नाम : हरेन्द्र कुशवाह
जन्म तारीख : २४ जनवरी १९९१
शौक : कहानी और कविताये लिखना
उद्देश्य : एक पावन युग का निर्माण करना
फ़ोन नम्बर : ८४६०४०९२७८
E-mail : kushwahharendra@yahoo.com
और क्या कहें
किसे पुकारें हम इस हुजूम -ए- गम में
के सब ही हमारे आज़माये हुए हैं
तुम ही ने हमें कर दिया तनहा
वरना हम तो ताअल्लुक़ निभाए हुए हैं
धीमें धीमें आँसू दिल से गिरते
के हम अपना ग़म सब से छुपाये हुए हैं
उन शानो तक अब रसाई न रही
जिन शानो पे आँसू बहाए हुए हैं
हम करें अब किसी पर कैसे भरोसा
के ज़माने से धोके खाए हुए हैं
खुशिओं से भी अब तो लगता हे डर
इस क़दर ज़ख़्म हम ने खाए हुए हैं
अब दस्त-ए- शःन्सयी न बनाये गए हम
के ज़माने भर से ठुकराए हुए हैं
राजतन्त्र
कहने जा रहा हूँ दोस्तों देश की दास्ताँ ,
सुनना गौर से तुम्हे बतन का वास्ता .
जल रही हर ओर भ्रष्टाचार की चिनगारिया
हो शुद्द ऐसा न कोई दिख रहा है रास्ता
देखो फिर से कोई गाँधी निकल पड़ा
थोडा ही सही पर भारत भी चल पड़ा.
पर क्या होगा सोचो अनसन पर बैठकर
जब राजतन्त्र खुदकी बातों पर है अड़ा.
हाँथ फैलाये क्यों अपने ही हक़ को हम ,
बाजुओ का भी अभी न कम हुआ है दम .
उठो हक़ छीन लो यारो मरो मत बेवसी में
बरना बुजदिल दुनिया में कहे जायेंगे हम
हक़ के वास्ते लड़ना कोई पाप नहीं
बेवसी में जीने का कोई श्राप नहीं .
माना की अपने ही है महायुद्ध में
न ही हम अर्जुन कृष्ण भी साथ नहीं .
गीता का उपदेश तुमने शायद पड़ा होगा
महाभारत भी हक़ के लिए लड़ा होगा
फिर भ्रष्ट राजतन्त्र को क्यों न दे चेतावनी
एक दिन देखना सर झुकाये खड़ा होगा
माँ
हे माँ तू आ जाया कर , शाम ढले मन अकुलाता है.
दिन को तो उड़ता रहता , रात तनिक घबराता है .
कभी-कभी तो आ जाया कर, बेटे को न रुलाया कर.
यूँ तो मिलता हर रोज , सुबह वो सपना हो जाता है.
याद हे तेरे हाँथो का खाना,शाम ढले लोरी का सुनाना.
अंगुली फिरसे पकड़ ले माँ , बेटा तेरा लडखडाता है .
नील समुन्दर से आँशु नहीं रुकते , सिसकी रुक जाती है
कभी-कभी नीला अम्बर , हररोज बरसने आ जाता है
जिन्दगी
तेरी जिन्दगी कब तक किसे पता,कोंन कब पच्छी उड़ जाये किसे पता .
कुच्छ पल तो जीलो इन्शान बनकर
शांस कब दगा दे जाये किसे पता
अभी-अभी राम घर से निकला था .
थोड़ी देर पहले मेरे साथ खेला था .
बस ये रास्ता ही तो पार किया उसने .
कैसे उसने कफ़न ओढा किसे पता
माँ कहती हे ये नहीं हो सकता
भाई कहता उसे नहीं खो सकता
सच्चाई ये जो स्वीकारनी होगी
राम कैसे इतिहास बना किसे पता
बहन कहती कल ही मांटी लाया था
पुरे घर का लेपन उसीने कराया था
बस एक दिन ही तो गुजरा है वीरा
मांटी शमशान की कैसे बना किसे पता
हम तो बस चमेना कब खता है वो
कुच्छ हाँथ कुच्छ गोद कब उठता है वो
कल राम को जिन्दगी पर नाज़ था
क्यों चुपचाप चला गया आज किसे पता
गहराई तक
मुझ पर क्यों दया खाते हो तुम .
मेरी सिसकियो पर क्यों मुस्कराते हो तुम.
हकीकत दुनिया की सिखाई हमको तुमने .
खुद ही को क्यों भूल जाते हो तुम .
मेरी सिसकन को जो कविता कहते हो .
जब मै रोऊंगा उसको क्या बतलाओगे
आज लुट रहे हो ज़माने में तुम.
झूम रहे हो पी शराब मैखाने में तुम.
जितना कमाया उतना उड़ाया है.
अब झूटी हंशी क्यों हंश रहे हो तुम
मेरी बरबादी को बर्बादी कहते हो ,
कहिये तुम इसको क्या बतलाओगे
रात पीकर शराब जब घर आते हो.
रास्ते में कितनी ही ठोकर खाते हो .
कलह किया तुमने घर में आकर.
बहार लोगो से मार खाते हो
बदकिस्मत जो मुझको कहते हो .
तो अपनी किस्मत को क्या बतलाओगे
सुबह उठे बच्चे बोले नोता आया है .
किसी सगे अपने ने खाने पे बुलाया है
हाँथ डाला जेब में फिर खड़े रहे .
फिर बैठ कर हाँथ मन्थे से लगाया है
मेरे खाली घर को मातम सा कहते हो .
तो अपने सूने घर को क्या बतलाओगे
रेली में नेताओ की दिनभर जय जय चिल्लाये
भूंखे बिलख रहे थे बच्चे लौट शाम घर आये
दाने न मिले नारों की कीमत में तुमको
देखकर बिलखन व्याकुल हो उठे अकुलाये
मेरे बेबस घर को अगर गरीबी कहते हो.
कहिये अपने घर को क्या बतलाओगे
पाँच साल उन्होंने खून तुमारा चुंसा
तलवे कहते तुमने दिमाग में भरा था भूसा
जन्म गुलामी करी सुक से उनकी
जीतकर कभी उन्होंने तुमको है पुच्छ
अगर इस कवि को पागल कहते हो
तो अपने पागलपन को क्या बतलाओगे
आम आदमी
आम आदमी आम बनकर
पक रहा इस देश में
जानवर गद्दी पर बैठे
इन्शानो के भेष में
चुन्सकर आम गुठली को फेंकते
सड जाती वह पड़ी-पड़ी खेत में
उठो प्यारे बंधुओ
चलो सीना तानके
अटक जाओ गले में ,
निर्दि खुद को जानके
कब तक चुप्पी
कुच्छ तो करो
अब गुठली जैसे
तुम भी अंकुरों
मजबूत जड़े फैलाकर
बनो भरी भरकम पेड़ ,
करदो विध्वंस ये सब
राजनीति का खेल
जान निकाल सकती गुठली
जो हलक में अटक जाए
कमजोर न अहि कोई पेड़
अगर वो उग जाये
विकास का श्राप
कमी पड गयी कपड़ो की
शायद देश में अपने
कपडे कम हुए औरत के
टूटे संस्कृति के सपने
शायद यही तरक्की है
इन्शान इतना बड़ा हो गया
इतना बड़ा कपडा भी नहीं
जो उसकी इज्ज़त को ढक सके
शायद विकास की भूल में
आगे नहीं पीछे जा रहे है
इतना पीछे की
जब हमारे पास कपडे न थे
कारखानों की ज़हरीली हवाओ ने
सरे जहाँ को
अपने में समेट लिया है
हर कोई घुटन में जी रहा है
यमुना रो-रो कर कलि हो गयी
पर क्या करे कोई
तरक्की ऐसे ही होती है
शायद जिन्दगी के
उस मोड़ से गुजर रहे है
जो हमें फ़तेह के
सातवे आसमान से लेकर
यथार्थ की ज़मीन पर पटकता है ,
जिस चारपाई से उठकर चला था
वही पर शायद
ये एक चक्र है
जिसमे हम घूम रहे है
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