का मानकीकरण।)
वर्तनी शब्द भी संस्कृत का है, जिसकी व्युत्पत्तियाँ देते हुए आचार्य निशांतकेतु ने ‘वर्तनी’ शब्द के कोशगत अर्थ दिए हैं :
 
मार्ग, पथ, जीना, जीवन
पीसना, चूर्ण बनाना, तकुआ (आप्टे का कोश)
 
ज्ञानमंडल, वाराणसी द्वारा प्रकाशित ‘बृहद् हिंदी कोश’ में पहली बार वर्तनी का अर्थ हिज्जे दिया गया। काफी विवेचन के बाद वर्तनी की बड़ी व्यापक परिभाषा स्थिर की :
‘‘भाषा-साम्राज्य के अंतर्गत भी शब्दों की सीमा में अक्षरों की जो आचार सहिता अथवा उनका अनुशासनगत संविधान है, उसे ही हम वर्तनी की संज्ञा दे सकते हैं।….वर्तनी भाषा का वर्तमान है। वर्तनी भाषा का अनुशासित आवर्तन है, वर्तनी शब्दों का संस्कारिता पद विन्यास है। वर्तनी अतीत और भविष्य के मध्य का सेतु सूत्र है। यह अक्षर संस्थान और वर्ण क्रम विन्यास है।”
 
आचार्य रघुनाथ प्रसाद चतुर्वेदी ने संस्कृत व्याकरण के वार्तिक से इसका संबंध स्थापित करते हुए व्यक्त किया।
वार्तिक एवं वर्तनी दोनों शब्दों में ध्वनिसाम्य के साथ अर्थसाम्य भी एक जैसा ही है। सूत्र के द्वारा शब्द साधना का वैज्ञानिक विश्लेषण होता है तथा वार्तिक में सूत्रों द्वारा त्रुटिपूर्ण कथन पर पूर्ण विचार किया जाता है। वर्तनी भी इसी समानांतर प्रक्रिया से गुजरती है। वर्तनी का भी सामूहिक विशुद्ध स्वरूप ही भाषा की समृद्धि के लिए ग्राहृय है।
 
‘वर्तनी’ शब्द के विरोधी होते हुए भी आचार्य वाजपेयी आजीवन इस समस्या से जूझते रहे, पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर लिखते रहे और पुस्तकें भी प्रकाशित करते रहे, जिनमें से शब्द मीमांसा प्रथम संस्करण, 1958 ई.) तथा हिंदी की वर्तनी तथा शब्द विश्लेषण उल्लेखनीय हैं। शब्द मीमांसा के निवेदनि का अंतिम वाक्य है :‘‘भाषा में शब्दों की एकरूपता और वाक्य में शब्दों के सही प्रयोगों का निर्दशन इस पुस्तक में आप पाएँगे।”
पुस्तक में बड़े विस्तार से ‘हिंदी की प्रकृति’, ‘हिंदी के अपने शब्द’, ‘संस्कृत से शब्द ग्रहण करने की पद्धति’, ‘हिंदी में विदेशी भाषाओं के शब्द’, ‘वाक्य विन्यास’ तथा परिशिष्ट में ‘अर्थ संबंधी भ्रम’ पर विचार किया गया है।













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