प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मेरा जीवन सपाट, समतल मैदान है; जिसमें कहीं-कहीं गढ़े तो हैं, पर टीलों,
पर्वतों घने जंगलों, गहरी घाटियों और खंडहरों का स्थान नहीं है। जो सज्जन
पहाड़ों की सैर के शौकीन हैं, उन्हें यहाँ निराशा ही होगी।
जब मेरी उम्र कोई तेरह साल की रही होगी, मैं हिंदी न जानता था। उर्दू के
उपन्यास पढ़ने का उन्माद था। मौलाना शरर, पं. रतननाथ सरशार, मिर्जा रुसबा,
मौलवी मुहम्मद अली हरदोई निवासी उस वक्त के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे। इनकी
रचनाएँ जहाँ मिल जाती थीं, स्कूल की याद भूल जाती थी और पुस्तक समाप्त
करके ही दम लेता था।
मेरा विवाह करने के साल बाद ही मेरे पिता परलोक सिधारे। उस समय मैं नौवें
दर्जें में पढ़ता था। घर में मेरी स्त्री थी, विमाता थीं, उसके दो बालक थे
और आमदनी एक पैसे की नहीं थी। घर में जो कुछ लेई-पूजीं थीं वह पिताजी की
छह महीने की बीमारी और क्रिया-कर्म में खर्च हो चुकी थी और मुझे
अरमान था वकील बनने का और एम.ए. पास करने का। नौकरी उस जमाने
में
इतनी ही दुष्प्राप्य थी जितनी अब है। दौड़-धूप करके शायद दस-बारह की कोई
जगह पा जाता;
पर यहाँ तो आगे पढ़ने की धुन थी। गाँव में लोहे की अष्टधातु
की वहीं बेड़ियाँ थी और मैं चढ़ना चाहता था पहाड़ पर।
मेरे हर उपन्यास में एक आदर्श चरित्र है, जिसमें मानव दुर्बलताएँ भी हैं
और गुण भी; परंतु वह मूलतया आदर्शवादी है।
‘प्रेमाश्रम’ में
ज्ञानशंकर है, ‘रंगभूमि’ में सूरदास,
‘कायाकल्प’
में चक्रधर...मेरी राय है, मेरी कृतियों में सबसे अच्छी
‘रंगभूमि’ है।....अधिकांश चरित्र वास्तविक
जीवन से
लिए गए
हैं, गो उन्हें काफी अच्छी तरह परदे में ढक दिया गया है।
‘सेवासदन’ की फिल्म बनी। उस पर मुझे सात सौ पचास
रुपये मिले।
अगर इस तंगी में वह रुपए नहीं मिल जाते तो न जाने क्या दशा होती।.....फिर
बंबई की एक फिल्म कंपनी ने बुलाया। वेतन पर नहीं, कॉण्ट्रैक्ट पर आठ हजार
रुपए साल। मैं उस अवस्था में पहुँच गया था जब मेरे लिए
‘हाँ’
करने के सिवा और कोई उपाय नहीं रह गया था।....बंबई गया अजंता सिनेटोन में।
यहाँ दुनियाँ दूसरी है; यहाँ की कसौटी दूसरी है।....मैं इस लाइन में यह
सोचकर आया था कि मुझे आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र होने का मौका मिलेगा; मैं
धोखे में था।
‘प्रेमचंद की आत्मकथा’ ! पढ़कर आश्चर्य
होगा। 1932 में
हंस’ के ‘आत्मकथांक’ में
प्रकाशित’
जीवन-सार’ तथा इसी प्रकार के छह-सात और आत्मकथात्मक निबंध लिखने
के
बावजूद प्रेमचंद ने अपनी औपचारिक आत्मकथा नहीं लिखी थी। इसका
कारण
संभवतः वह भारतीय परंपरा थी जिसमें कृति को तो महत्त्व दिया जाता था,
कर्ता को नहीं। इसलिए हमारे यहाँ अमर साहित्यक कृतियाँ तो बची
हैं, किंतु
उनके रचनाकारों का जीवनवृत्त अज्ञात ही रहा है। आधुनिक काल में पश्चिम के
प्रभाववश अन्य भारतीय भाषाओं के साथ-साथ हिंदी के साहित्यकार भी
आत्मकथाएँ लिखने लगे हैं; किंतु गुण और परिमाण दोनों की दृष्टि
से
विधा अभी तक बहुत समृद्ध नहीं कहीं जा सकती है।
लेकिन क्या प्रेमचंद ने
सचमुच आत्मकथा नहीं लिखी थी ? प्रेमचंद्र ने औपचारिक रूप से
आत्मकथा
न लिखी हो, लेकिन अनौपचारिक रूप से उन्होंने अपनी आत्मकथा अवश्य लिखी है।
किसी भी रचनाकार की तरह उनकी रचनाओं में भी आत्मकथा समाविष्ट है। उनकी यह
आत्मकथा उनके उपन्यासों, कहानियों, निबंधों, पत्रों आदि में बिखरी हुई थी।
प्रेमचंद्र के जीवन के बहिरंग और अंतरंग की अत्यंत आत्मीय झाँकी प्रस्तुत
करनेवाली यह आत्मकथा इतनी रोचक और मोहक है कि आप इसे पढ़ना शुरू करके बीच
में नहीं छोड़ पाएँगें और इससे अभिभूत हुए बिना नहीं रह पाएँगे।
भूमिका
यह पुस्तक मुंशी प्रेमचंद के जीवन, उनके लेखन तथा उनके युग की कहानी है।
यह कहानी उन्हीं के अपने शब्दों में है। उनकी आत्मकथा है। इसका मूल आधार
तो उनका आत्मकथांक ’जीवन-सार’ है, जो फरवरी 1932 में
‘हंस’ में प्रकाशित हुआ था। परंतु यह उनके जीवन के
पचास
वर्षों का विवरण था। इसके पूर्व पाँच-छह वर्षों में प्रेमचंद ने
‘कजाकी’, ‘चोरी’,
‘रामलीला’
‘गुल्ली-डंडा’ ‘लॉटरी’ इत्यादि
कहानियाँ लिखी
थीं; जिसके वे स्वयं नायक हैं। इस तथ्य की पुष्टि उनकी शिवरानी देवी ने
अपनी पुस्तक ‘प्रेमचंद : घर में’ की है।
प्रेमचंद के परम मित्र जैनेंद्र कुमार जैन ने लिखा है कि स्वयं
‘प्रेमचंदजी ने एक बड़ी दिलचस्प आपबीती सुनाई। एक निरंकुश युवक
ने
किस प्रकार उन्हें ठगा और किस सहजभाव से वह उसकी ठगाई में आते रहे।....उस
चालाक युवक ने प्रेमचंद जी को ऐसा मूँड़ा किकहने की बात नहीं। सीधे-सादे
रहनेवाले प्रेमचंदजी के पैसे के बल पर उन्हीं की आँखों के नीचे उस जवान ने
ऐसे ऐश किए कि प्रेमचंदजी आँख खुलने पर स्वयं विश्वास न कर सकते
थे।
प्रेमचंद जी से उसने अपना विवाह करवाया, बहू के लिए जेवर बनवाए-और
प्रेमचंद जी सीधे तौर पर सबकुछ करते गए। कहते थे-भई जैनेंद्र सर्राफा को
अभी पैसे देने बाकी हैं। उसने जो सोने की चूड़ियाँ बहू के लिए दिलाई थीं
उनका पता तो मेरी धर्म पत्नी को भी नहीं है। अब पता देकर अपनी शामत ही
बुलाना है। पर देखों न, जैनेंद्र, वह सब फरेब था। वह लड़का ठग निकला। अब
ऊपर-ही-ऊपर जो एक दो कहानियों के रुपए पाता हूँ, उससे सर्राफा का देना
चुकता करता जाता हूँ। देखना, कहीं घर में कह देना। मुफ्त की आफत मोल लेनी
होगी। बेवकूफ बने तो बेवकूफी का दंड भी हमें भरना है।’
प्रेमचंद की यह ‘आत्मकथा’ साहित्य में एक नए प्रकार
का प्रयास है। इसकी पृष्ठभूमि के संबंध में कुछ निवेदन आवश्यक है।
छप्पन वर्ष पूर्व प्रेमचंद के जीवन तथा लेखन पर अंग्रेजी में मेरी एक
पुस्तक प्रकाशित हुई थी। यह किसी भी भाषा में इस विषय पर सर्वप्रथम पुस्तक
थी। एक सौ बीस पन्ने की यह पुस्तक प्रेमचंद के निधन के सात साल बाद छपी
थी।
पुस्तक किसी भी भारतीय भाषाई साहित्यकार पर किसी भारतीय द्वारा
अंग्रेजी में लिखी सर्वप्रथम थी। इस पुस्तक की बड़ी चर्चा हुई। अहिंदी
क्षेत्रों में ही नहीं, विदेशों में भी साहित्यकार प्रेमचंद को मान्यता
मिलने में सहायता मिली।
जब प्रेमचंद के प्रिय शिष्य जनार्दन प्रसाद झा
‘द्विज’
ने अपनी ‘प्रेमचंद की उपन्यास कला’ नामक पुस्तक की
पहली प्रति
उन्हें भेंट की तो वे प्रसन्न हुए और कहा कि ‘मेरे इस संसार से
चले
जाने के बाद तुम मुझपर पाँच सौ पृष्ठों की किताब लिखना।’
‘द्विज’ के बारे में मुझे अधिक जानकारी नहीं है;
परंतु
बीस-पच्चीस वर्ष बाद यह काम मैंने और अमृतराय ने किया हमारी
‘प्रेमचंद : कलम का मजदूर’ और ‘कलम का
सिपाही’
दोनों को ही प्रामाणित जीवनी की मान्यता प्राप्त है।
मेरी ‘कलम
का
मजदूर’ व ‘ए लिटरेरी बायग्राफी’ और अमृतराय
की
‘कलम का सिपाही’-इन तीनों पुस्तकों में प्रेमचंद के
उन पत्रों
का भरपूर प्रयोग किया गया है, जो मैंने बीस-पच्चीस वर्षों में इकट्ठे किए
थे। इन पात्रों में प्रेमचंद के जीवन पर बहुत अच्छा प्रकाश पड़ता है;
क्योंकि प्रेमचंद के बारे में, अपने ही शब्दों में (उत्तम पुरुष में) हैं।
इनके उद्धरणों का मैंने प्रेमचंद के जीवन से संबंधित कहानियों को जोड़ने
के लिए प्रयोग किया है।
प्रेमचंद की जन्मी-शती के अवसर पर मुझे ध्यान आया था, क्यों न प्रेमचंद के
जीवन, लेखन, आदर्शों तथा युग पर एक ऐसा ही प्रयास किया जाए। प्रस्तुत
पुस्तक में प्रेमचंद की पंद्रह-सोलह कहानियाँ और उनके पत्रों के
विभिन्न उद्धरणों का चयन कर उन्हें एक लड़ी के रूप में प्रस्तुत किया गया
है। उद्धरणों के चयन के अलावा मेरा योगदान केवल वे थोड़ी सी पंक्तियाँ
हैं, जिन्हें भिन्न टाइप (इटेलिक्स) में दिया गया है। वास्तव मेरा काम
मालाकार का है, इससे अधिक कुछ नहीं। बाकी सब प्रेमचंद हैं।
आशा करता हूँ कि पाठकों को इस पुस्तक पढ़ने में प्रेमचंद की आत्मकथा का रस
मिलेगा।
बी 2/17, बसंत विहार,
नई दिल्ली-57
-मदन गोपाल
प्रेमचंद की आत्मकथा
एक
मेरा जन्म संवत 1937 में हुआ। नाम दिया गया धनपत राय। बाप का नाम था मुंशी
अजायब लाल। काशी के उत्तर की ओर पांडेपुर के निकट लमही ग्राम का निवासी
हूँ। पिता डाकखाने में क्लर्क थे। तबादला भी होता रहता था। बचपन की याद
नहीं भूलती। वह कच्चा-टूटा घर, वह पुआल का बिछौना; वह नंगे बदन, नंगे पाँव
खेतों में घूमना, आम, के पेड़ों पर चढ़ना-सारी बातें आँखों के सामने फिर
रही हैं। चमरौधे जूते पहन कर उस वक्त कितनी खुशी होती थी,
‘फ्लेक्स’ के बूटों में भी नहीं होती। गरम पनुए रस
में जो मजा
था वह अब अंगूर, खीर और सोहन हलुआ में भी नहीं मिलता।
मेरी बाल-स्मृतियों में ‘कजाकी’ एक न मिटने वाला
व्यक्ति है।
आज चालीस साल गुजर गए, कजाकी की मूर्ति अभी तक आँखों के सामने नाच रही है।
मैं उन दिनों अपने पिता के साथ आजमगढ़ की एक तहसील में था। कजाकी जाति का
पासी था; बड़ा ही हँसमुख, बड़ा ही साहसी, बड़ा ही जिंदादिल ! वह
रोज
शाम को डाक का थैला लेकर आता, रात भर रहता और सबेरे डाक लेकर चला जाता।
शाम को फिर उधर से डाक लेकर आ जाता। मैं दिन भर एक उद्विग्न दशा में उसकी
राह देखा करता ज्यों ही चार बजते, व्याकुल सड़क पर आकर खड़ा हो जाता और
थोड़ी देर में कजाकी कंधे पर बल्लम रखे, उसकी झुनझुनी बजाता, दूर से
दौड़ता हुआ आता दिखलाई देता। वह साँवले रंग का गठीला, लंबा जवान था।
शरीर
साँचे में ऐसा ढला हुआ कि चतुर मूर्तिकार भी उसमें कोई कोई दोष न निकाल
सकता। उसकी छोटी-छोटी मूँछें उसके सुडोल चेहरे पर बहुत ही अच्छी मालूम
होती थीं। मुझे देखकर वह और तेज दौड़ने लगता। उसकी झुनझुनी और तेजी से
बजने लगती और मेरे हृदय में और जोर से खुशी की धड़कन होने लगती।
हर्षातिरेक में मैं भी दौड़ पड़ता और एक क्षण में कजाकी का कंधा मेरा
सिंहासन बन जाता। वह स्थान मेरी अभिलाषाओं का स्वर्ग था।
स्वर्ग के
निवासियों को भी शायद वह आंदोलित आनंद न मिलता होगा जो मुझे कजाकी के
विशाल कंधों पर मिलता था। संसार मेरी आँखों में तुच्छ हो जाता और जब कजाकी
मुझे कंधे पर लिए हुए दौड़ने लगता तब तो ऐसा मालूम होता मैं हवा के घोड़े
पर उड़ा जा रहा हूँ।
कजाकी डाकखाने में पहुँचता तो पसीने से तर रहता; लेकिन आराम करने की आदत न
थी। थैला रखते ही वह हम लोगों को लेकर किसी मैदान में निकल जाता। कभी
हमारे साथ खेलता, कभी बिरहे, गाकर सुनाता और कभी कहानियाँ सुनाता। उसे
चोरी और डाके, मारपीट, भूत-प्रेत की सैकड़ों कहानियाँ याद थीं। मैं वे
कहानियाँ सुनकर विस्मय आनंद मे मग्न हो जाता। उसकी कहानियों के चोर और
डाकू सच्चे योद्धा होते थे, जो अमीरों को लूटकर दीन-दुखियों का पालन करते
थे। मुझे उनपर घृणा के बदले श्रद्धा होती थी।
एक दिन कजाकी को डाक का थैला लेकर आने में देर हो गई। सूर्यास्त हो गया और
वह दिखलाई न दिया। मैं खोया हुआ सा सड़क पर दूर तक आँखें फाड़-फाड़कर
देखता था; पर वह परिचित रेखा न दिखलाई पड़ती थी। कान लगाकर सुनता था,
‘झुनझुन’ की वह आमोदमय ध्वनि न सुनाई देती थी। प्रकाश
के साथ
मेरी आशा भी मलिन होती जा रही थी। उधर से किसी को आते देखता तो
पूछता-कजाकी आता है ? पर या तो कोई सुनता ही न था या केवल सिर हिला देता
था।
सहसा ‘झुनझुन की आवाज कानों में आई। मुझे अँधेरे में चारों ओर
भूत
ही दिखलाई देते थे; यहाँ तक कि माताजी के कमरे में ताक पर रखी हुई मिठाई
भी अँधेरा हो जाने के बाद मेरे लिए त्याज्य हो जाती थी। लेकिन वह आवाज
सुनते ही मैं उसकी तरफ जोर से दौड़ा। हाँ, वह कजाकी ही था। उसे देखते ही
मेरी विकलता क्रोध में बदल गई। मैं उसे मारने लगा, फिर रूठकर अलग खड़ा हो
गया।
कजाकी ने हँसकर कहा, ‘‘मारोगे तो मैं एक चीज लाया
हूँ, वह नहीं दूँगा।’’
मैंने साहस करके कहा, ‘‘जाओ, मत देना। मैं लूँगा ही
नहीं।’’
कजाकी-‘‘अभी दिखा दूँ तो दौड़कर गोद में उठा
लोगे।’’
मैंने पिघलकर कहा, ‘‘अच्छा, दिखा
दो।’’
कजाकी-‘‘तो आकर मेरे कंधे पर बैठ जाओ, भाग चलूँ। आज
बहुत देर हो गई है बाबूजी बिगड़ रहे होंगे।’’
मैंने अकड़ कर कहा, ‘‘पहले
दिखा।’’
मेरी विजय हुई। अगर कजाकी को देर का डर न होता और वह एक मिनट भी रुक सकता
तो मेरा पासा पलट जाता। उसने कोई चीज दिखलाई जिसे वह एक हाथ से छाती से
चिपटाए हुए था। लंबा मुँह था दो आँखें चमक रही थीं।
मैंने उसे दौड़कर कजाकी की गोद से ले लिया वह हिरन का बच्चा था।
आह ! मेरी
उस खुशी का कौन अनुमान करेगा ? तब से कठिन परीक्षाएँ पास कीं, अच्छा पद भी
पाया; वह खुशी फिर न हासिल हुई। मैं उसे गोद में लिये, उसके कोमल स्पर्श
का आनंद उठाता घर की ओर दौड़ा। कजाकी को आने में क्यों इतनी देर हुई, इसका
खयाल ही न रहा।
मैंने पूछा, ‘‘यह कहाँ मिला कजाकी
?’’
कजाकी-‘‘भैया, यहाँ से थोड़ी दूर पर एक जंगल है। उसमे
बहुत से
हिरन हैं। मेरा बहुत जी चाहता था कोई बच्चा मिल जाय तो तुम्हें दूँ। आज यह
बच्चा हिरनों के झुंड के साथ दिखलाई दिया मैं झुंड की ओर दौड़ा तो सबके सब
भागे। यह बच्चा भी भागा। लेकिन मैंने पीछा न छोड़ा। और हिरन तो बहुत दूर
निकल गए, यही पीछे रह गया। मैंने इसे पक़ड़ लिया। इसी से इतनी देर
हुई।’’
यों बाते करते हम दोनों डाकखाने पहुँचे।
बाबूजी ने मुझे न देखा, हिरन के बच्चे को भी न देखा, कजाकी पर ही उसकी
निगाह पड़ी। बिगड़कर बोले, ‘‘आज इतनी देर कहाँ लगाई ?
अब थैला
लेकर आया है, उसे क्या करूँ ? डाक तो चली गई। बता तूने इतनी देर कहाँ लगाई
?’’
कजाकी के मुँह से आवाज निकली।
बाबूजी ने कहा, ‘‘तुझे शायद अब नौकरी नहीं करनी है।
नीच है न,
पेट भरा तो मोटा हो गया। जब भूखों मरने लगेगा तो आँखें
खुलेंगी।’’
कजाकी चुपचाप खड़ा हो रहा।
बाबूजी का क्रोध और बढ़ा। बोले, ‘‘अच्छा, थैला दे और
अपने घर
की राह ले। सूअर, अब डाक लेके आया है तेरा क्या बिगड़ेगा ! जहाँ चाहेगा,
मजदूरी कर लेगा। माथे तो मेरे जाएगी, जवाब तो मुझसे तलब
होगा।’’
कजाकी ने रुआसे होकर कहा, ‘‘सरकार अब कभी देर न
होगी।’’
बाबूजी- ‘‘आज क्यों देर की, इसका जवाब दे
?’’
कजाकी के पास इसका कोई जवाब न था। आश्चर्य तो यह था कि मेरी जवान बंद हो
गई। बाबूजी बड़े गुस्सावर थे। उन्हें काम करना पड़ता था, इसी से बात-बात
पर झुँझला पड़ते थे। मैं तो उनके सामने कभी जाता ही न था। वह भी मुझे कभी
प्यार न करते थे। घर में केवल दो बार घंटे-घंटे भर के लिए भोजन करने आते
थे, बाकी सारे दिन दफ्तर में लिखा-पढ़ी करते थे। उन्होंने बार-बार एक
सहकारी को लिए अफसरों से विनय की थी; कुछ असर न हुआ था।
यहाँ तक कि तातील
(अवकाश) के दिन भी बाबूजी दफ्तर में ही रहते थे। केवल माताजी उनका क्रोध
शान्त करना जानती थीं; पर वह दफ्तर में कैसे आतीं। बेचारा कजाकी उसी वक्त
मेरे देखते-देखते निकाल दिया गया। उसका बल्लम, चपरास व साफा छीन लिया गया
और उसे डाकखाने से निकल जाने की नादिरी हुक्म सुना दिया गया। आह ! उस वक्त
मेरा ऐसा जी चाहता था कि मेरे पास सोने की लंका होती तो कजाकी को दे देता
और बाबूजी को दिखा देता कि आपके निकाल देने से कजाकी का बाल भी बाँका नहीं
हुआ। किसी योद्धा को अपनी तलवार पर जितना घमंड होता है
उतना ही घंमड कजाकी
को अपनी चपरास पर था। जब वह चपरास खोलने लगा तो उसके हाथ काँप रहे थे और
आँखों से आँसू बह रहे थे। और इस सारे उपद्रव की जड़ वह कोमल वस्तु थी, जो
मेरी गोद में मुँह छिपाए ऐसे चैन से बैठी थी कि मानो माता की गोद में हो।
जब कजाकी चला गया तो मैं धीरे-धीरे उसके पीछे चला।
मेरे घर के द्वार पर आकर कजाकी ने कहा, ‘‘भैया, अब घर
जाओ;
साँझ हो गई।’’ मैं चुपचाप खड़ा अपने आँसुओं के वेग को
सारी
शक्ति से दबा रहा था। कजाकी फिर बोला, ‘‘भैया, मैं
कहीं बाहर
थोड़े ही जा रहा हूँ फिर आऊँगा। फिर और तुम्हें कंधे पर बैठाकर कुदाऊँगा।
बाबूजी ने नौकरी ले ली है तो क्या इतना न करने देगे। तुमको छोड़कर मैं
कहीं न जाऊँगा, भैया ! जाकर अम्मा से कह दो, कजाकी जाता है। इसका कहा-सुना
माफ करें।’’
मैं दौड़ा-दौ़ड़ा घर गया; लेकिन अम्माँजी से कुछ कहने के बदले बिलख-बिलखकर
रोने लगा।
अम्माँजी रसोई से बाहर निकल कर पूछने लगीं, ‘‘क्या
हुआ बेटा ?
किसने मारा ? बाबूजी ने कुछ कहा है ? अच्छा, रह तो जाओ। आज घर आते हैं,
पूछती हूँ। जब देखो, मेरे लड़के को मारा करते हैं। चुप रहो, बेटा, अब तुम
उनके पास कभी मत जाना।’’
मैंने बड़ी मुश्किल से आवाज सँभालकर कहा,
‘‘कजाकी...’’
अम्मा ने समझा कजाकी ने मारा है। बोली, ‘‘अच्छा आने
दो कजाकी
को। देखो, खड़े-ख़ड़े निकलवा देती हूँ। हरकारा होकर मेरे राजा बेटा को
मारे ! आज ही तो साफा, बल्लम-सब छिनवा लेती हूँ। वाह
!’’
मैंने जल्दी से कहा, ‘‘नहीं, कजाकी ने नहीं मारा।
बाबूजी ने
उसे निकाल दिया उसका साफा, बल्लम छीन लिया; चपरास भी ले
ली।’’
अम्माँ-‘‘यह तुम्हारे बाबूजी ने बहुत बुरा किया। वह
बेचारा
अपने काम में इतना चौकस रहता है। फिर भी उसे निकाला
?’’
मैंने कहा, ‘‘आज उसे देर हो गई
थी।’’
यह कहकर मैंने हिरन के बच्चे को गोद से उतार दिया। घर में उसके भाग जाने
का भय नहीं था। अब तक अम्माँजी की निगाह उस पर न पड़ी थी। उसे फुदकते
देखकर वह सहसा चौंक पड़ीं और लपककर मेरा हाथ पकड़ लिया कि कहीं यह भयंकर
जीव मुझे काट न खाए। मैं कहाँ तो फूट–फूटकर रो रहा था और कहाँ
अम्माँ की घबराहट देखकर खिलखिलाकर हँस पड़ा।
अम्माँ- ‘‘अरे, यह तो हिरन का बच्चा है। कहाँ मिला
?’’
मैंने हिरन के बच्चे का सारा इतिहास और उसका परिणाम आदि से अंत तक कह
सुनाया-‘‘अम्माँ, यह इतना तेज भागता था कि दूसरा होता
तो पकड़
ही न सकता। सन-सन हवा की तरह उड़ता चला जाता था। कजाकी पाँच-छह घंटे तक
इसके पीछे दौड़ता रहा, तब कहीं जाकर यह बच्चा मिला। अम्माजी कजाकी की तरह
कोई दुनियाँ भर में नहीं दौड़ सकता। इसीसे तो देर हो गई। इसलिए बाबूजी ने
बेचारे को निकाल दिया। चपरास, साफा, बल्लम-सब छीन लिया। अब बेचारा क्या
करेगा ? भूखों मर जाएगा।’’
अम्माँ ने पूछा, ‘‘कहाँ है कजाकी ? जरा उसे बुला तो
लाओ।’’
मैंने कहा, ‘‘बाहर तो खड़ा है। कहता था, अम्माँजी से
मेरा कहा-सुना माफ करवा देना।’’
अब तक अम्माँजी मेरे वृत्तांत को दिल्लगी समझ रही थीं। शायद वह
समझती थीं कि बाबूजी ने कजाकी को डाँटा होगा; लेकिन मेरा अंतिम वाक्य
सुनकर संशय हुआ कि सचमुच तो कजाकी बरखास्त नहीं कर दिया गया। बाहर आकर
‘कजाकी’ पुकारने लगीं। कजाकी का कही पता न था। मैंने
बार-बार
पुकारा लेकिन कजाकी वहाँ न था।
खाना तो मैंने खा लिया-बच्चे शोक में खाना नहीं छोड़ते, खासकर जब रबड़ी भी
सामने हो-मगर बड़ी रात तक पड़े-पड़े सोचता रहा, मेरे पास रुपये होते तो एक
लाख कजाकी को देता और कहता बाबूजी से कभी मत बोलना। बेचारा भूखों मर
जाएगा। देखूँ, कल आता है कि नहीं। अब क्या करेगा आकर ? मगर आने को तो कह
गया है। मैं उसे कल अपने साथ खाना खिलाऊँगा।
यही हवाई किले बनाते-बनाते मुझे नींद आ गई।
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