Saturday, March 16, 2013

साहित्य के दृष्टिकोण

साहित्य के दृष्टिकोण

Writer


गजानन माधव मुक्तिबोध
संस्कार
 

 
साहित्य को किस दृष्टि से देखना चाहिए ? – इसके उत्तर के लिए हम उन सभी दृष्टियों पर विचार कर लें जिनसे अब तक लोग साहित्य को देखते आये हैं । हम उन दृष्टियों की साधारण गणना न कर उन दृष्टियों के मूल पर भी सोचते चलें, और इसी तरह उनके सापेक्ष महत्व को भी निश्चित करते चलें । साधारणतया साहित्य के दो पहलू रहे हैं । एक तो वह जिससे मनोरंजन हो और दूसरा वह जिससे हम अधिक मानवीय होते चलें । पहला केवल मनोरंजन ही मनोरंजन है, उसके आगे कुछ नहीं और दूसरा किसी आदर्श को लेकर चलता है। पुराने समय में भी एक साहित्य केवल मनोरंजन के लिए लिखा जाता था, जिसमें वर्ण-चमत्कार का बाहुल्य था, और दूसरा वह था जिसमें रसोद्रेक का उद्देश्य मनुष्य को अधिकाधिक मानवीय करते चलना था । चूँकि मनोरंजक साहित्य का उद्देश्य अत्यन्त सामयिक है, इसलिए हम दूसरे प्रकार के साहित्य पर, जिसमें किसी आदर्श को लेकर चलना होता है, विचार करते चलें । और इन्हीं आदर्शों पर विचार करते हुए हमें उन सभी दृष्टियों का पता चल जाएगा जिनसे साहित्य देखा जाता है ।



यूरोप में उपन्यास-साहित्य ने साहित्य को विविध कल्पना (conceptions) को जन्म दिया । ख़ासकर फ्रांस साहित्यिक विचार-धारा का सबसे अधिक जिम्मेवार है । रोमान्स, जिसमें सामयिक मनोरंजक साहित्य अधिकांश में था, फ्रांस के उपन्यासों का मुख्य विषय रहा । रोमान्स, जैसा कि वह शेली में या कालिदास में पाया जाता है, अपनी सचाई के कारण, अपनी आन्तरिक भाव-प्रवणता के कारण आदर्श की ओर ही उन्मुख है । दूसरी तरह का रोमान्स, जो अधिक बाहरी है और केवल हमारी कल्पना को ही तृत्त करता है, साहित्यिक दर्श के निकट नहीं है । कुछ-कुछ इसी तरह का रोमान्स फ्रांस में प्रचलित रहा । कथा-कहानियों में स्त्री-पुरुष-प्रेम, जिसको असलियत से कोई सीधा वास्ता नहीं था, कल्पना को तृप्त करने के लिए लिखा गया ।



इसी तरह के रोमान्स लिखते-लिखते प्रेमी और प्रेमिका को अधिक वास्तविक रुप मिलता गया । जैसे उनके स्नेह-भंग के कारणों में सामाजिक परिस्थिति और कौटुम्बिक मतभेद आदि थे । इस तरह रोमान्स के साथ-ही-साथ समाज-चित्रण और व्यक्ति-चित्रण आया ।



साहित्य काल्पनिक आधार अधिक वास्तविक भूमि पर आता गया । फिर भी काल्पनिक और वास्तविकता का इतना भेद नहीं था जितना वह अब है । इस सम्मिश्र साहित्य प्रकार का सुन्दर उदारहण लॉर्ड बायरन का कथा-काव्य ‘डॉन-जुआन’ है ।



परन्तु साहित्य ने फिर पलटा खाआ और रोमान्स-स्कूल के ख़िलाफ़ जबरदस्त विद्रोह हुआ । परिणाम था - यथार्थवाद का प्राबल्य । आश्चर्य की बात है कि जिस तरह जर्मनी ने युरोप के दार्शनिक-विचारजगत् का नेतृत्व किया उसी तरह फ्रांस साहित्यिक विचार-धारा का अग्रदूत रहा ।



फ्रांस के इस यथार्थवाद का बहुत प्रभाव पड़ा, और रुस का उपन्यास-साहित्य भी इससे अछुता न रह सका, किन्तु पैरिस की सोसाइटी वैसे भी फ़ैशनेबुल थी । इस फ़ैशनेबुल समाज का वर्णन करना एक बात हो गई, जिसमें ब्राह्म सौंदर्य का का भी खयाल रखा गया । इसके विरुद्ध स्कूल उठ खड़ा हुआ जिसने निम्न श्रेणी या दलित-पीड़ित कुरुप लोगों के जीवन का चित्रण किया । ये दोनों स्कूल आपस में एक-दूसरे से नहीं मिले ।



पहले यथार्थवादी स्कूल में फ़ैशनेबुल लोगों के रीति-रिवाज का चित्रण अधिक रहा और दूसरे यथार्थवादी स्कूल में कुरुपता का ही अधिक वर्णन रहा । दोनों स्कूल अपने अधिक्य में एकांगी हो गए, और परिणामतः असलियत से सम्बन्ध खो बैठे । एक तीसरा यथार्थवादी स्कूल और हुआ जिसमें मनुष्य की काम-सम्बन्धी बातों का का खुले-आम वर्णन किया गया और प्राइवेट लाइफ ही सामने अधिक आया । यह स्कूल भी साधारणतः उच्च-श्रेणीय नागरिक जीवन का चित्रण करता रहा और प्रकृतिवादी (naturalistic) स्कूल कहलाया । इसके अनुसार व्यभिचार इत्यादि नैतिक रीति से ठीक है क्यों कि मनुष्य में वासना स्वाभाविक है । अतएव, यह स्कूल नैतिकता के ख़िलाफ़ था ।



आदर्शवादी स्कूल का जन्म भी यही से शुरू होता है । अनैतिक का नैतिक के प्रति विद्रोह नैतिकता की उन्नति और उसके परिष्कार का कारण है । यह स्कूल प्रधानतः इंग्लैंड में पनपा । नैतिक आदर्श को लेकर ही कई उपन्यास लिखे गए। कलाकारों का अपना नैतिक चिन्तन हुआ । इस स्कूल के मुख्य लेखक माने जा सकते हैं, जार्ज ईलियट, मेरिडिथ वगैरह । परिणामतः आदर्शवादी उपन्यासों की कमजोरी का प्रधान कारण है बौदिध्क या कभी-कभी (जैसे मेरी कॉरेली में) धार्मिक या नैतिक आदर्शों का कला के साथ विषम सन्तुलन ।



उस उपदेशवादी या आदर्शवादी साहित्य के ख़िलाफ़ बगावत की कलावाद ने । इस स्कूल ने ‘कला कला के लिए’ का सिद्धान्त स्वीकार किया । इसमें बाह्म सौन्दर्य की ओर अधिक ध्यान था । साहित्यिक टैकनीक विशेष रुप से विकसित हुआ और साहित्य का उद्देश्य मनोरंजन माना गया ।



यह कलावाद प्राण-हीन था और ज़ल्दी ही ख़त्म हो गया । इसमें अधिक तुष्ट और सप्राण इव्सेन का सामाजिक साहित्य था । इब्सेन से बहुत लोग प्रभावित भौतिक सभ्यता ने समाज में नयी समस्याएँ उत्पन्न की । साहित्य इन समस्याओं से अछूता नहीं रह सका । इन पर विचार उपन्यासों और अन्य रचनाओं द्वारा किया गया । परिणामतः प्रचारवादी स्कूल खड़ा किया गया । फ्रॉयड के मनोवैज्ञानिक अन्वेषणों से साहित्य भी प्रभावित हुआ और तब से शुद्ध मनोवैज्ञानिक साहित्य का जन्म हुआ ।



इतना लिख जाने पर यह न समझना चाहिए कि किसी भी तरह का लेखन इन स्कूलों में बंध गया है । जीवन किसी भी दायरे में बंध नहीं सकता । और जहाँ-जहाँ जीवन के प्रति सचाई प्रकट की गई है वहाँ-वहाँ कला अपने सम्पूर्ण सौन्दर्य के साथ प्रकट हुई है । किन्तु जहाँ किसी ‘वाद’ या बौद्घिक विश्वास से जीवन को देखा गया है वहाँ जीवन की ताज़गी और उसका प्रवाह-संगीत लुप्त हो गया है । जिस तरह यथार्थवाद के सुन्दर-से-सुन्दर नमूने मिलते हैं, मध्यकालीन विक्टर ह्मू गो के ‘लामिजरेबुल्स’ (les miserables) आधुनिक-मॉक्सिम गोर्की के ‘मदर’ (mother) में, उसी तरह आदर्शवाद के भी सुन्दर-से-सुन्दर नमूने मिलते हैं ।



परन्तु लोग आलोचना करते समय किसी ख़ास ‘वाद’ के दायरे में बाँधकर ही साहित्य को देख पाते हैं । यह तरीक़ा एकदम ग़लत है । साहित्य के ‘वाद’ दार्शनिक या वैज्ञानिक प्रणालियाँ नहीं हैं, वे केवल साहित्य के दृष्टिकोण हैं ।



कोई भी दृष्टिकोण, यानी कोई भी साहित्यिक वाद तभी तक ठीक है जब तक वह जीवन की चेतना से परिपूर्ण है । यथार्थवाद जिसे आजकवल वर्गवादी प्रतिवादी कहते हैं, तभी तक ठीक है जब तक उसका लेखक अपनी स्फूर्ति वास्तविक स्थिति से पाता है । प्रश्न स्फूर्ति का ही है केवल ग्रामीण स्थिति देख भर लेने से, या गाँवों के वातावरण में लेखक के रहने से सच्चे यथार्थवादी साहित्य का जन्म नहीं हो सकता, जब तक लेखक की आत्मा ग्रामीणता में स्वयं नहीं पनपती और वहाँ की क्रिया-प्रतिक्रिया से प्रवहनशील होकर साहित्य में नहीं उतरती ।बारब्यूस एक सच्चा प्रतिवादी कलाकार था, क्योंकि उसकी क्रांति की भावना के पीछे उसका स्वयं का जीवन था, जो कि उसके आस-पास की परिस्थितियों से पूर्ण-सुसंगत और उसका प्रतिनिधित्व करता था ।



जिस तरह सामाजिक व्यथा से जाग्रत-आत्मा यथार्थवादी हो जाता है, उसी तरह अपनी सम्पन्न परिस्थिति में पनपी भावनाओं के मनोहर कोष से चेतन मानवी-आत्मा भावना-प्रधान और कल्पना-प्रधान, जिसे रोमैंटिक कहते हैं, हो जाती है । वास्तव में देखा जाय तो रोमांस और यथार्थवाद में केवल परिस्थिति जितना की शैली । परन्तु उसका दृष्टिकोण बहिर्मुख है, ब्राह्म वास्तविकता के संघर्ष से उत्पन्न उसकी भावनाएँ हैं और रोमेंटिक कलाकार का दृष्टिकोण अपने आन्तरिक जगत् के प्रति है । वह स्वयं अपना ही कलाकार है ।



प्रतिक्रिया-युग में हम देख पाते हैं कि यथार्थवादी रोमैंटिक के प्रति द्वेषभाव से देखता है परन्तु यह ग़लत है । मनुष्य की प्रकृति में क्या रोमान्स का स्थान नहीं है ? रोमान्स तो प्रवहमान जीवन-धारा का self-assertion है । जिस तरह वसन्त ऋतु में वृक्षों के अनेदर तरुण ओज फूल-पत्तियों का सृजन करता है वैसे ही वही तरण ओज स्त्री-पुरुष के अन्तर्जगत् में रोमान्स उत्पन्न करता है, उनके स्वस्थ शरीर में वह नवजीवन बनकर बहने लगता है ।



परन्तु व्यक्ति जितना सामाजिक है, उतना ही वैयक्तिक । कभी-कभी यथार्थवाद को भी कविता लिखने की सूझती है और कल्पना-प्रधान कलाकार को कहानियाँ और लेख । जब भावना-प्रधान प्राणी वाह्म वास्तविकता की ओर मुड़ता है और अपनी सरल ईमानदारी से वशीभूत होकर उसके प्रति अपने को जिम्मेवार ठहराता है, तभी से उस साहित्य की उत्पत्ति है जिसे हम आदर्शवादी साहित्य कह सकते हैं, क्योंकि वह जीवन पर सोचने लगता है, जीवन की tragedies, उसके विरोध और विसंगतियाँ उसके मन में बैठ जाती हैं । वह उनके विचारों से किसी तरह छुटकारा नहीं पा सकता । वह उन पर सोचता है, कुछ निष्कर्षों पर आता है और उन सबका चित्रांकन करता है । इस विशेष प्रकार का कलाकार जीवन को समस्त रूप में ग्रहण करने की चेष्टा करता है और यही उसका महत्व है । हार्डी, रोम्याँरोलाँ, शरद ऐसे ही कलाकारों में से हैं ।



हमने इन तीन मुख्य वादों पर ही अधिक प्रकाश डाला है । शेष दृष्टिकोण समझने में अधिक कठिनाई का सामना नही करना पड़ता । दूसरे, जगत का समस्त साहित्य अधिकतर इन तीन विभागों में ही बाँटा जाता है ।



पर क्या कारण है, युग के साथ-साथ कला परिवर्तित होती चलती है ? इसके मुख्य हेतु दो हैं- प्रथम आन्तरिक और दूसरा बाह्म । बाह्म परिस्थिति जिस तरह बदलती चलती है उसी तरह साहित्यिक धारा भी अपनी दिशा बदलती है । इसके उदाहरण आपको किसी भी अच्छे साहित्य में दृष्टिगोचर होंगे । हम इसको अधिक-से-अधिक बाह्म से प्रतिक्रिया कहेंगे । पर एक ऐसी भी प्रतिक्रिया है जो आन्तरिक जगत में होती है जिसके कारण साहित्य की आन्तरिक धारा में हलचल उत्पन्न होती है ।



कला तभी तक जीती-जागती रहती है जब तक कि लेखक का वर्ण्य वस्तु के प्रति भावात्मक सम्बन्ध हो । जिस प्रकार सोचना या विचार करना ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक साधन है, उसी प्रकार भावना कभी जीवन का ज्ञान प्राप्त करने का एक कलात्मक साधन है । भावनानुभूत ज्ञान ही कला का विषय है, परन्तु जब हम कला का सच्चा दृष्टिकोण छोड़कर किसी दूसरे क्षेत्र में चले जाते हैं, तब हम धीरे-धीरे प्रतिक्रिया का आह्वान करते हैं । उदाहरणतः कबीर जब तक अपने रंग में मस्त होकर जीवन का ज्ञान सुनाता है, तभी तक वह कलाकार है, पर जब वह हमें उसके बौद्धिक-दार्शनिक निर्गुण-वाद के प्रति आस्था रखने के लिए आग्रह करता-सा दीख पड़ता है, वहीं वह कला का दृष्टिकोण छोड़कर दार्शनिक दृष्टिकोण के क्षेत्र में उतर आता है जिसके अलग नियम हैं और मूल्याँकन के अलग standard । उसी तरह पद्माकर श्रृंगार के साधन और उसके उपकरणों का catalogue पेश करते हैं । यहाँ भी वही दोष है ।



एक दूसरे प्रकार की आन्तरिक प्रतिक्रिया तब शुरू होती है जब भावनानुभूति के नाम पर हम उन्हीं भावनाओं को दुहराते रहते हैं जो निष्प्राण हो गयी हैं, जहाँ जीवन की गति कुण्ठित हो गयी है । इस प्रकार साहित्य में बासीपन की उत्पत्ति होती है, जिसके विरुद्ध प्रतिक्रिया फ़ौरन शुरु हो जाती है, क्योंकि जीवन एक जगह रुका नहीं रहता ।



क्यों एक कलाकार दूसरे कलाकार से ऊँचा कहा जाता है ? क्यों Walt Whitsman या Browning को लोग Tennyson से ऊँचा समझते हैं ? कबीर क्यों बिहारी से ऊँचा है ?



इस प्रश्न का उत्तर देते समय हमें साहित्य में सतह का भी परिचय हो जाता है । कौन किस सतह से बोलता है, यह सवाल है । रवीन्द्रनाथ जिस सतह से बोलते हैं, जिस व्यापक जीवन के सर्वोच्च बिन्दु पर वे खड़े होकर देश-देशान्तर के जन-समुदाय के सामने अपने को प्रकट करते हैं, उस स्थान से अन्य अनुगामी कलाकार नहीं बोल पाते । उतना ही उनमें बौनापन है जितना कि रवीन्द्र में ऊँचाई।



साहित्य का मूल्याँकन निश्चित करते समय इस सतह का ध्यान रखना ही पड़ता है । कवि का शब्द-चयन, छन्दोरचना, प्रकृतिवर्णन, स्वभाव-चित्रण अत्यन्त सुन्दर होते हुए भी (जैसे कि टेनिसन में है) यदि ऊँची सतह नहीं है, तो वह उच्च कलाकार नहीं कहला सकता ।

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